प्रतिष्ठा का प्रश्न बन चुके घोसी उपचुनाव में समाजवादी पार्टी से बीजेपी हार चुकी है. बीजेपी के लिए यह सीट हारना महत्वपूर्ण नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि इतनी बड़ी हार कैसे हुई. दरअसल बीजेपी 2024 लोकसभा चुनाव जीतने के लिए यहां एक्सपेरिमेंट कर रही थी.यहां की जीत उसके लिए बहुत महत्वपूर्ण थी. इसलिए जीतने की हर वो रणनीति अपनाई गई जो यहां के लिए जरूरी था. फिर भी चुनावों में वोट क्यों नहीं मिले? यह सवाल तो खड़ा होना ही था.
तो क्या मान लिया जाए कि पार्टी ने जो गलती 2018 में गोरखपुर और फूलपुर लोकसभा चुनावों के दौरान की थी वही गलती घोसी उपचुनावों में भी हुई है. 2018 में गोरखपुर लोकसभा की हार को सीएम की योगी आदित्यनाथ की बड़ी हार बताया गया था. दूसरी ओर अंदरखाने में ये भी कहा गया कि योगी जानबूझकर गोरखपुर लोकसभा का चुनाव हारे थे. इन दो तरह के विचारों में कौन सा सही था और कौन सा गलत ये साबित करना बहुत मुश्किल है पर यह जरूर कहा जाएगा कि पार्टी की अंदरूनी राजनीति ने यह इलेक्शन हरवा दिया था.अगर हम घोसी चुनावों में बीजेपी की हार के कारणों का विश्लेषण करें तो मुख्य रूप से वहीं पॉइंट निकल कर सामने आ रहे हैं जो 2018 में थे.आइए देखते हैं कैसे?
घोसी में भी गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव (2018) जैसी बड़ी हार
घोसी में प्रदेश के सभी कद्दावर मंत्री , संगठन के लोगों के लगे होने और एनडीए के सहयोगी दलों के लोग लगातार लगे रहे इसके बाद भी घोसी में बड़ी हार होती दिख रही है. 26 राउंड की गिनती में सपा उम्मीदवार सुधाकर सिंह ने 22 राउंड में एकतरफा जीत दर्ज की. जबकि इसी सीट से इस्तीफा देकर बीजेपी उम्मीदवार दारा सिंह चौहान को महज 4 राउंड में सपा से ज्यादा वोट प्राप्त हुए.चुनाव आयोग के अनुसार 28 वें राउंड तक काउंटिंग में ही करीब 36 हजार वोटों से समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी सुधाकर सिंह आगे चल रहे हैं.सवाल यह है कि जब वोटों की गुणा गणित के चलते ही पार्टी ने समाजवादी पार्टी से तोड़कर दारा सिंह चौहान का लाया, ओमप्रकाश राजभर को भी लाया गया फिर भी पार्टी कैंडिडेट इतनी बड़ी हार की ओर कैसे बढ़ रहा है.
2018 में भी कुछ ऐसा ही हुआ था. तक योगी बीजेपी में अपने पांव अंगद की तरह जमा चुके थे.उन्हें त्रिपुरा में भाजपा की जीत का श्रेय मिल रहा था तो कर्नाटक में पार्टी के प्रचार के लिए भेजे जा रहे थे. तो ऐसा क्या था कि वही आदित्यनाथ गोरखपुर लोकसभा सीट जहां 30 साल से ही वो जीत रहे थे या मठ का समर्थित प्रत्याशी जीत रहा था खुद के मुख्यमंत्री बनने के बाद हार जाते हैं? गोरखपुर लोकसभा से 1989 से 1996 तक महंत अवैद्यनाथ सांसद रहे. उसके बाद 2017 तक लगातार योगी आदित्यनाथ सांसद चुने जाते रहे. 2018 के चुनावों में इस सीट पर भाजपा के तीन से साढे़ तीन लाख वोट कम कैसे हो गए? दरअसल यही कारण है कि कहा जाता है कि योगी ने वह चुनाव लड़ा ही नहीं था तो वोट कहां से आते? हालांकि अंदरखाने में ये भी कहा गया कि पार्टी के अंदर चल रहे शह और मात के खेल में गोरखपुर लोकसभा चुनाव पार्टी हार गई.
तो सवाल उठना लाजिमी है कि क्या घोसी उपचुनाव में फिर ऐसा ही हुआ है. घोसी विधानसभा सीट से सटे आजमगढ़ लोकसभा सीट के उपचुनाव में घोसी वाली विपरीत परिस्थितियों में ही जिस लीडर के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी के गढ पर फतह हासिल होती है वह घोसी जैसा चुनाव इतने बड़े पैमान पर कैसे हार जाता है?
