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पवन कल्याण और उदयनिधि स्टालिन... साउथ के सुपरस्टार, सियासत के चमकते चेहरे, दोनों को नजरअंदाज करना मुश्किल

2024 का साल उदयनिधि और पवन कल्याण दोनों के लिए एक महत्वपूर्ण साल रहा है. उदयनिधि स्टालिन की डीएमके नेतृत्व वाले गठबंधन ने तमिलनाडु में लोकसभा चुनावों में सभी सीटों पर जीत हासिल की, वहीं पवन कल्याण की जनसेना ने लोकसभा और विधानसभा चुनाव में 100 फीसदी के स्ट्राइक रेट के साथ जीत हासिल की.

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पवन कल्याण और उदयनिधि स्टालिन
पवन कल्याण और उदयनिधि स्टालिन

1980 के दशक के मध्य एक दौर ऐसा आया जब दक्षिण भारत के दो प्रमुख राज्यों- तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश में फिल्मी दिग्गज एमजी रामद्रचंद्रन और एनटी रामा राव मुख्यमंत्री बने. आज तक जयललिता के साथ-साथ इस जोड़ी की सफलता की कहानी को किसी भी ऐसे अभिनेता के लिए बेंचमार्क के रूप में देखा जाता है जो फिल्म जगत के बाद अपनी दूसरी पारी सियासत में खेलना चाहता है.  

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चालीस साल बाद, दोनों राज्यों में एक बार फिर अभिनेता से राजनेता बने उदयनिधि स्टालिन और पवन कल्याण सत्ता के अहम केंद्र में हैं और उपमुख्यमंत्री हैं. दोनों युवा राजनेता हैं - उदयनिधि 46 वर्ष के हैं जबकि पवन 53 वर्ष के हैं. दोनों ही नेता राज्यों की सियासत में लंबे समय तक अपनी छाप छोड़ने के लिए तैयार हैं.

उदयनिधि और पवन कल्याण के लिए अहम रहा 2024

2024 का साल दोनों युवा चेहरों के लिए एक महत्वपूर्ण साल रहा है. उदयनिधि स्टालिन की डीएमके नेतृत्व वाले गठबंधन ने तमिलनाडु में लोकसभा चुनावों में सभी सीटों पर जीत हासिल की और रविवार को उन्हें उपमुख्यमंत्री का पद दिया गया. यह पद उन्हें एक तरह से उनके द्वारा पार्टी के लिए की गई मेहनत का पुरस्कार माना जा रहा है.

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इसी तरह पवन कल्याण की जनसेना पार्टी ने एनडीए गठबंधन के तहत चुनाव लड़ा औऱ उन्हें जो दो सीटें मिली थी उसमें उन्होंने जीत हासिल की. इसके अलावा गठबंधन के तहत राज्य विधानसभा चुनाव में उनकी पार्टी को 21 विधानसभा सीटें मिली और सभी पर उन्होंने जीत हासिल की. यानि पवन कल्याण का स्ट्राइक रेट 100 परसेंट का रहा. चंद्रबाबू नायडू सरकार में वह उप-मुख्यमंत्री बने.

फिल्मों के अलावा नहीं है कोई समानता
दोनों के बीच समानताएं यहीं पर खत्म हो जाती हैं. पवन के पास वह नहीं है जो उदयनिधि से पास पहले से है. उदयनिधि राजनीति में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए थे. उनके दादा एम करुणानिधि 1969 में ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बन चुके थे और पिता सीएम एमके स्टालिन डीएमके की राजनीति में दशकों से जुड़े हुए हैं. उदयनिधि ने फिल्म जगत में भी हाथ आजमाए. उनके दादा करुणानिधि एक साहित्यिक दिग्गज थे, जिन्होंने तमिल फिल्मों के लिए लेखन भी किया था. इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि उदयनिधि ने पारिवारिक सियासत की विरासत को आगे बढ़ाने से पहले खुद को निर्माता-अभिनेता के रूप में स्थापित करने के लिए सिल्वर स्क्रीन का रास्ता चुना.

 दूसरी ओर, पवन ने मुश्किल भरी राह चुनी. एक अभिनेता के रूप में, वह अपने संवाद अदायगी की उग्र शैली के साथ दमदार अभिनय के लिए जाने जाते हैं लेकिन उन्हें हमेशा खुद से अधिक सफल भाई चिरंजीवी की छाया में रहना पड़ा. जब मेगास्टार चिरंजीवी ने 2008 में राजनीति में कदम रखा, तो उन्होंने एनटीआर की तरह काम करने की उम्मीद में चिरंजीवी की प्रजा राज्यम पार्टी का समर्थन किया. हालांकि, सियासत का यह कदम स्क्रिप्ट के मुताबिक नहीं चला और चिरंजीवी ने फिल्मों के अपने कम्फर्ट जोन में वापस जाने का फैसला किया. चिरंजीवी के अनुभव से सीखते हुए, पवन कल्याण ने सावधानी से शुरुआत की, 2014 के चुनावों से दूर रहे, 2019 के चुनावों में सफल नहीं हुए और 2024 में तीसरी बार जैकपॉट हाथ लग गया.उन्होंने उपमुख्यमंत्री का पद व्यक्तिगत हमले और मजाक सहते हुए और त्याग करते हुए कठिन तरीके से हासिल किया.

