ये तो साफ हो चुका है कि INDIA ब्लॉक में राहुल गांधी के सपोर्ट में बहुत कम लोग बचे हैं. जम्मूू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला के तेवर भी तेजस्वी यादव जैसे ही लगते हैं, ये बात अलग है वो खुलकर कुछ नहीं बोल रहे हैं.
लालू यादव की तरह साफ साफ न सही, लेकिन शरद पवार ने भी तो ममता की राह आसान कर ही दी है, लेकिन तृणमूल कांग्रेस नेता का नाम भी सिर्फ इस्तेमाल किया जा रहा है. लगता नहीं की ममता बनर्जी के नाम पर ये चीजें लंबा चल पाएंगी.
अगर राहुल गांधी दखल देना या क्षेत्रीय दलों के खिलाफ बयानबाजी बंद कर दें, तो लगता नहीं कि कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे से भी किसी को दिक्कत होगी.
राहुल गांधी ने सबकी नाराजगी मोल ली है
राजस्थान में कांग्रेस का चिंतन शिविर लगा था. 2022 में हुए चिंतन शिविर के आखिरी दिन राहुल गांधी ने क्षेत्रीय दलों की विचारधारा को लेकर टिप्पणी की थी. असल में, राहुल गांधी ने साफ साफ बोल दिया था कि क्षेत्रीय दलों के पास कोई विचारधार है ही नहीं. ये सिर्फ कांग्रेस के पास है, जो बीजेपी की विचारधारा से लड़ सकती है. राहुल गांधी ने कहा था, क्षेत्रीय पार्टियां बीजेपी-आरएसएस का सामना नहीं कर सकतीं, क्योंकि उनकी कोई भी वैचारिक प्रतिबद्धता नहीं होती है.
तभी कर्नाटक से जेडीएस और बिहार से आरजेडी की प्रतिक्रिया देखी गई थी. सख्त नाराजगी वाली भी, और सलाहियत भरी भी.
जेडीएस नेता और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एचडी कुमारस्वामी का कहना था, 'कांग्रेस को क्षेत्रीय पार्टियों का फोबिया हो गया है.' बाद में कुमारस्वामी ने अपनी सोशल मीडिया पोस्ट में पूछा था, 'डीएमके के साथ दस साल सत्ता में रहकर मनमोहन सिंह की अगुवाई वाली यूपीए 1 और यूपीए 2 सरकार चलाना क्या कोई वैचारिक प्रतिबद्धता थी?
आरजेडी प्रवक्ता मनोज झा ने सलाह दी थी कि क्षेत्रीय दलों के सदस्यों को देखते हुए उनको ड्राइविंग सीट पर रहने देना चाहिए और कांग्रेस को खुद सहयात्री बन जाना चाहिये.
लालू यादव के राहुल गांधी से नाराज होने के अलग से कारण हैं, और आने वाले बिहार विधानसभा चुनाव में सीटों के बंटवारे में दबाव बनाने का मकसद भी अलग है, लेकिन ज्यादातर क्षेत्रीय नेता राहुल गांधी के विचारधारा वाली थ्योरी से ही नाराज हैं.
यूपी विधानसभा चुनाव में गठबंधन की पहल अखिलेश यादव की तरफ से ही हुई थी, और सुनने में आया कि राहुल गांधी से नाराजगी के कारण ही कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी का गठबंधन टूटा था.
2024 के आम चुनाव में गठबंधन से किसे कम और किसे ज्यादा हुआ, ये अलग बात है लेकिन फायदा तो कांग्रेस और समाजवादी पार्टी दोनो को ही हुआ है.
लेकिन हरियाणा चुनाव में कांग्रेस की बेरुखी से अखिलेश यादव ज्यादा खफा नजर आते हैं. वैसे भी भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने अखिलेश यादव का नाम लेकर क्षेत्रीय दलों की विचारधारा पर ऐसे अंदाज में टिप्पणी की थी जैसे धिक्कार रहे हों. कांग्रेस नेता कमलनाथ के ‘अखिलेश-वखिलेश’ बोलने पर भी राहुल गांधी ने चुप्पी साध ली थी. अखिलेश यादव तो उसमें राहुल गांधी की भी मौन सहमति ही माने होंगे.
ममता बनर्जी और शरद पवार तो शुरू से ही राहुल गांधी को पसंद नहीं करते. राहुल गांधी के बारे में शरद पवार क्या सोचते हैं, पुराने जमींदारों और पुरानी हवेलियों का किस्सा सुनाकर अपनी राय जाहिर कर ही चुके हैं.
ममता बनर्जी का सिर्फ नाम इस्तेमाल हो रहा है
इंडिया ब्लॉक के नेतृत्व को लेकर रही ममता बनर्जी की बात, तदो उनको विपक्षी खेमे के नेताओं ने 2019 के चुनाव में भी प्रधानमंत्री पद का सपना दिखाया था. उसमें शरद पवार से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा तक शामिल थे, लेकिन 2021 में जब वही ममता बनर्जी कांग्रेस को छोड़कर विपक्ष को एकजुट करने निकलीं, तो सभी ने हाथ पीछे खींच लिये. विशेष रूप से शरद पवार ने.
दरअसल, विपक्षी खेमे के नेताओं को भी ममता बनर्जी की हदें मालूम हैं, लेकिन राहुल गांधी को काउंटर करने के लिए उनसे बेहतर कोई चेहरा भी नहीं नजर आ रहा होगा.
पहले भी उस लेवल के कुल जमा तीन ही नेता दिखाई दे रहे थे - नीतीश कुमार, ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल. नीतीश कुमार पहले ही विपक्षी खेमे से विदाई ले चुके हैं, और अरविंद केजरीवाल जेल जाने के बाद से अभी तक भ्रष्टाचार के आरोपों से उबर नहीं पाये हैं. दिल्ली का मुख्यमंत्री पद भी छोड़ दिया है.
तेजस्वी यादव को तो अभी बिहार में ही खुद को साबित करना है, और अखिलेश यादव ने भी राष्ट्रीय राजनीति का रुख किया भी नहीं है. वो तो लोकसभा का चुनाव लड़ते हैं, जीतते हैं, और फिर विधानसभा में लौट जाते हैं, क्योंकि उनको सबसे ज्यादा फिक्र यूपी की रहती है.
ऐसे में लगता नहीं कि ममता बनर्जी बहुत दिन तक INDIA ब्लॉक में चल पाएंगी. अगर दिल्ली चुनाव जीत गये तो केजरीवाल फिर से दावेदार हो सकते हैं - मतलब, राहुल गांधी की चुनौतियां तब तक खत्म नहीं हो सकतीं जब तक कांग्रेस का कोई बेहतरीन प्रदर्शन सामने नहीं आ जाता. और ये मौका या तो 2026 केरल चुनाव में मिल सकता है, या फिर अगले आम चुनाव 2029 में.