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लोकसभा चुनाव से ऐन पहले राहुल गांधी ने 5 बातों के लिए न सही समय चुना, न तरीका

राहुल गांधी के फैसले, कांग्रेस और खुद उनकी राजनीतिक सेहत के लिए काफी नुकसानदेह साबित होंगे. जिस न्याय यात्रा के लिए वो पूरे विपक्षी खेमे की नाराजगी मोल लिये, उसे भी बीच में छोड़ कर विदेश यात्रा प्लान कर लेते हैं - और वो भी तब जबकि आने वाले आम चुनाव के लिए एक एक पल बेहद महत्वपूर्ण है.

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भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान उखड़े-उखड़े क्यों दिखाई दे रहे हैं राहुल गांधी?
भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान उखड़े-उखड़े क्यों दिखाई दे रहे हैं राहुल गांधी?

राहुल गांधी भी 'मन की बात' ही करते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यक्रम की तरह उसे ये नाम नहीं दिया गया है. जिस तरह से हाल फिलहाल वो ऐश्वर्या राय और अमिताभ बच्चन से लेकर बनारस के युवाओं को 'शराबी' की तरह पेश कर रहे हैं और पत्रकार से उसकी जाति पूछ रहे हैं, वो उनके लिए हद से ज्यादा नुकसानदेह साबित हो सकता है - और सिर्फ ये ऐक्ट ही नहीं, हाल की उनकी राजनीतिक गतिविधियां मिलती जुलती ऐसी ढेरों तस्वीरें पेश करती हैं.

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1. न्याय यात्रा रोक कर राहुल को विदेश दौरे की क्या जरूरत?

कन्याकुमारी से कश्मीर तक भारत जोड़ो यात्रा पूरी करके राहुल गांधी ने खुद को एक तोहमत से उबार लिया था, लेकिन उनके एक लेटेस्ट फैसले ने फिर से उसी जगह पहुंचा दिया है. राहुल गांधी के बारे में एक आम धारणा बनने लगी थी कि वो राजनीतिक हिसाब से महत्वपूर्ण चीजों की बिलकुल भी परवाह नहीं करते. 

ऐसे कई मौके देखे गये हैं जब राहुल गांधी महत्वपूर्ण काम बीच में ही छोड़ कर विदेश दौरे पर निकल जाते हैं. पिछली बार जब किसानों का आंदोलन चरम पर था, कांग्रेस का स्थापना दिवस समारोह छोड़ कर वो विदेश यात्रा पर चले गये थे. और ऐसा ही झारखंड चुनाव के बीच भी देखने को मिला था, जब वो अपनी एक रैली छोड़ कर बाहर चले गये. यहां तक कि जब प्रशांत किशोर कांग्रेस को फिर से खड़ा करने को लेकर महत्वपूर्ण प्रजेंटेशन दे रहे थे, राहुल गांधी जल्दी से एक चक्कर लगा कर आ गये. तब राहुल गांधी का कहना था, उनको मालूम था कि प्रशांत किशोर पीछे हट जाएंगे.

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और अब वैसे ही न्याय यात्रा को होल्ड कर एक बार फिर राहुल गांदी लंदन चले जाते हैं. न्याय यात्रा की अवधि में भले ही कटौती करनी पड़े, लेकिन विदेश दौरा जरूर होना चाहिये. राहुल गांधी के विदेश दौरे से किसी को भी दिक्कत नहीं होनी चाहिये. न कांग्रेस को, न ही किसी और को. लेकिन नुकसान ये होता है कि जो चीजें चल रही हैं, रुक जाती हैं. 

बेहतर तो ये होता कि राहुल गांधी न्याय यात्रा रोक कर सीटों पर बंटवारे के लिए वक्त देते. जहां बातचीत में रुकावटें आ रही हैं, उसे दूर करते. ये तो तय है कि कांग्रेस में वो फाइनल अथॉरिटी हैं. उनके अलावा कोई भी बातचीत कर रहा होगा तो वो तात्कालिक तौर पर तो फैसले लेने से रहा - क्योंकि उसको तो राहुल गांधी से पूछ कर ही आगे बढ़ना है. चाहे वो प्रियंका गांधी वाड्रा हों, या फिर मल्लिकार्जुन खरगे ही क्यों न हों. व्यावहारिक व्यवस्था तो ऐसी ही है, आधिकारिक रूप से बेशक इसका खंडन किया जा सकता है. 

