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अयोध्या में प्राण प्रतिष्ठा के न्योते पर कांग्रेस के इनकार के क्या हैं मायने?

राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण ठुकराते हुए कांग्रेस ने कहा था कि यह भाजपा का राजनीतिकरण प्रोजेक्ट है. दरअसल कांग्रेस ने यह फैसला काफी कैलकुलेशन करने के बाद लिया है. पार्टी नेताओं का मानना था कि प्राण प्रतिष्ठा समारोह में पार्टी नेताओं के शामिल होने से दक्षिण भारत में कांग्रेस को नुकसान हो सकता है.

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कांग्रेस ने ठुकराया राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा का न्योता
कांग्रेस ने ठुकराया राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा का न्योता

कांग्रेस ने राम मंदिर उद्घाटन समारोह में शामिल होने का निमंत्रण ठुकरा दिया है. कांग्रेस का यह निर्णय दर्शाता है कि अत्यधिक भावनात्मक और राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दे पर पार्टी के अंदर किस तरह के भ्रम और विभाजन की स्थिति है. इतना ही नहीं पार्टी का यह कदम राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में 'अयोध्या पर विचारधारा' की कमी को उजागर करता है.

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उत्तर बनाम दक्षिण

 करीबी सूत्र बताते हैं कि उत्तरी और पश्चिमी राज्यों से कई ऐसे कांग्रेस नेता थे जो 22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने के लिए सोनिया गांधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और अधीर रंजन चौधरी के पक्ष में थे.लेकिन दक्षिणी राज्यों के कुछ पार्टी नेताओं ने कांग्रेस को फैसले पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर कर दिया जिसकी वजह से पार्टी को निमंत्रण को 'सम्मानपूर्वक अस्वीकार' करना पड़ा.

केसी वेणुगोपाल, जयराम रमेश, रमेश चेन्निथला और अन्य जैसे पार्टी नेताओं ने तर्क दिया कि राम मंदिर कार्यक्रम में कांग्रेस की उपस्थिति से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा को ही फायदा होगा, जो 2024 लोकसभा चुनाव के लिए राम मंदिर के उद्घाटन को प्रमुख चुनावी मुद्दे के रूप में पेश कर रही है. 

तो इसलिए ठुकराया निमंत्रण!

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पिछले कुछ दिनों के दौरान कुछ कांग्रेस नेताओं ने राम मंदिर कार्यक्रम में भाग लेने के 'गुणा-भाग' पर काम किया. इसमें यह बात सामने निकलकर आई कि एक फैसले से पार्टी को केरल में झटका लग सकता है और उसके लोकसभा सदस्यों की संख्या में गिरावट आ सकती है. इसके अलावा पार्टी को कर्नाटक और तेलंगाना में भी झटका लग सकता है जहां कांग्रेस को अच्छे प्रदर्शन की उम्मीद है. पार्टी नेताओं ने तर्क दिया कि 'मोदी-बीजेपी-आरएसएस शो' में  पार्टी नेताओं की मौजूदगी से मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और अन्य उत्तरी, पश्चिमी तथा अन्य मध्य राज्यों में पार्टी कोई खास फायदा नहीं होगा जहां बीजेपी-कांग्रेस के बीच सीधी लड़ाई है.

इसके अलावा, कांग्रेस ने यह भी देखा कि INDIA ब्लॉक के सहयोगी वाम दल, तृणमूल कांग्रेस और अन्य सहयोगी भी अयोध्या जाने से इनकार कर चुके हैं. दरअसल, प्राण प्रतिष्ठा समारोह में शामिल होने से कांग्रेस के औपचारिक इनकार के कुछ घंटे पहले, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसे भाजपा का "नौटंकी शो" करार दिया था. उन्होंने कहा, 'कल, मुझसे अयोध्या में राम मंदिर पर बयान देने के लिए कहा गया जैसे कि मेरे पास करने के लिए और कुछ नहीं है. मैंने कहा कि धर्म व्यक्तियों का होता है लेकिन त्यौहार सभी के लिए होते हैं. मैं केवल उन उत्सवों में विश्वास करती हूं जो लोगों को एकजुट करते हैं.'