तो क्या योगी की पसंद के कैंडिडेट न मिलने से हुई हार
गोरखपुर लोकसभा उपचुनाव ( 2018) और घोसी विधानसभा उपचुनाव (2023) की हार के कारणों पर विश्लेषण से पता चलता है कि दोनों बार योगी के पसंद का ध्यान नहीं रखा गया. जाहिर है जब सेनापति की पसंद का ध्यान नहीं रखा जाएगा तो युद्ध में सेनापति आधे-अधूरे मन से कितना वॉर कर सकेगा? कहा जाता है कि योगी ने तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ये बात बता दी थी कि गोरखपुर में केवल गोरखनाथ पीठ का व्यक्ति ही जीत सकता है पर उनकी सलाह को ध्यान में नहीं रखा गया. पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने उपेन्द्र शुक्ला को गोरखपुर लोकसभा के प्रत्याशी के रूप में चुना जो बीजेपी के क्षेत्रीय अध्यक्ष थे.तत्कालीन परिस्थितियों के हिसाब से किसी ब्राह्मण प्रत्याशी को टिकट देना ठीक नहीं था वो भी तब जब सामने एक पिछड़ी जाति का प्रत्याशी था.
घोसी उपचुनाव में भी यही कथा दोहराई गई है. पत्रकार विनोद शर्मा कहते हैं कि दारा सिंह चौहान और ओमप्रकाश राजभर को योगी आदित्यनाथ पार्टी में लाने से खुश नहीं थे.यही कारण रहा कि उन्होंने इन लोगों को अभी यूपी सरकार में मंत्री पद से दूर रखा है. जबकि यह किसी से छुपी नहीं है कि इन दोनों नेताओं की वापसी इसी शर्त पर हुई दोनों को मंत्री पद दिया जाएगा.
तब मोदी और शाह नहीं आए, इस बार योगी नहीं पहुंचे
2018 में गोरखपुर की हार के पीछे के कारणों के बारे में कहा गया था कि पार्टी ने गंभीरता से नहीं लिया.बीजेपी की केंद्रीय और प्रदेश इकाई ने इन चुनावों को कितनी गंभीरता से लिया था इससे स्पष्ट हो जाता है कि चुनाव प्रचार में न प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गए और न ही अमित शाह. इतना ही नहीं चुनाव प्रभार अनूप गुप्ता और शिव नारायण शुक्ला जैसे कम वजनदार लोगों को दायित्व दिया गया. पार्टी के अंदरखाने में यही लोग कहते थे कि यूपी में योगी का कद कम करने की रणनीति के चलते ऐसा हुआ. ऐसी ही स्थित घोसी उपचुनाव में भी देखी गई . एक तरफ अखिलेश और शिवपाल कंधे से कंधा मिलाकर चुनाव प्रचार कर रहे थे तो दूसरी ओर मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अंतिम चरण में रैली करने पहुंचे.
पसंद का टिकट न मिलने पर बीजेपी को गोरखपुर विधानसभा चुनाव भी हरवा चुके हैं योगी
यह घटना 2002 की है जब योगी आदित्यनाथ ने गोरखपुर शहर विधानसभा क्षेत्र से अपने पसंद का प्रत्याशी न मिलने पर अपना प्रत्य़ाशी खड़ा कर उसे बंपर वोटों से जिता दिया. यह वह समय था जब गोरखपुर और आसपास की सीटों पर योगी के पसंद के कुछ लोगों को टिकट दिया जाता था.अगर योगी के समर्थक प्रत्याशी को टिकट नहीं मिला तो मंदिर समर्थित अखिल भारतीय हिंदू महासभा के प्रत्याशी खड़े होते थे. जो चुनाव भले ही न जीतें पर बीजेपी के प्रत्याशी को विधानसभा में नहीं पहुंचने देते थे.2002 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में भी कुछ ऐसा ही हुआ था.गोरखपुर की विधानसभा सीट से युवा सांसद योगी आदित्यनाथ अपने करीबी डॉ. राधा मोहन दास अग्रवाल को लड़ाना चाहते थे. ये वही राधामोहन दास हैं जो आज पार्टी के अंदर योगी के विरोधियों में शुमार होते हैं. पार्टी ने टिकट बीजेपी सरकार में तीन बार मंत्री रहे शिव प्रताप शुक्ला को.शुक्ला गोरखपुर शहर से चार बार के विधायक बन चुके थे.अपने करीबी को टिकट न मिलने से योगी आदित्यनाथ पार्टी से खफा हो उठे.योगी के जनाधार का असर दिखा शिव प्रताप शुक्ला बुरी तरह हारे.राधा मोहन दास अग्रवाल जीते और शिवप्रताप शुक्ला तीसरे नंबर पर खिसक गए. तो क्या इस बार भी बीजेपी में कुछ ऐसा ही हुआ है कि पार्टी एकमत से चुनाव नहीं लड़ रही थी? सेनापति आधे-अधूरे मन से लड़ रहा था युद्ध?