पिछले 48 घंटों में पंजाब की 3 राजनीतिक खबरों ने ध्यान खींचा. पहली खबर थी बीजेपी और शिरोमणि अकाली दल के बीच समझौता नहीं हो सका. दोनों पार्टियां अकेले ही पंजाब में चुनाव लड़ेंगी. दूसरी खबर थी कांग्रेस सांसद रवनीत सिंह बिट्टू ने बीजेपी जॉइन कर लिया. और तीसरी खबर है आम आदमी पार्टी के वर्तमान सांसद और विधायक बीजेपी में शामिल हुए. पहली खबर से यह आशय निकल रहा था कि बीजेपी की पंजाब में और दुर्गति होनी तय हो गई है. पर दूसरी और तीसरी खबर से ऐसा लगा कि बीजेपी यहां मजबूत हो रही है. यह समझने के पीछे कारण यह है कि एक चौथे नंबर की पार्टी में क्यों लगातार कांग्रेसी और अकाली ही नहीं बल्कि आम आदमी पार्टी के नेता भी शामिल हो रहे हैं? मतलब साफ है कि कहीं न कहीं इन नेताओं को बीजेपी में उम्मीद दिख रही होगी तभी वो ऐसा फैसला ले रहे होंगे. इन तीनों सूचनाओं के बाद एक ही सवाल मन में उठता है कि क्या पंजाब बीजेपी में इतना दम हो गया है कि वह अकेले चुनाव लड़कर जीतने की उम्मीद कर रही है ? आइए देखते हैं कि वो क्या कारण हैं कि पंजाब बीजेपी के पास इतना कॉन्फिडेंस आ गया कि अकाली दल का साथ छोड़ने का पार्टी ने साहस कर लिया.
1-कांग्रेस, अकाली दल और आप नेताओं से बीजेपी को मिली है ताकत
पिछले 2 सालों से लगातार यह देखने को मिल रहा है कि पंजाब में हर पार्टियों के नेता बीजेपी में ही आ रहे हैं. कांग्रेस , शिरोमणि अकाली दल ही नहीं आम आदमी पार्टी के नेता भी बीजेपी में ही आ रहे हैं. बुधवार को खबर लिखे जाने तक जालंधर के सांसद सुशील कुमार रिंकू और जालंधर पश्चिम से विधायक शीतल अंगुराम बीजेपी में शामिल हो गए हैं. उन्होंने दिल्ली हेडक्वार्टर में बीजेपी की सदस्यता ली. कांग्रेसी शासन काल में करीब 5 साल मुख्यमंत्री रह चुके कैप्टन अमरिंदर सिंह, पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष रह चुके सुनील जाखड़ दोनों ही अब बीजेपी को सुशोभित कर रहे हैं. अभी मंगलवार को ही पंजाब कांग्रेस के कद्दावर नेता और सांसद रवनीत सिंह बिट्टू ने भी बीजेपी जॉइन किया है. इसके पहले सांसद परिणीत कौर ने भी बीजेपी जॉइन किया था. इसी तरह मनजिंदर सिंह सिरसा की तरह अकाली दल छोड़कर भी कई नेता बीजेपी में शामिल हुए हैं. निश्चित है कि इन नेताओं के आने से बीजेपी मजबूत हुई है. एक समय ऐसा होता था कि बीजेपी के पास को कोई कद्दावर सिख जाट नेता नहीं होता था. पर आज एक- दो नहीं कई हैं.निश्चित है कि बड़े नाम पार्टी की शोभा होते हैं. ये बीजेपी को बहुत से सीट भले न दिला सकें पर माहौल तो बनाते ही हैं.
2-अकालियों के साथ रहने से बीजेपी न हिंदुओं की थी, न सिखों की
कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में दावा किया गया है कि भाजपा और अकालियों की बात इसलिए नहीं बन सकी क्योंकि अकाली चाहते थे कि आतंकी अमृतपाल को कुछ रिलेक्सेशन मिले. दरअसल शिरोमणि अकाली दल हार्ड कोर सिखों की पार्टी है. इसके ठीक उलट पंजाब की राजनीति में कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी रही है. बीजेपी पूरे देश में हिंदुओं की पार्टी बन चुकी है पर पंजाब और केरल में अब भी हिंदुओं का वोट कांग्रेस को मिलता है. यही कारण है कि केरल में कांग्रेस सीएए के विरोध को लेकर मुखर नहीं है. केरल में वामपंथी पार्टियां सीएए को लेकर बवाल काट रही हैं पर राहुल गांधी ने भारत जोड़ो न्याय यात्रा के दौरान सीएए को नजरंदाज ही किया. ठीक यही स्थिति पंजाब के हिंदुओं की है. यहां भी आम आदमी पार्टी जिस तरह सीएए का विरोध कर रही है कांग्रेस ने नहीं किया. अगर बीजेपी चाहती है कि हिंदुओं का वोट पूरे देश की तरह उन्हें मिले तो जाहिर है कि उसे शिअद के साथ नहीं रहना था. शिअद के साथ रहने के कारण बीजेपी का वोट परसेंटेज बढ़ने का नाम ही ले रहा था. शिअद के साथ रहते बीजेपी हिंदू वोटों के ध्रुवीकरण के लिए कुछ कर नहीं पा रही थी. जाहिर है कि अब हिंदुओं के लिए पार्टी खुलकर खेल सकेगी.