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एक एनडीए का साथी तो दूसरा इंडिया ब्लॉक का अहम हिस्सा

उदयनिधि जहां इंडिया ब्लॉक के साथ हैं, वहीं पवन कल्याण भाजपा के पक्के साथी हैं और एनडीए का हिस्सा हैं. दोनों उपमुख्यमंत्रियों के सनातन धर्म के प्रति बिल्कुल अलग-अलग विचार हैं. उदयनिधि स्टालिन को उस समय खूब आलोचनाओं का सामना करना पड़ा जब उन्होंने सनातन धर्म की तुलना मलेरिया और डेंगू से की और इसके उन्मूलन का आह्वान किया. दूसरी ओर, तिरुमाला मंदिर के लड्डू प्रसादम पर विवाद पर पवन कल्याण ने सनातन धर्म की रक्षा के लिए सामूहिक लड़ाई का आह्वान किया. उन्होंने हिंदू धर्म के अपमान और मंदिर की संपत्तियों और परिसंपत्तियों की सुरक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सनातन धर्म रक्षण बोर्ड के गठन की पैरवी की.  

प्रचार की शैली के मामले में भी दोनों में धरती-आसमान का अंतर है. पवन जोशीले प्रचारक हैं जो अपनी ऊर्जा से भरपूर भाषण कला से भीड़ - खास तौर पर अपने युवा प्रशंसकों को जोश से भर देते हैं. दूसरी ओर उदयनिधि संवादात्मक शैली के हैं, मानो वे भीड़ में मौजूद हर व्यक्ति से बात कर रहे हों. पवन के भाषणों में जहां भावनाएं बहुत अधिक होती हैं, वहीं उदयनिधि अपने भाषणों में हास्य, चतुराई और व्यंग्य का तड़का लगाते हैं.

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दोनों की सियासत बिल्कुल अलग

स्वाभाविक है कि दोनों डिप्टी पर सभी की नजरें लगी होंगी भले ही कारण अलग-अलग हों. उदयनिधि को आधिकारिक तौर पर एमके स्टालिन के राजनीतिक उत्तराधिकारी के रूप में नियुक्त किया गया है, उदयनिधि से उम्मीद होगी कि वह 2026 में तमिलनाडु विधानसभा चुनावों में भी पार्टी को जीत दिलाने में अहम भूमिका निभाएं जहां उन्हें डीएमके के पारंपरिक प्रतिद्वंद्वी AIADMK के अलावा सुपरस्टार विजय से भी कड़ी चुनौती का सामना करना पड़ेगा, जो अपना चुनावी पदार्पण करेंगे. तमिलनाडु के राजनीतिक रंगमंच को इससे बड़ी मल्टीस्टारर फिल्म की उम्मीद नहीं रही होगी. 

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 दूसरी ओर, पवन ने तिरुपति विवाद के बाद अपना कद बढ़ता देखा है. अब वे दक्षिण भारतीय पोशाक धोती-कुर्ता में ज़्यादा नज़र आते हैं. उन्होंने राजनीति के हिंदुत्व ब्रांड को अपनाया है और यह बिल्कुल वैसा ही शुभंकर है जिसे भाजपा आंध्र प्रदेश में खुद को मज़बूत करने के लिए चाहती है. आगे चलकर, पवन के समर्थक और प्रशंसक उन्हें टीडीपी के अंडर में नहीं बल्कि अपने दम पर एक राजनीतिक ताकत के रूप में उभरते देखना चाहेंगे. इस साल की शुरुआत में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पवन कल्याण को “आंधी” (तूफ़ान) के रूप में वर्णित किया था.

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उदयनिधि का सबसे मजबूत समर्थन आधार उनका परिवार है - खास तौर पर उनके माता-पिता. पवन के राजनीतिक कदम ने उनके भाइयों को सुर्खियों में ला दिया है. जहां चिरंजीवी ने चुनाव से पहले जन सेना को एक मोटी रकम दान की और पवन को शपथ लेते हुए गर्व से देखा, वहीं उनके दूसरे भाई नागबाबू जन सेना के राजनीतिक तंत्र का हिस्सा हैं. उन्हें पसंद करें या उनसे नफरत करें, तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश के लिए इन दो अगली पीढ़ी के राजनेताओं को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल होगा.

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