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कांग्रेस के अंदर ही अलग-अलग राय

दिलचस्प बात यह है कि राम मंदिर कार्यक्रम में शामिल होने से इनकार करने के बाद भी कांग्रेस के अंदर मतभिन्नता है. पार्टी सूत्रों का कहना है कि निकट भविष्य में कांग्रेस के भीतर कुछ बेचैनी देखने को मिल सकती है. जिस तरह से इंडिया ब्लॉक के सहयोगियों के साथ सीट-बंटवारे की बातचीत और फॉर्मूलों पर चर्चा की जा रही है, उससे कई कांग्रेस नेता नाखुश हैं. राम मंदिर मुद्दे पर पार्टी द्वारा लिया गया स्टैंड ऐसे नेताओं को कुछ हद तक अपनी स्वतंत्र कार्ययोजना तैयार करने का बहाना दे सकता है.

नरसिम्हा राव ने पुस्तक में कही थी ये बात

पुराने नेता कहते हैं कि अयोध्या मुद्दा सबसे पुरानी पार्टी को भ्रमित और विभाजित कर रहा है. 1992 में जब बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ तो तो पीवी नरसिम्हा राव चुपचाप बैठकर दूरदर्शन देख रहे थे. वर्षों बाद, राव ने अपने कांग्रेस सहयोगियों पर पलटवार करते हुए उन पर बाबरी मस्जिद विध्वंस के दौरान कुटिल चाल चलने का आरोप लगाया था. राव की मौत के एक साल बाद, यानि 2005 में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'अयोध्या, 6 दिसंबर' में उन्होंने लिखा, 'घटना के बाद बहादुरी भरे शब्द कहे जा रहे हैं और लोग संतों की तरह लग रहे थे जो सब कुछ पहले से जानते थे... विनाश का पूरा नाटक करने के बाद, वे चाहते थे कि इतिहास में खुद को कुछ विशिष्ट भूमिका सौंपी जाए, कुछ ऐसा जिस पर गर्व किया जा सके.'

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कारसेवकों द्वारा मस्जिद को ढहाए जाने से कुछ दिन पहले, नरसिम्हा राव के कैबिनेट सहयोगी और आलोचक अर्जुन सिंह ने लखनऊ में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह से मुलाकात की थी और घोषणा की थी कि सब ठीक हो जाएगा. बाद में अर्जुन सिंह ने राव के खिलाफ निरंतर अभियान चलाया और उन पर विध्वंस की अनुमति देने का आरोप लगाया. अपनी पुस्तक में नरसिम्हा राव के तर्क का जोर इस बात पर है कि जहां कल्याण सिंह सरकार और भाजपा "अवांछित बर्बरता" के लिए पूरी तरह से जिम्मेदार थे, वहीं उनके कांग्रेस सहयोगियों को भी "राजनीतिक और वोट-अर्जित विचारों" द्वारा निर्देशित किया गया था.

राव ने अपनी किताब में लिखा है, "उन्होंने पहले ही मन बना लिया था कि इस त्रासदी के लिए एक व्यक्ति को ऐतिहासिक रूप से जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए. उन्हें मुझे पीटने के लिए एक छड़ी मिल गई थी मैं इसे समझ गया था." किताब के एक अध्याय में राव ने दावा किया कि इन (अनाम) कांग्रेस नेताओं ने 6 दिसंबर, 1992 को मस्जिद गिरने से काफी पहले एक महत्वपूर्ण कैलकुलेशन की थी. इसके मुताबिक, 'अगर सफलता मिली होती (किसी भी घटना को रोकने में - जैसा कि शुरू में लग रहा था जब राव ने विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नेताओं के साथ पर्दे के पीछे परामर्श किया था) तो वे आसानी से श्रेय साझा करेंगे या इसे अपनी झोली में डाल लेंगे. इसलिए वे या तो सफलता के लिए या किसी बहाने के लिए पर्दे के पीछे से चाल चल रहे थे.'