2. गठबंधन में देरी और खेल बिगाड़ने वाले मोलभाव

ये तो अच्छी बात है कि अब ममता बनर्जी ने भी नरमी दिखा रही हैं, और कांग्रेस के साथ गठबंधन का संकेत दिया है. उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन फाइनल होने के बाद आम आदमी पार्टी से उम्मीद तो बंधी ही है, तृणमूल कांग्रेस ने भी सीटों के बंटवारे जैसे चुनावी समझौते के लिए दरवाजे खोल दिये हैं. 

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अगर ये सब पहले ही हो गया होता तो चुनावी तैयारियों के लिए और भी वक्त मिला होता. पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 31 दिसंबर तक सीटों के बंटवारे पर बात फाइनल कर लेने का सुझाव दिया था, लेकिन नहीं हुआ. अव्वल तो सभी ने कांग्रेस की तरफ ही उंगली उठायी थी. 

भले ही कांग्रेस ज्यादा सीटें लेने या अपनी पसंदीदा सीटों के लिए ये सब किया हो, लेकिन अगर ये चीजें पहले सुलझा ली गई होतीं, तो बीते दो महीने जाया तो नहीं हुए होते. उम्मीदवारों की सूची जारी हो चुकी होती. घोषित उम्मीदवार चुनावों की तैयारी भी आगे बढ़ा चुके होते.

समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन की आधिकारिक घोषणा से पहले खबर आ रही थी कि मुरादाबाद, बिजनौर और बलिया सीट पर पेच फंसा हुआ है. गठबंधन फाइनल हो गया तो सामने आया कि कांग्रेस को वाराणसी की सीट भी मिली है.

बलिया सीट को लेकर ये कहा जा रहा था कि कांग्रेस वहां से यूपी कांग्रेस अध्यक्ष अजय राय को उतारना चाहती है. ठीक है. चलेगा. लेकिन अब चर्चा है कि अजय राय को वाराणसी से चुनाव मैदान में उतारने की तैयारी हो रही है - अजय राय को एक बार फिर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मैदान में उतारकर क्या मिलेगा? संसाधनों का नुकसान अलग से होगा, जिसे किसी और काम में लगाया जा सकता था. 

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बनारस की बात तो सामने आ गई है, इसलिए मालूम हो गया. अगर कांग्रेस गठबंधन की बातचीत में ऐसे ही मोलभाव बाकी राजनीतिक दलों के साथ कर रही है, तो वक्त और ऊर्जा जाया करने के अलावा कुछ भी हासिल नहीं होने वाला है.

3. राहुल के गैर-जरूरी और विवादित बोल

न्याय यात्रा दौरान राहुल गांधी की बयानबाजी तो जैसे कहर ढा ही रही है. ऐश्वर्या राय से लेकर अमिताभ बच्चन तक, राहुल गांधी नाम ले लेकर टूट पड़ते हैं. अगर मन में किसी के प्रति कोई गुस्सा है, तो उसे राजनीतिक हितों को ध्यान रखते हुए रोका भी जा सकता है. गुस्से पर काबू भी पाया जा सकता है. 

अगर सलाहकार ऐसे काम करा रहे हैं तो उनकी समीक्षा होनी चाहिये. आखिर वे कांग्रेस को मुसीबत से उबार रहे हैं या राहुल गांधी को उलटे-सीधे पर्चे थमा कर पार्टी को डुबाने में लगे हुए हैं. क्या कांग्रेस में आज की तारीख में ऐसा कोई नहीं है, जो इन बातों पर ध्यान दे रहा हो? और अगर ऐसा कोई भी नहीं हैं तो ऊपरवाला भी कुछ कर पाने में खुद को मजबूर पा रहा होगा. 

पंजाब की बात और है, लेकिन बनारस के बारे में राहुल गांधी ने जो कहा है वो सुन कर कांग्रेस के समर्थकों का भी खून खौल रहा होगा. एक बनारसी, पहले बनारसी होता है. कांग्रेसी, भाजपाई या सपा समर्थक बाद में होता है. 

