डॉ. मनमोहन सिंह ने 1999 में पहली बार (और एकमात्र) लोकसभा चुनाव लड़ा था. राजधानी की दक्षिण दिल्ली सीट से चुनावी मैदान में उतरे मनमोहन सिंह को शिकस्त का सामना करना पड़ा. मैं तब टीवी चैनल में काम करता था, जहां हम एक चुनावी शो करते थे. इस शो में हम पूरा दिन एक राजनेता के साथ जाकर उसका चुनाव प्रचार देखते थे.
मेरा काम डॉ. सिंह पर नज़र रखना था. डॉ. सिंह कैमरे पर बहुत झिझकते थे. हमने दिन का पहला आधा हिस्सा उनके साथ नाश्ता करके और फिर उनकी विशाल लाइब्रेरी में घूमकर बिताया. जब वो नामांकन दाखिल करने पहुंचे तो हम साथ में थे. इस दौरान जब धक्का-मुक्की हुई तो वह बहुत असहज हो गए.
विनम्र शख्सियत
डॉ. सिंह शूटिंग के दौरान एकदम विनम्र रहे, लेकिन टीवी पर दिख रहे प्रचार में हम थोड़ा और चुनावी तड़का लगाना चाहते थे. तभी हमें पता चला कि डॉ. सिंह के पोते का जन्मदिन था और गार्डन में एक छोटी सी पार्टी रखी गई है. हमने रिक्वेस्ट की, ‘क्या हम परिवार के साथ एक शॉट फिल्मा सकते हैं, यह अच्छा टीवी शो बनेगा.’ इस पर सिंह ने सख्त लहजे में कहा, ‘नहीं, इसमें कोई सवाल ही नहीं, आप कैमरे को मेरे मेरे परिवार की तरफ नहीं घुमाएंगे, यह हमारी निजी जगह है.’
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अगर डॉ. सिंह के जीवन और समय से कोई सीख लेनी हो तो वह यह है कि कैसे अच्छे और बुरे समय में निजता की रक्षा की जाए और व्यक्तिगत गरिमा को बनाए रखा जाए. वह कभी भी बाहरी शोर और सार्वजनिक जीवन में होने के दबाव से प्रभावित नहीं रहे. वह भारत के बेहतरीन वित्त मंत्री बने, जिन्होंने क्रांतिकारी आर्थिक सुधारों की घोषणा की और प्रधानमंत्री बने, जिन्होंने महत्वपूर्ण भारत-अमेरिका परमाणु समझौते को अंजाम दिया, लेकिन उन्होंने एक बार भी अपने या अपने परिवार के किसी सदस्य के लिए कोई चाहत नहीं रखी.
मुझे याद है कि परमाणु समझौता पारित होने के बाद हमने एक टीवी शो में 'सिंह इज किंग' गाना बजाया था और उनके दफ्तर ने फोन करके कहा था कि इस तरह के उत्साह दिखाने को टाला जा सकता था. एक बार हमने उनकी कई उपलब्धियों के लिए उन्हें 'वर्ष का सर्वश्रेष्ठ भारतीय' चुना. पांच सितारा होटल में आयोजित होने वाले कार्यक्रम में आने के बजाय, उन्होंने अनिच्छा से प्रधानमंत्री के निवास पर पुरस्कार लेने की सहमति व्यक्त की. उनका विनम्र जवाब था, 'ऐसे कई भारतीय हैं जिन्होंने मुझसे कहीं अधिक उपलब्धियां हासिल की हैं.'
संघर्षपूर्ण रहा मनमोहन का जीवन
ऐसे युग में जहां सेल्फ प्रमोशन और मार्केटिंग को एक बेहतरीन राजनीतिक रणनीति माना जाता है, तो वहीं दूसरी तरफ डॉ. सिंह एक ऐसे युग की याद दिलाते हैं जब आपको अपनी सीवी को सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर दिखाने की जरूरत नहीं होती थी. यह इंस्टा-ट्विटर सोशल मीडिया युग से पहले का समय था, जब आपके काम की लेटर ऑफ एप्रिसिएशन का मतलब होता था कि आपके काम की मान्यता.
अपने पूरे करियर के दौरान, डॉ. सिंह ने अविश्वसनीय रूप से लंबे समय तक काम किया, लेकिन कभी भी इसे एक जुनून नहीं बनाया. उन्होंने जीवन में कठिन संघर्ष किया था और इसलिए उनकी कार्यशैली में कठोरता और अनुशासन शामिल था. हमारी आखिरी व्यक्तिगत मुलाकातों में से एक में उन्होंने याद किया कि कैसे उनका परिवार विभाजन की भयावहता से बच गया, कैसे वह गरीबी में पले-बढ़े और कैसे अकादमिक विद्वता ने उन्हें जीवन में आगे बढ़ने में सक्षम बनाया. यह महसूस करते हुए कि वह थोड़ा भावुक हो गए थे. उनकी पत्नी गुरशरण ने तभी कड़क आवाज में कहा 'बस करो, चलो अब चाय पीते हैं!' साफ है कि वह घर में बड़ी बॉस थीं.
