
यह सच है कि सभ्यता के विकसित होने का घटनाक्रम ऐसा रहा है कि त्योहारों का जिम्मा स्त्रियों के ही हिस्से आया. नवरात्र, छठ, करवाचौथ, तीज, एकादशी और कई सारे व्रत-विधान और रीतियां महिलाएं ही करती रही हैं और आज भी कर रही हैं.
पर्व और व्रत में स्वयं शारीरिक कष्ट सहते हुए देव को प्रसन्न करने जो पॉपुलर कॉन्सेप्ट है उसका जिम्मा महिलाओं को ही उठाना पड़ा है. लेकिन ऐसा क्यों हुआ इस पर विचार करना जरूरी है. कहानी सैकड़ों साल पीछे से शुरू होती है. जब मनुष्य स्थायी बस्तियों में रहना शुरू कर चुका था. व्यापार का प्रांरभ हो चुका था.
भारतीय उपमहाद्वीप में तब आम आदमी के लिए जीविकोपार्जन का तीन मुख्य जरिया था- कृषि, वाणिज्य और सैनिकों का पेशा. घर गृहस्थी चलाने के लिए लोग खेती करते थे या जानवर पालते थे. जिंदगी बसर करने के लिए दूसरा जरिया था वाणिज्य-व्यापार. भारत मसालों, सिल्क, मलमल, सोना, कीमती पत्थर, हाथी के दांत, कृषि उपज, और मणि माणिक्य के व्यापार में अग्रणी था.
जैसे-जैसे सभ्यताएं विकसित हुई,संसाधनों पर कब्जे के लिए दो नगरों के बीच टकराव शुरु हुआ. लिहाजा सुरक्षा की आवश्यकता महसूस हुई. इसी परिस्थिति में भारत में मार्शल रेस का विकास हुआ. ये वो आबादी थी जो स्टेट को अपनी सेवा देती थी और नगर/राज्य की ओर से लड़ने जाती थी. इस पेशे में जान का खतरा था लेकिन इस खतरे के साथ रुतबा और आमदनी भी अटैच था. इसलिए दमदार, दिलेर और बहादुर युवा इस पेशे में आ गए और ये जीवन-यापन का अच्छा जरिया साबित हुआ.
भारत में सर्विस सेक्टर तो 30-40 साल पहले की चीज है. प्राचीन और मध्य भारत में सर्विस इंडस्ट्री के नाम पर ज्योतिष, चिकित्सा, वैध, कर्मकांड, पांडित्य, पुजारी, साहूकार, जैसे कुछ पेशे थे. लेकिन इस फील्ड में टिकने के लिए विशेष योग्यता की जरूरत थी. इसलिए इन क्षेत्रों में कुछ खास लोग ही काम कर पाते थे.
कृषि, व्यापार और सैन्य सेवा ये तीन ऐसे कोस थे जिनमें पुरुषों की भागीदारी मुख्य थी. ऐसा इसलिए भी था क्योंकि खेती-बारी को कुछ हद तक छोड़ दें तो बाकी के दोनों कामों में सुरक्षा अहम सवाल था.
ये कहानी तब की है जब परिवार नाम की संस्था वजूद में आ चुकी थी. पुरुष घर से रोजी-रोटी कमाने निकले तो स्त्रियां और बच्चे घर में अकेले रह गए. वर्षा, बाढ़, तूफान, सूखा, नदी, सागर, महासागर, पर्वत, मरुस्थल, आग तब प्रकृति का कोई राज न मनुष्य समझता न ही इन पर उसका नियंत्रण था.
बाढ़, बारिश, आग, गर्जना, तूफान किसी भी चीज की अधिकता को वह देव और देवी का 'क्रोध' ही समझता था. पुरुष घर से बाहर थे और प्रकृति के कारनामों से भौचक स्त्रियां घर में भयभीत थीं. इसी परिस्थिति में स्त्रियों ने अपने पति-पिता, भाई और मित्र की सुरक्षा का भार अपने नाजुक कंधों पर ले लिया.
