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औरंगज़ेब को लेकर क्या RSS भी कंफ्यूज है? आंबेकर के बाद होसबोले ने ये क्या कह दिया

औरंगजेब के मुद्दे पर आरएसएस के प्रवक्ता सुनील आंबेकर के बयान के बाद आरएसएस महासचिव दत्तात्रेय होसबोले का बयान से कन्फ्यूजन स्वभाविक है. RSS अपनी स्पष्ट विचारधारा के लिए जाना जाता रहा है. और अब उसके ही नेता अलग अलग मौकों पर अलग अलग बातें कर रहे हैं. आइये देखते हैं कि आखिर संघ चाहता क्या है?

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RSS महासचिव दत्तात्रेय होसबोले. (फाइल फोटो)
RSS महासचिव दत्तात्रेय होसबोले. (फाइल फोटो)

मुगल सम्राट औरंगजेब को लेकर जारी बहस के बीच अभी तक सबसे अहम मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रवक्ता सुनील आंबेकर का बयान था. विपक्ष के लोग बीजेपी को घेरने के लिए बार-बार आरएसएस प्रवक्ता के बयान को आधार बना रहे थे. क्योंकि आंबेकर ने औरंगजेब की प्रासंगिकता को लेकर जो बयान दिया था वह बीजेपी नेताओं के बयान से बिल्कुल अलग दिख रहा था. पर आंबेकर के स्टेटमेंट के बाद ज्यादा दिन नहीं बीता कि आरएसएस के अन्य नेताओं के जो विचार सामने आए हैं वो सुनील आंबेकर ने जो बात कही थी उससे बिल्कुल ही अलग दिख रहे हैं. संघ नेताओं के विचारों को सुनकर आम लोग ही नहीं कई नेता भी कन्फ्यूज नजर आ रहे हैं. लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि संघ औरंगजेब के मुद्दे पर आखिर कहना क्या चाहता है? यह इसलिए भी महत्वपूर्ण हो गया है कि RSS अपनी स्पष्ट विचारधारा के लिए जाना जाता रहा है.और अब उसके ही नेता अलग अलग मौकों पर अलग अलग बातें कर रहे हैं. जाहिर है कन्फ्यूजन तो होगा ही. आइये देखते हैं कि आखिर संघ चाहता क्या है?

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1-क्या औरंगजेब पर आरएसएस दो पक्षों में बंटी है?

 दरअसल RSS और बीजेपी के समर्थक एक ही हैं. पर जब समर्थकों को एक ही मुद्दे पर दोनों के विचार अलग अलग दिखाई देते हैं तो वे कन्फ्यूज ही नहीं परेशान भी होते हैं. औरंगजेब पर संघ के विचार न केवल भारतीय जनता पार्टी के रुख से अलग दिख रहा है, बल्कि उसके कई अपने नेता भी परस्पर विरोधी बयान दे रहे हैं. एक ऐसे संगठन के लिए, जो अपनी सुव्यवस्थित विचारधारा और दृढ़ता के लिए मशहूर है, इस तरह का भ्रमित रवैया चौंकाने वाला है- वो भी ऐसे विषय पर, जो उसकी विचारधारा के मूल में शामिल है.

RSS की वार्षिक अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा से पहले जब पत्रकारों ने आंबेकर से पूछा कि क्या औरंगज़ेब आज भी प्रासंगिक हैं, तो उन्होंने जवाब दिया, मुझे लगता है कि (वह) प्रासंगिक नहीं हैं. लेकिन जब इस बयान को लेकर विवाद हुआ, उन्होंने मीडिया से कहा कि मकबरे का मुद्दा अप्रासंगिक नहीं है; औरंगज़ेब अप्रासंगिक हैं. उनके इस स्पष्टीकरण ने उनके पहले के बयान की धार को कुछ कम कर दी, लेकिन फिर भी इसने एक नई बहस को जन्म दिया, खासकर इसलिए क्योंकि BJP अभी भी औरंगज़ेब के खिलाफ अभियान को जारी रखे हुए है. स्वाभाविक रूप से, यह बयान खासकर विरोधी दलों में उत्सुकता और अटकलों का विषय बन गया. क्या RSS सच में मुगलों पर अपनी पुरानी कट्टरपंथी सोच को छोड़ चुका है? क्या अब उसे यह महसूस हो गया है कि सैकड़ों साल पुराने इतिहास को कुरेदने से कोई फायदा नहीं? मीडिया और दूसरे दलों ने इसे BJP के लिए एक परोक्ष संदेश के रूप में भी देखा. 

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RSS के इस रुख के बीच टीवी डिबेट में लगातार BJP के प्रवक्ता औरंगजेब के खिलाफ बयान देते रहे. इस विरोधाभास ने RSS और BJP समर्थकों को असमंजस में डाल दिया कि वे किस पर भरोसा करें- RSS पर या BJP पर? RSS के एक प्रमुख विचारक राम माधव ने इस पूरे विवाद पर RSS प्रवक्ता से बिल्कुल उलट राय दी. उन्होंने एक लेख लिखकर यब कहने की कोशिश की कि इतिहास की दिशा सिर्फ कुछ प्रतीकों को हटाने से नहीं बदलती… लड़ाई मकबरों से नहीं, बल्कि औरंगज़ेब की विकृत विरासत से होनी चाहिए.

