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'कार्ल मार्क्स' बने राहुल गांधी संपत्ति बंटवारे का फॉर्मूला लागू कर देश और कांग्रेस को कहां ले जाएंगे?

राहुल गांधी पर चढ़ा साम्यवाद का भूत कांग्रेस का बंटाधार कर सकता है. कांग्रेस शुरू से ही मध्यममार्गी विचारधार को लेकर चलती रही है. पर राहुल गांधी सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता पर कुछ ज्यादा ही जोर देने के बाद अब संपत्ति के समान बंटवारे की बात भी करने लगे हैं जो उन्हें कट्टर साम्यवाद की ओर ले जा रही है.

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राहुल के क्रांतिकारी विचार कांग्रेस को कितना फायदा पहु्ंचाएंगे?
राहुल के क्रांतिकारी विचार कांग्रेस को कितना फायदा पहु्ंचाएंगे?

लगता है पिछले कुछ दिनों से राहुल गांधी में कार्ल मार्क्स की आत्मा समा गई है. वो लगातार इस तरह की बातें कर रहे हैं जिससे देश की कम्युनिस्ट पार्टियां भी शर्मा जाएं. दुनिया में साम्यवाद के पतन के बाद कम्युनिस्ट विचारधारा ने रूस -चीन से होते हुए भारत तक में समझौता कर लिया पर कांग्रेस नेता राहुल गांधी देश में फिर से साम्यवादी कानूनों को लाने का स्वप्न देख रहे हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने तेलंगाना में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए पार्टी के 'जितनी आबादी उतना हक' नारे का जिक्र करते हुए कहा कि अगर कांग्रेस सत्ता में आई तो यह पता लगाने के लिए एक वित्तीय और संस्थागत सर्वेक्षण कराएगी कि देश की अधिकतर संपत्ति पर किसका नियंत्रण है. राहुल गांधी ने कहा कि इसके लिए राष्ट्रव्यापी जाति जनगणना के अलावा वेल्थ सर्वे (संपत्ति के बंटवारे का सर्वेक्षण) कराया जाएगा, यह हमारा वादा है.

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राहुल गांधी के कहने का सीधा अर्थ है कि वो देश में संपत्ति का समान वितरण करना चाहते हैं. वैसे सुनने में यह वादा बहुत लोकलुभावन हो सकता है पर देश की अर्थव्यवस्था को तहस  नहस करने वाला हो सकता है. अगर ऐसा हुआ तो देश एक बार गरीबी के दलदल में फंस सकता है. इसकी मार राहुल गांधी की पार्टी कांग्रेस पर पड़ सकती है. बड़ी मुश्किल से नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह गरीबी के दलदल से भारत की कश्ती को निकाल कर बाहर लाए थे. राहुल अपनी पार्टी के नेताओं के उन नेक कामों पर फिर से पलीता लगाने का काम कर कर रहे हैं.

1-एंटरप्रन्योरशिप को बेमौत मार देते हैं ऐसे कानून

1991 के सुधारों के बाद से देश में लगातार उद्योगपतियों की संख्या बढ़ रही है. अगर वेल्थ डिस्ट्रिब्यूशन जैसे कानून आ जाएं तो बहुत से उद्योगपतियों के बरबाद होते देर नहीं लगेगी. कई बेचारे तो अपने शुरुआती दौर में ही लोट जाएंगे. सोशल मीडिया साइट एक्स पर एक वरिष्ठ पत्रकार ने अपने व्यंग्य में राहुल गांधी के इस नए इरादों को दो दोस्तों की बातचीत के माध्यम से डिफाइन किया है- 'एक दोस्त अपने दूसरे दोस्त को बता रहा होता है कि, वेल्थ डिस्ट्रिब्यूशन से बराबरी आयेगी. ऐसी बराबरी लानी पड़ेगी. ये बोलकर उसने जो बोलना शुरू किया तो तब तक नहीं रुका जब तक फुल मजा नहीं आया. वेल्थ डिस्ट्रिब्यूशन के बाद अडानी भी स्कूटर बेचेगा और मैं भी. वो बिजनेस समझता है और मैं उतना नहीं. वो बिजनेस समझता है, उसकी दुकान चल पड़ेगी और मेरी उतनी नहीं. लेकिन मैं घबराउंगा नहीं. पांच साल बाद फिर वोट दूंगा, फिर संपत्ति का बंटवारा होगा. फिर अडानी भी समोसे बेचेगा और मैं भी. वो बिजनेस समझता है, इसलिए उसकी दुकान चल पड़ेगी और मेरी उतनी नहीं. लेकिन मैं घबराऊंगा नहीं. पांच साल बाद फिर वोट दूंगा. फिर बंटवारा होगा. फिर अडानी भी भीख मांगेगा और मैं भी. अडानी को भीख मांगते देखकर कितना मजा आएगा. फुल मजा.'