इसके लिए सबसे आसान था उस अराध्य के शरण में जाना जो इन प्राकृतिक घटनाओं को नियंत्रित करता था. दीगर है कि इस समय तक इंद्र, देवता, जल, कृषि, वायु, सूर्य देवता की संकल्पना इंसान के जिज्ञासु मस्तिष्क में आकार ले चुकी थी.
अपने स्वामी को घर से दूर भेज चुकी स्त्री ने अपने अराध्य देवता का आह्वान किया और कहा- हे देव, खेतों में काम कर रहे मेरे पति, बेटे को, विदेशों में व्यापार करने गए मेरे पति-भाई, बेटे को और राजा की सेना में लड़ रहे मेरे पति-पिता, भाई और मित्र की रक्षा करना. आपको प्रसन्न करने लिए मैं उपवास रखूंगी, व्रत करूंगी. जब इस स्त्री का स्वामी कई महीनों बाद व्यापार कर के घर लौटा, जब इस नारी का पति राजा का युद्ध लड़कर अपने परिवार के पास वापस आया तो ये मौका इस नारी के लिए उत्सव जैसा ही था. उसने अपने वादे पर अमल करते हुए स्वयं उपवास किया और पूजा में अपने पति-बच्चों को भी शामिल किया.
सालों-साल चलते हुए ये उपवास, ये व्रत त्योहार भारतीय जीवन के कैनवस के खूबसूरत रंग बन गए. महिला की इस मन्नत ने उसके सगे-संबंधियों की कितनी रक्षा की, ये बहस का विषय हो सकता है, लेकिन उस नारी की अराधना निरंतर जारी रही.
तब खेती की प्रणाली इतनी विकसित न थी.सारा काम व्यक्ति को स्वयं और जानवरों के सहयोग से करना पड़ता था. इस वजह से पुरुषों का सारा दिन खेतों में गुजरता था. महिलाएं भी इस काम में सहयोग करती थी. लेकिन उनकी बॉयलॉजी, बच्चों का पालन-पोषण, भोजन पकाने का काम जैसे कई चीजें थीं जिनकी वजह से वे खेती में पूर्ण रूप से शामिल नहीं हो पाती थीं.
एक महिला करीब करीब सूर्योदय से पहले दिन चढ़ने तक खेत में पति के साथ काम करती थी. इसके बाद उसे घर आकर स्नान-ध्यान के बाद दोपहर का खाना भी बनाना पड़ता था. होम मेकिंग में उसकी भूमिका पुरुष से कम नहीं थी.
अब फर्ज कीजिए, महिला अपने घर में है, उसका पति दूर जंगलों के बीच अपने खेत में है. तभी तेज बारिश शुरू हो जाती है, बिजली कौंधने लगती है, बादल भीषण गरज रहे हैं. ऐसी स्थिति में अपने कुटुंब से घर में घिरी स्त्री सहज ही वरुण देव से प्रार्थना करती है, हे देव मेरे पति की रक्षा करना. मैं उपवास रखूंगी, ऐसा करूंगी, वैसा करूंगी. कहने का मतलब है उसने पति की रक्षा के लिए एक सहज उपाय किया.
ऐसे ही ये महिला कभी अपने फसलों की रक्षा के लिए, कभी बारिश करवाने के लिए या कभी बारिश रुकवाने के लिए, कभी अच्छे ऋतु के खातिर वरुण, अग्नि या स्थानीय ग्राम देवता से प्रार्थना करती रही. इसी तरह धीरे-धीरे एकादशी, पूर्णिमा, संक्रान्ति ( जब चंद्र किरणों से आसमान आच्छादित रहता था ) जैसे त्योहार उसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गए.
व्यापार-वाणिज्य की बात करें तो, उस समय व्यापार के सिलसिले में पुरुष कई महीनों तक घर से बाहर रहते थे. कठोर ठंड, वर्षा, और लू के थेपेडे़, घनघोर जंगल, डाकू, हिंसक जानवर इनसे सुरक्षा के लिए स्टेट के प्रबंध बहुत ही कम थे. सब कुछ प्रकृति और भाग्य के भरोसे था.