3-पंजाब में सिमटती कांग्रेस के हिंदू वोट बैंक के ट्रांसफर होने की उम्मीद
आप कैप्टन अमरिंदर सिंह के मुख्यमंत्रित्व काल को याद करिए. अमरिंदर कांग्रेस के मुख्यमंत्री होते हुए भी आए दिन कई मौकों पर बीजेपी की राह पकड़ लेते थे. दरअसल केंद्र में एनडीए सरकार के कई फैसलों पर वो अपनी पार्टी कांग्रेस से अलग रुख रखते थे. इसके पीछे उनका बीजेपी प्रेम नहीं था. दरअसल पंजाब में अकाली दल कांग्रेस लिए मुख्य प्रतिद्वंद्वी था. और कांग्रेस के वोट बैंक का मुख्य आधार पंजाब के हिंदू ही हैं. अपने मतदाताओं को बनाए रखने के लिए कैप्टन हमेशा ऐसे बयान देते थे जो अकालियों को सूट न करे. अब कैप्टन भी बीजेपी के साथ हैं और शिअद से गठबंधन भी नहीं है. बीजेपी चाहती है कि किसी तरह ये हिंदू वोट बीजेपी के पास आ जाएं.अगर ऐसा होता है तो बीजेपी के लिए कम से कम राहत की बात ये होगी कि सीट भले न बढ़े वोट प्रतिशत में काफी इजाफा हो जाएगा.
4-वोट परसेंट बताता है बीजेपी को अकाली दल से कोई लाभ नहीं हो रहा था
लोकसभा चुनाव में जब बीजेपी और अकाली अलग-अलग चुनाव मैदान में उतरेंगी तो दोनों पार्टियों में किसे मशक्कत झेलनी पड़ेगी ? विधानसभा चुनाव 2017 और 2022 के आंकड़े बताते हैं कि अकेले लड़ने में भी बीजेपी को कोई नुकसान नहीं होने वाला है. जबकि अकाली दल का तो वोट हर साल घट ही रहा है, जो लोकसभा चुनावों में और कम हो सकता है.
2017 में विधानसभा चुनाव अकाली दल और भाजपा ने गठबंधन में लड़ा तो अकालियों को 25.4 फीसदी वोट के साथ 15 सीटें मिली. वहीं भाजपा को 5.4 परसेंट वोट के साथ तीन सीटें मिली थी. जबकि 2022 के विधानसभा चुनावों में जब दोनों पार्टियां अलग-अलग हो गईं बीजेपी को 6.6 फीसदी वोट के साथ 2 सीटें मिली थीं. यानि वोट परसेंट बढ़ा , भले एक सीट कम हो गई.जबकि अकाली दल के वोट प्रतिशत में 2017 के मुकाकले 6.9 फीसदी की गिरावट हुई. यानि कि सीधे और सरल शब्दों में अकाली दल को बीजेपी को मिलने वाले वोट नहीं मिले.
चूंकि लोकसभा चुनावों में अभी तक दोनों साथ ही लड़ते रहे हैं इसलिए दोनों के साथ न लड़ने पर कितना नफा नुकसान हो सकता है यह पता लगाना कठिन है. पर 2009, 2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी को कुल 8 से 10 प्रतिशत वोट मिलते रहे हैं और 2 से 3 सीटें मिलती रही हैं. इसलिए ऐसा नहीं लगता है कि बीजेपी को अकालियों का साथ छोड़ने से कई नुकसान होने वाला है.
5-अकाली नेताओं के भ्रष्टाचार और परिवारवाद से मिली मुक्ति
बीजेपी लोकसभा चुनावों में भ्रष्टाचार और परिवारवाद के खिलाफ लगातार प्रहार कर रही है.अकाली दल जैसी पार्टियों के चलते उसे परिवारवाद पर राज्य में मुंह छुपाना पड़ता था. अब बीजेपी परिवारवाद के मुद्दे पर जिस तरह दूसरे राज्यों में आक्रामक है वैसी ही आक्रामक पंजाब में हो सकेगी. इसी तरह पंजाब में अकाली दल के नेताओं के नाम भ्रष्टाचार के कई मुकदमें दर्ज हैं. उनके भ्रष्टाचार के किस्सों के नाम पर पहले कांग्रेस और उसके बाद आम आदमी पार्टी ने पंजाब में सरकार बनाई. बीजेपी भी अब खुलकर राज्य में भ्रष्टाचार के खिलाफ बोल पाएगी.