पर बेंगलुरु में संघ के एक बहुत बड़े नेता ने जो कहा उससे तो यही साबित हुआ कि संघ और बीजेपी की लाइन अलग-अलग नहीं है. संघ और बीजेपी के बीच इस मुद्दे को लेकर कोई मतभेद नहीं है. अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की तीन दिवसीय बैठक के अंतिम दिन, जो कि RSS की सर्वोच्च निर्णय लेने वाली संस्था है, संघ के महासचिव दत्तात्रेय होसबाले ने कहा कि मुगल सम्राट औरंगज़ेब भारत की मूल आत्मा (ethos) के खिलाफ थे, और यदि आक्रमणकारी मानसिकता अभी भी बनी हुई है, तो यह देश के लिए खतरा है.

2-हर मस्जिद में शिवलिंग खोजने की कोशिश पर भी मतभेद

हालांकि RSS प्रमुख मोहन भागवत ने कई बार इस बात के संकेत दिए हैं कि हिंदुओं को हर मस्जिद में शिवलिंग खोजने की कोशिश बंद करनी चाहिए. उन्होंने कई बार मुस्लिम बुद्धिजीवियों के साथ संवाद भी शुरू किया. लेकिन तीन साल बाद भी कुछ नहीं बदला. आज भी बीजेपी के कई नेता हर मस्जिद में शिवलिंग की तलाश जारी रखे हुए हैं. संभल विवाद ने यह साफ कर दिया है कि मोहन भागवत की बात से फिलहाल बीजेपी का एक हिस्सा सहमत नहीं है. पर सवाल यह भी उठता है कि क्या आरएसएस केवल अपने विचार रखती है. क्या वह एटॉमिक रिएक्टर की तरह काम कर रही है ताकि विस्फोट को नियंत्रित किया जा सके. ऐसा न हो कि चीजें आउट ऑफ कंट्रोल हो जाएं. वैसे संघ अपनी कही हुई बातों को लागू करने के लिए अपने सहयोगी संगठनों पर दबाव नहीं बनाती है. दरअसल आरएसएस हमेशा से खुद को एक सांस्कृतिक संगठन ही मानता रहा है. यही कारण है कि संघ राजनीति में नहीं पड़ना चाहता है. राजनीति करने के लिए भारतीय जनता पार्टी है ही, वह इस संबंध में फैसले और सलाह मानने या न मानने के लिए स्वतंत्र रही है. 

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3-RSS का असली एजेंडा मुगलों की आक्रमणकारी और हिंदू विरोधी विरासत को मिटाना है?

अब सवाल यह है कि इस विवाद का अंत कैसे होगा? क्या औरंगज़ेब की कब्र को हटाया जाएगा, या यह मुद्दा सिर्फ सांप्रदायिक तनाव बनाए रखने के लिए उठाया गया है? सच्चाई यह है कि RSS और BJP के लिए मुगलों की आक्रमणकारी और हिंदू विरोधी विरासत को खत्म करना बहुत बड़ा मुद्दा रहा है. शहरों के नाम, गलियों के नाम बदलने की कोशिश इसी क्रम में चलती रहती है. होसबोले ने भी इसी रविवार को स्पष्ट कर दिया कि मध्ययुगीन काल में मुगलों के खिलाफ लड़ा गया संघर्ष भी स्वतंत्रता संग्राम था. उन्होंने कहा, जिस तरह से ब्रिटिश शासन के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम लड़ा गया, उसी तरह उससे पहले जो लोग स्वतंत्रता के लिए लड़े, वे भी स्वतंत्रता सेनानी थे. राणा प्रताप भी स्वतंत्रता संग्राम लड़ रहे थे. होसबोले ने कहा कि अगर कोई व्यक्ति ऐसे आक्रमणकारी से प्रेरणा लेने की कोशिश कर रहा है, जो इस राष्ट्र की आत्मा को खत्म करना चाहता था, जो इस भूमि की सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना चाहता था… तो वह आक्रमणकारी ही है. जाहिर है कि होसबोले औरंगजेब के संदर्भ में ही ये बातें बोल रहे थे. इसलिए जाहिर है कि औरंगज़ेब के मकबरे का मुद्दा गौण है, असली तो मुगल विरासत को खत्म करना है.

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4-मुस्लिम समाज और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष दलों की गलतियां

इस पूरे विवाद में मुस्लिम समाज और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष पार्टियों की भूमिका भारतीय जनता पार्टी को राजनीति करने का मौका दे देती है. एंटी मुगल नैरेटिव को चुनौती देने के बजाय खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियां और मुस्लिम समुदाय खुद को मुगलों का रक्षक साबित करने में लग जाता है. मुसलमानों का एक समूह तो आज भी औरंगजेब के नाम के साथ ससम्‍मान 'रहमतुल्लाह अलैह' जोड़ देता है. और समाजवादी पार्टी के नेता अखिलेश यादव, अबू आज़मी और रामजी लाल सुमन जैसे नेताओं के समर्थन में उतर जाने से बीजेपी और हिंदुओं का लगता है कि पीछे हटने का मतलब गुलामी को फिर से अपनाना है. बाबरी मस्जिद विवाद में उलझना मुस्लिम समाज की एक ऐतिहासिक भूल थी, वही भूल औरंगजेब विवाद में हो रही है.

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