तब भारत का व्यापार नदियों और समुद्र के जरिये ज्यादा होता था. सड़क मार्ग तो विकसित हो ही रहा था. पंतजलि और पाणिनी ने इस बारे में लिखा है. पंतजलि ने स्त्रुघ्न (सुध) और पाटलिपुत्र जाने वाले पथों के अलावा प्रसिद्ध उत्तरापथ का उल्लेख किया है. जो पुष्कलावती से तक्षशिला तक जाता था. इसके आगे ये पथ सिन्धु, झेलम, व्यास, सतलज और यमुना नदियों को पार करता हुआ हस्तिनापुर, कन्नौज और प्रयाग नगरों से होकर गुजरता हुआ पाटलिपुत्र पहुंचता था.
भारतवर्ष में तब देश के अंदर तो लेन-देन होता ही था, इसके अलावा हमारे वणिक फारस, सुमेरिया, बेबीलोन, मिस्र, रोम, चीन, इंडोनेशिया, थाईलैंड तक व्यापार करने जाते थे.
महावस्तु नाम के पुस्तक से पता चलता है कि पथों की सुख सुविधा पर राजाओं द्वारा ध्यान दिए जाने के बावजूद अनेक मार्ग उबड़-खाबड़ और असुरक्षित थे. इस पुस्तक में लिखा है, 'मार्ग में व्यापारियों तथा अन्य यात्रियों को हिंसक पशुओं एवं लुटेरों डाकुओं के आक्रमण का सामना करना पड़ता था.'
महिला घर में थी. संपर्क साधने का कोई जरिया न था. और ये हालत तो 1990 से पहले तक थी.व्हाट्सएप, फोन, मैसेज के बीच बढ़ रही आज की आबादी को शायद उस काल की संचार सुविधाओं का महत्व मालूम न हो.
ऐसी स्थिति में घर में मौजूद मां, गृह स्वामिनी, युवती अपने बेटे पति और प्रियतम की सलामती और सेहत के लिए देवी-देवता के सामने ही जाती थी. यह उसकी विश्वास का हिस्सा था. जिसका पालन कर उसे आत्मिक संतुष्टि होती थी. उसे लगता था उसने अपनी फरियाद एक ऐसी शक्तिशाली सत्ता के सामने रखी है जो पूरी कायनात चलाता है. इसके बाद के परिणाम को मंजूर करने के लिए वो स्त्री तैयार थी.
वेदों, स्मृतियों और हमारे धार्मिक पुस्तकों में ऐसे श्लोकों का वर्णन है. ब्रिटिश इंडोलॉजिस्ट राल्फ थॉमस हॉचकिन ग्रिफिथ ने भारतीय वैदिक ग्रंथों का अंग्रेजी में अनुवाद किया है. ग्रिफिथ द्वारा अनुवादित एक श्लोक में इंद्र देवता की प्रार्थना करते हुए स्त्री कहती है.-
O Indra, with thy chariot-steeds
Bring back my husband safe and sound,
From distant lands, from hostile bands,
And set him down upon his ground.
इसका अर्थ है- हे इंद्र, अपने रथ-घोड़े सहित! मेरे पति को सुरक्षित और स्वस्थ वापस लाओ, दूर देशों से, शत्रु दलों से.और मेरे परिवार को सौभाग्य, संपत्ति और पशु प्रदान करें. (ऋगवेद- 10.85.36)
अर्थव वेद के श्लोक संख्या 14.1.20 का सार है कि महिलाएं परिवार और समाज की रक्षिका हैं. वे बतौर गृह स्वामिनी अपने पति-परिवार की रक्षा और समृद्धि के लिए जुटी रहें. ये श्लोक इस प्रकार है.
भगस्त्वेतो नयतु हस्तगृह्याश्विना त्वा प्र वहतां रथेन।
गृहान्गछ गृहपत्नी यथासो वशिनी त्वं विदथमा वदासि।।
इसमें वधु को ऐश्वर्यवान कहा गया है. और कामना की गई है कि वो विवाह के पश्चात अपने पति के घर की गृह स्वामिनी बने. उल्लेखनीय है कि इन श्लोकों की कई व्याख्याएं हुई है और इसके कई अर्थ निकाले गए हैं.