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4-लाइसेंस और परमिट राज का कारण बना था 

आज से कुछ साल पहले की बात है, क्यूबा ( समाजवादी कानूनों वाला देश) में मटर की सब्जी पर राशनिंग कर दी गई थी. उस खबर को पढ़ने के बाद याद आया था कि हमारे देश में भी सत्तर और अस्सी के दशक में जमकर राशनिंग थोपी गई थी. महीने में एक आदमी को एक किलो या 2 किलो ही चीनी मिल सकती थी. अगर आपके घर शादी या कोई फंक्शन है तो बड़ी मुश्किल है. हालांकि ब्लैक मार्केट में सब कुछ मिल जाता था. इसी तरह घर बनाने के लिए सीमेंट पर भी राशनिंग थी. एक स्कूटर खऱीदने में 6 महीने से साल भर का समय लग जाता था.

भारत में कंप्यूटर और लैपटॉप पर संभावित आयात प्रतिबंधों और सरकार द्वारा आयातकों को लाइसेंस के लिए आवेदन करने के लिए कहने के साथ, लाइसेंस राज शब्द एक बार फिर चर्चा में आ गया था. देश में लाइसेंस राज के चलते कोई उद्यम शुरू करना बहुत मुश्किल काम था. 2010 में द इकोनॉमिक टाइम्स की एक रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया कि कैसे लाइसेंस राज के अंत से देश में उद्यमियों का उदय हुआ होगा. रिपोर्ट में कहा गया है कि कई लोगों ने 1960 को 'संबंधों के दशक' के रूप में माना, जहां केवल अपेक्षाकृत धनी पृष्ठभूमि से सही संपर्क वाले लोग ही अपना व्यवसाय बढ़ाने में सक्षम थे. देश में संपत्ति के समान वितरण के लिए एक बार फिर से राशनिंग, लाइसेंस और परमिट राज की स्थापना होगी. 

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3-देश में किसानों की बरबादी का कारण रहा सीलिंग एक्ट

संपत्ति के समान बंटवारे का सबसे आसान उपाय जमीन के समान बंटवारा होता है. खेती के रिडिस्ट्रिब्यूशन (सीलिंग एक्ट) का ही नतीजा हुआ कि बिहार में खेती बर्बाद हो गई. सभी बड़ी जोत वाले किसान अपनी भूमि अपने नौकर-चाकर और रिश्तेदार के नाम पर करने का गोलमाल करते रहे. सैकड़ों बीघे खेत सालों से परती पड़े रहे. बहुत से लोगों ने अपनी जमीन बंटाईदारों को देनी छोड़ दी. उनको डर था कि खेत बंटाईदारों के नाम हो जाएगा. खेती परती छोड़े रहे. क्योंकि खेती होती तो लगान देना होता. लगान देते तो फिर खेत बचाना मुश्किल होता. इस चक्कर में न खेती हुई और न ही सही तरीके से डिस्ट्रिब्यूशन ही हो सका. जिन्हें थोड़ा बहुत खेत मिला उन्हें न खेती करने का ज्ञान था और न ही उनके पास इतना पैसा ही था कि वे खेती कर सकें. कुछ दिनों में उस खेत से भी हाथ धो बैठे. जिन राज्यों में सीलिंग एक्ट लागूु न हो सका, वहां खेती खूब फली फूली. वहां के किसान आज देश में सबसे अधिक समृद्ध हैं. संपत्ति के समान बंटवारे का विचार मूर्खता के सिवा कुछ नहीं है.