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बनारस के बूढ़े ही नहीं, युवा भी भांग के प्रेमी होते हैं, और उसे भगवान शिव का प्रसाद समझ कर पूरी श्रद्धा से ग्रहण करते हैं - अगर राहुल गांधी वास्तव में शिवभक्त हैं तो ये सब उनको बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिये. 

काशी में शिव के साथ साथ भैरव भी हैं, जिन्हें शहर का कोतवाल माना जाता है. काल भैरव और बटुक भैरव के मंदिरों में शराब नैवेद्य का हिस्सा होता है, और उसे प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है - लेकिन वो प्रसाद पाकर बनारस का युवा सड़कों पर नहीं नजर आता. और बात शराब की ही हो, तो देश का वो कौन सा हिस्सा है जहां ये सब नहीं है. फिर बनारस का नाम लेकर वहां के युवाओं को दोषी ठहराने की क्या जरूरत है?

4. न्याय यात्रा के लिए समय का चुनाव

भारत जोड़ो न्याय यात्रा की घोषणा होते ही INDIA ब्लॉक में विरोध शुरू हो गया था. ये दलील दी जा सकती है कि चूंकि नीतीश कुमार ने पहले से ही बीजेपी के साथ जाने का मन बना लिया था, इसलिए जेडीयू नेता केसी त्यागी न्याय यात्रा को लेकर विरोध प्रकट कर रहे थे. 

लेकिन उनका सवाल तो यही था कि न्याय यात्रा कांग्रेस क्यों निकाल रही है, INDIA ब्लॉक के बैनर तले ऐसा क्यों नहीं हो रहा है. एक घोषणा ही तो करनी थी. ये भी उतना ही आसान था जितना न्याय यात्रा का रूट बदलना या उसकी अवधि में बदलाव करना या फिर बीच में रोक कर राहुल गांधी का विदेश दौरा कर लेना - और हां, नीतीश कुमार को रोक लेना कोई असंभव काम तो नहीं ही था? जिस फायदे के लिए नीतीश कुमार एनडीए में गये, INDIA ब्लॉक में भी तो हो ही सकता था? 

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5. बिखरती कांग्रेस और छूटते साथियों के प्रति बेपरवाह राहुल गांधी

कांग्रेस छोड़ कर जाने वाले सीनियर नेताओं में नया नाम महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण का है. उनको भी बीजेपी ने ज्योतिरादित्य सिंधिया की तरह स्वागत के साथ राज्य सभा भेज दिया है. क्या वो कांग्रेस के लिए किसी काम के नहीं थे? 
 
लोग कांग्रेस छोड़ कर चले जा रहे हैं, लेकिन राहुल गांधी को कोई परवाह नहीं लगती. राहुल गांधी के बयानों से तो ऐसा लगता है जैसे वो चाहते हों कि सचिन पायलट भी चले जाते. भरी सभा में सचिन पायलट के पेशेंस की मिसाल देकर भला क्या बताना चाह रहे थे?

किसी इंटरव्यू में प्रियंका गांधी का कहना था कि ये लड़ाई इतनी मुश्किल है कि हर किसी के लिए मैदान में बने रहना मुश्किल है. बिलकुल ठीक है, लेकिन कभी किसी ने सोचा कि जिसने पूरी जिंदगी एक विचारधारा की ही राजनीति की, वो उस विचारधारा के साथ जाने को क्यों मजबूर हो रहा है जिसका वो लगातार कट्टर विरोधी रहा है?

ये ठीक है कि कांग्रेस का हर नेता शरद पवार या ममता बनर्जी नहीं बन सका, लेकिन कांग्रेस छोड़ने के बाद भी जो कुछ खड़ा किया, उसमें प्रभावी तो वो विचारधारा ही रही है - राहुल गांधी विचारधारा के नाम पर क्षेत्रीय दलों के साथ अछूतों जैसा व्यवहार करते हैं, लेकिन लगता है कि वो विचारधारा को लेकर भी वैसे ही दावे करते हैं जैसे कांग्रेस के नेता उनके शिवभक्त होने का दावा करते हैं.

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