तैत्तिरीयोपनिषद में एक स्त्री देवी सावित्री से प्रार्थना कहते हुए कहती है-
सवित्रे, पतिम् मे पाहि यात्वम परावतः / न तम् हिनस्याङ्कशचना न मृत्युः / न पशवो न च रक्षांसि नो नश्यति क्वा चनाम्।।
इसका अर्थ है- "हे सावित्री, यात्रा में मेरे पति की रक्षा करें. उन्हें किसी भी खतरे से नुकसान न पहुंचे, चाहे वह जंगली जानवरों से हो, लुटेरों से हो, या शत्रु ताकतों से हो. वह खुशी और समृद्धि से भरपूर होकर सुरक्षित घर लौट आएं."
कौषीतकी उपनिषद में भी ऐसा ही एक श्लोक है. यहां एक स्त्री अग्निदेव का आह्वान करते हुए कहती है-
अग्ने, पवित्रं पवित्रं मे पतिं पाहि / यात्वम परावतः / न तम् हिनस्याङ्कशचना न मृत्युः / न बाधे न च रोगे न क्षुधा न क्षमा न तृष्णा / सर्वपापभिः प्रमोचयाग्निः स्वाहा।।
इसका अर्थ है- हे अग्नि, सभी प्राणियों के रक्षक, मैं आपसे प्रार्थना करती हूं कि आप मेरे पति की दूर की यात्रा पर उनकी रक्षा करें. उन्हें किसी भी दुर्भाग्य से पीड़ित न होने दें, चाहे बीमारी से, दुर्घटनाओं से, या दुश्मनों से. वह स्वस्थ और सुखीपूर्वक घर लौट आएं, उनका मार्ग आपके दिव्य प्रकाश से रोशन हो.
मनुस्मृति में भी कई प्रसंग हैं जहां महिलाएं दूर देश गए अपने पति के लिए चिंतित और व्याकुल दिखती हैं.
मनुस्मृति के अध्याय 5 में इसका वर्णन है. इस श्लोक की व्याख्या करें तो यहां महिला देवता की आराधना करते हुए कहती है- हे देव, मेरे पति विजयी हों, वे सुरक्षित घर लौटें, वे सभी खतरों से दूर रहें, बीमारियों से दूर रहे.
आगे वो महिला कहती है मैं भगवान से प्रार्थना करती हूं कि वे मेरे पति को सुरक्षित घर लाएं. मैं धर्म ग्रंथों में बताएं सभी व्रत और उपवास करूंगी.
ये तो थी वैदिक भारत की बात. प्रार्थना और अराधना का ये सिलसिला आगे भी चलता रहा. भारत में मौर्य, शुंग, गुप्त आदि वंशों के दौरान व्यापार का और प्रसार हुआ, कई युद्ध लड़े गए. स्त्री सदा ही चिंतातुर रही और हमेशा ईश्वर के दरबार में हाजिरी लगाती रही. उसका गृहपति लौटता तो वह उत्सव मनाती, देवता के दरबार में जाकर अपनी मनौती पूरी करती. तो इसी तरह पर्व और व्रत चलन में आए.और महिलाएं इसकी वाहिका बन गईं. मृत्यु तो होती ही है. उस व्रती स्त्री का पति व्रत करने के बाद भी मर रहा था, लेकिन ये तो सृष्टि की रचना का विधान है. इस होनी को वो अपने भाग्य में बदा हुआ मानती थी.
यही स्थिति उन परिवारों की थी जिनके घरवाले सेना में थे. इनका जीवन तो कई बार अनिष्ट, अपशकुन और आशंका भरी खबरें सुनने और विरह में कटता था. पिछले 3000 सालों में भारतीय उपमहाद्वीप ने कितने युद्ध देखे इसकी गणना तो शायद हो भी जाए. लेकिन इन युद्धों में कितने सैनिकों की मौतें हुईं इसका आकलन तो टेढ़ी खीर है. ऐसी स्थिति में वीर नारी (जिसका पति युद्धरत रहता था) के कॉन्सेप्ट से अलग एक कॉन्सेप्ट यह भी है कि इन सभी स्त्रियों के मन में अपने पति के जीवन की चिंता होती थी.