लेकिन जब डॉ. सिंह ने अपने शुरुआती वर्षों के बारे में भावुकता से बात की, तो मैं यह जानकर हैरान रह गया कि कैसे उनका जीवन एक महत्वाकांक्षी, योग्यता से प्रेरित 'नए' भारत की उभरती कहानी का अग्रदूत था. एक ऐसा भारत जिसे उन्होंने विरोधाभासी रूप से आकार देने में मदद की. जिस भारत में डॉ. सिंह बड़े हुए, वहां विशेषाधिकार प्राप्त अभिजात वर्ग के बाहर वाले लोगों के लिए बहुत कम अवसर थे. ऐसे समय में यदि आपको चुनौतियों से पार पाना था तो मेधावी छात्रवृत्ति के माध्यम से पढ़ाई-लिखाई में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन ही एकमात्र रास्ता था. डॉ. सिंह भले ही एक 'एक्सीडेंटल' प्रधानमंत्री रहे हों, लेकिन वे एक ऐसे योग्यतावादी थे जिन्होंने हर संभव अवसर का सर्वोत्तम उपयोग करके अपने करियर को आकार दिया.
नए भारत को दिया आकार
1991 के बाद का भारत अकल्पनीय अवसरों में से एक है, जिसे आकार देने में उन्होंने मदद की, लेकिन कभी इसका श्रेय नहीं लिया. स्वाभाविक रूप से विनम्र, मृदुभाषी लेकिन आत्मविश्वासी व्यक्तित्व शायद एक कारण रहा कि वह किसी भी समय अहंकार में नहीं आए और बिना दवाब के उच्च पद संभालने में सक्षम रहे. वह अपनी राजनीतिक सीमाओं को जानते थे और उनके भीतर काम करते थे, हमेशा राष्ट्र निर्माण के बड़े उद्देश्य के लिए प्रतिबद्ध रहते थे. जब जरूरत पड़ी तो परमाणु समझौते जैसे कठोर फैसले लिए, वह भी हुक्म से नहीं बल्कि आम सहमति और बातचीत के जरिए. उन्हें शायद 2009 में ही रिटायर हो जाना चाहिए था, जब उनकी हार्ट की बीमारी की वजह से उनका स्वास्थ्य धीरे-धीरे खराब होने लगा था. गठबंधन की मजबूरियां बढ़ रही थीं और यूपीए 2 में हर गलत कदम के लिए दोष सहने के बजाय वह संभवतः बाहर निकल सकते थे. उनकी व्यक्तिगत ईमानदारी बरकरार थी, हालांकि उनके मंत्रियों पर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों ने उनके दूसरे कार्यकाल को दागदार कर दिया.
इतिहास उन्हें बहुत ही विनम्रता से आंकेगा. 1991 में शुरू किए गए सुधारों ने एक पूरी पीढ़ी को आकार दिया है, लाखों लोगों को गरीबी से बाहर निकाला है और भारत दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक बन गया है. आम तौर पर, डॉ. सिंह स्वीकार करते थे कि यह एक व्यक्तिगत प्रयास नहीं था, बल्कि एक टीम थी जो आर्थिक इंजन को आगे बढ़ाने के लिए एक साथ आई थी.
कभी नहीं किया काम में हस्तक्षेप
एक पत्रकार के रूप में, मैं उन्हें एक और विशेष वजह से याद रखूंगा. हम अक्सर एक न्यूज नेटवर्क के रूप में उनकी सरकार की आलोचना करते थे, लेकिन एक बार भी उन्होंने या उनकी सरकार के किसी व्यक्ति ने मुझे डांटने के लिए फोन नहीं किया. यहां तक कि, जब मैं 2 जी नीलामी से निपटने के उनके तरीके पर एक कठोर संपादकीय लिखने के बाद एक आधिकारिक समारोह में उनसे मिला, तो उन्होंने मुझे देखकर मुस्कुराते हुए कहा: 'मैंने आपका कॉलम पढ़ा. आपने कुछ महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं..' इतनी शालीनता से कितने और लोग जवाब दे सकते हैं?
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एक आखिरी याद. 2004 में, आश्चर्यजनक फैसले के बाद जिसने वास्तव में देश को चौंका दिया, इस बात पर अटकलें लगाई जा रही थीं कि अगला प्रधानमंत्री कौन होगा. मैं सर डेविड बटलर के साथ चाय पी रहा था, जो चुनाव विश्लेषण के ऑरिजनल गुरु हैं, और वह डॉ. सिंह के साथ ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में शिक्षाविदों के रूप में साथ बिताए दिनों से अच्छी तरह से जानते थे. उन्होंने कहा, ‘क्या आप जानते हैं राजदीप, मुझे लगता है कि मेरे पास इस सवाल का जवाब है कि प्रधानमंत्री कौन होगा, मैं किसी ऐसे व्यक्ति को जानता हूं जो गठबंधन सरकार का नेतृत्व करने के लिए शायद आदर्श व्यक्ति है.’ जब उन्होंने डॉ. सिंह का जिक्र किया, तो मैंने उनसे पूछा कि क्यों. तो उनका जवाब था, ‘क्योंकि भारत को शीर्ष पर एक अच्छे व्यक्ति की जरूरत है और डॉ. सिंह ऐसे नेता हैं जो हमेशा राष्ट्र को खुद से पहले रखेंगे..’
वास्तव में, शालीनता जीवन में एक बहुत ही कम आंका जाने वाला मूल्य है. डॉ. सिंह एक सम्माननीय शख्सियत थे जिन्होंने सार्वजनिक जीवन में शालीनता और अच्छाई का उदाहरण पेश किया. डॉक्टर साहब, मेरी पीढ़ी को सपने देखने की हिम्मत देने के लिए धन्यवाद... और अलविदा!
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और '2024: द इलेक्शन दैट सरप्राइज्ड इंडिया' के लेखक हैं)