4-कारखानों में तालाबंदी का कारण बने श्रमिक कानून

संपत्ति के समान वितरण का एक और रास्ता है श्रमिकों का कल्याण. पर श्रमिकों के कल्याण का सबसे लोक लुभावन तरीका है कि श्रम कानूनों का इतना कड़ा कर दिया जाए कि उसे अधिकतम सैलरी मिल सके या कारखानों में मजदूरों की हिस्सेदारी तय हो जाए. पर इस कारण रोजगार सृजन ही मुश्किल हो जाएगा. क्योंकि कोई कारखाना खोलेगा ही नहीं. निवेश शुरुआती तौर पर एक ‘जोखिम’ होता है. यह जोखिम निवेशक के अलावा कोई नहीं उठाता है. जिस मजदूर अथवा श्रमिक की बात की जा रही है, उसके लिए श्रम और रोजगार के अवसर इसी निवेश से पैदा होते हैं. क्या कोई मजदूर भला निवेशक हो सकता है? 

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बड़े निवेशक तो जोखिम उठाने को तैयार भी हो जाते हैं तो छोटे और मझोले निवेशक तो कतई ऐसी जगहों पर निवेश को तैयार नहीं होते, जहां उनके हितों की अनदेखी की जाए. नि:स्संदेह श्रम कानून बनाने के पीछे जरूर मंशा यही रहती है कि श्रमिकों के हितों से कोई खिलवाड़ न कर सके. पर जब उद्योग ही नहीं लगेगा तो फिर मजदूर का अस्तित्व ही कहां रहेगा. कठोर श्रम कानूनों का आड़ लेकर यूनियनबाजी को  प्रश्रय मिलता है. परिणामत हडताल होते हैं और कारोबारी, देश तथा कारोबार तीनों का नुकसान होता है. इसका सबसे अच्छा उदाहरण पश्चिम बंगाल जैसे व्यापार संपन्न प्रदेश से कारोबारियों का मुंह मोड़ना है. बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में निवेशक उत्साह नहीं दिखाए. लिहाजा देश का मध्य और पूर्वी भाग का यह बड़ा हिस्सा व्यापारिक लिहाज से आज तक स्वावलंबी नहीं हो सका.दूसरे श्रम कानूनों का लाभ सिर्फ 10 फीसदी मजदूरों को ही मिल पाता है.

5- कांग्रेस को मध्यमार्ग ही सूट करता है

आजादी के पहले से ही कांग्रेस मध्यमार्गी पार्टी रही है. पार्टी में समाजवादी अतिवादी विचार या उदारवादी अतिवाद को कभी प्रश्रय नहीं मिला. महात्मा गांधी , राजेंद्र प्रसाद ,आचार्य कृपलानी आदि को पार्टी में दक्षिणपंथी माना जाता था. वहीं जवहरलाल नेहरू, सुभाषचंद्र बोस, आचार्य नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण आदि को समाजवादी माना जाता था. पार्टी दोनों का बैलेंस बनाकर चलती रही. यही हाल आजादी के बाद भी रहा. जवाहरलाल नेहरू अपने विचारों पूरा साम्यवादी थे पर उन्होंने देश पूंजीपतियों को महत्व को समझा. देश में मिश्रित अर्थव्यवस्थ की कल्पना की. जो शायद उस दौर के लिए जरूरी भी था. 1991 का सुधार भी कांग्रेस के समय में भी हुआ. पर अगर राहुल एक बार फिर साम्यवादी विचारों से ओत प्रोत हैं तो उन्हें इसका नुकसान उठाना पडेगा. 

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