मार्कण्डेय पुराण में एक जगह वर्णन है. यहां एक नारी इंद्रदेव की प्रार्थना करते हुए कहती है- इंद्र, देवानां राजन, मम पतिम् युद्धे शत्रुभ्यः सामर्थ्यं बलं च देहि।
यानी कि "हे देवताओं के राजा इंद्र, मेरे पति को युद्ध में अपने शत्रुओं का सामना करने के लिए साहस और शक्ति प्रदान करें. वह वीरता के साथ लड़ें और विजयी होकर हमारे परिवार और हमारे राजा को गौरवान्वित करें."
तो इस तरह से उत्तर भारत में पर्व की परंपरा की शुरुआत हुई और महिलाएं इसकी प्रोटोगोनिस्ट बन गईं.
ये महिलाएं अपने पति के जीवन के लिए देवी पार्वती और प्रबल समाजवादी देवता शिव के दरबार में भी जाती थीं.
रामचरित मानस में विवाह से पूर्व देवी सीता पार्वती की अराधना करने जाती हैं और राम के वरण का आशीर्वाद प्राप्त करती हैं. यही वजह है कि अविवाहित लड़कियां भी व्रत रखती हैं.
जैसा कि हर सामाजिक रिवाज में होता है,इसकी कुछ खामियां हो सकती हैं, समयांतर में ये परंपराएं महिलाओं के स्वतंत्र वैचारिकी के विकसित होने में बाधा बन गई. लेकिन इससे इस परंपरा को ही दुर्भावनापूर्ण बना देना गलत एप्रोच है.
संस्कृति कभी ठहरे हुए जल की तरह नहीं होती. यह नदी के पानी की तरह सदा प्रवाहमान है. यही इसकी निरंतरता का राज भी है.इसलिए आज परिवार का ढांचा बदला है तो पुरुष भी करवाचौथ और छठ कर रहे हैं. इसमें किसी तरह का दबाव नहीं है. महिलाओं पर भी ये दबाव नहीं होना चाहिए.
Women empowerment का वैसे प्रोपगैंडा से कुछ लेना देना नहीं है जो पूर्व आग्रह से ग्रसित हैं. क्या राबड़ी देवी दबाववश छठ करती रहीं हैं? क्या सुषमा स्वराज कमजोर महिला थीं? या उनपर करवाचौथ करने का किसी तरह का दबाव था. वे स्वतंत्र निर्णय के तहत इस पर्व को करती थीं. परिणिति, कियारा, कटरीना जैसी अभिनेत्रियों ने भी करवाचौथ व्रत किया है. उन्हें empowerment नाम के किसी लाठी की जरूरत नहीं.लेकिन उन्होंने इस व्रत को किया.
एक बात और समझना जरूरी है. ऐसा नहीं है कि जो स्त्रियां छठ, करवाचौथ या एकादशी करती हैं वे ही अपने पति की भलाई या फिर उसकी लंबी जिंदगी चाहती है, यह निजी सोच का मामला है. व्रत और पर्व तब चिंता की अभिव्यक्ति थे, जब उसका पति लौटा तो उसने उत्सव मनाया. लेकिन आज उत्सव और दिखावे का एलिमेंट हावी है.
ऐसा इसलिए हुआ है क्योंकि मनुष्य के पास समृद्धि आई है. विज्ञान ने पति की सुरक्षा में व्रत कर रही उस स्त्री की पुकार पर ध्यान दिया अब वह खेती, व्यापार और युद्ध के मोर्चे पर गए अपने पति की पलपल जानकारी रख सकती है. हालांकि खेती, व्यापार और युद्ध के अंतिम नतीजे पर आज भी उसका नियंत्रण नहीं है. इसके नतीजे उसका भाग्य बदल देते हैं. और उस देव का इन सारे हलचलों पर नजर है और वो देव सदा की तरह मुस्कुरा रहा है.