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राजीव से लेकर सोनिया तक का स्टैंड

सोनिया और राहुल गांधी तथा उनसे पहले राजीव गांधी भी अयोध्या विवाद पर अलग-अलग मौकों पर अक्सर अलग-अलग भाषा में बात करते थे. उनके सामूहिक प्रयासों से कभी कोई राजनीतिक लाभा नहीं मिल सका है.  1989 में, तब के प्रधानमंत्री के रूप में, राजीव गांधी ने "राम राज्य" का वादा करते हुए, अयोध्या में सरयू नदीं के तट से अपना लोकसभा अभियान शुरू किया था. राव ने अपनी पुस्तक में बताया कि राजीव गांधी और उनकी टीम ने विवादित स्थल पर 'शिलान्यास' भी किया था. लेकिन 1989 की चुनावी हार और मुस्लिम वोटों के नुकसान के बाद राजीव गांधी ने 'राम राज्य' के बारे में बात करना बंद कर दिया.

6 दिसंबर 1992 को, जब बाबरी मस्जिद गिरी, सोनिया गांधी ने शायद पहली बार अपना राजनीतिक बयान दिया. उन्होंने राजीव गांधी फाउंडेशन के अध्यक्ष के रूप में, पी.चिदंबरम और ट्रस्ट के अन्य सदस्यों को खारिज करते हुए एक बहुत ही कड़ा बयान जारी करते हुए कहा "अगर राजीव जीवित होते तो उन्होंने बाबरी विध्वंस की अनुमति नहीं दी होती."

तत्कालीन नरसिम्हा राव सरकार में मंत्री चिदंबरम और कुछ अन्य लोगों ने तर्क दिया था कि इस मुद्दे पर टिप्पणी करने की कोई आवश्यकता नहीं है. ट्रस्ट के एक सदस्य, जो उस समय वहां मौजूद थे, याद करते हैं कि सोनिया गांधी "अस्वाभाविक रूप से मुखर" थीं और उन्होंने उनसे कहा था कि अगर राजीव गांधी फाउंडेशन अपने आक्रोश की भावना को व्यक्त करने में विफल रहता है तो इससे नेहरू-गांधी विरासत कमजोर हो जाएगी. राव भी फाउंडेशन के सदस्य थे और उन्हें फटकार झेलनी पड़ी थी.

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जनवरी 1998 में, जब सोनिया गांधी औपचारिक रूप से राजनीति में शामिल हुईं, तो उन्होंने हैदराबाद में यह बयान फिर से दोहराया. मुख्य रूप से मुस्लिम दर्शकों की एक सभा को संबोधित करते हुए, उन्होंने कहा कि अगर गांधी परिवार का कोई भी सदस्य सत्ता में होता, तो बाबरी ढांचा ध्वस्त नहीं होता. संयोग से, राहुल गांधी ने अप्रैल 2007 में यही बयान उत्तर प्रदेश में दोहराया था.

सोनिया गांधी का वो दुर्लभ इंटरव्यू

कहा जाता है कि मई 1991 में अपनी हत्या से एक महीने पहले, राजीव गांधी ने सोनिया गांधी से कहा था कि अगर  बाबरी मस्जिद को छूने की कोई भी कोशिश की गई, तो वह उसके सामने खड़े हो जाएंगे और सामने वाले को पहले उन्हें मारना होगा. 2004 में, एक दुर्लभ टीवी साक्षात्कार में, सोनिया गांधी ने बाबरी विध्वंस के बारे में फिर से बात की और घटना को याद करते हुए उन्होंने कहा, "ठीक है, मैं राजनीति में नहीं थी. राजीव गांधी फाउंडेशन के अध्यक्ष के रूप में, हमने एक बहुत मजबूत बयान जारी किया था. वह एक ऐसा दिन था जिसे मैं कभी नहीं भूलूंगी. वास्तव में, उस दिन न केवल आंसू आए, हम सभी व्याकुल थे... केंद्र में कांग्रेस सत्ता में थी, लेकिन यह मत भूलिए कि यूपी में भाजपा सरकार थी.'

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चुनावी संदर्भ में देखा जाए तो 'राम राज्य' के वादे से लेकर 'बाबरी मस्जिद' की रक्षा तक की इन टिप्पणियों ने 1992 के बाद से कांग्रेस को कभी वोट नहीं दिलाए हैं. जब सोनिया गांधी ने हैदराबाद में सशर्त माफी की पेशकश की, तो 1998 के आम चुनावों के नतीजे सामने आए जो निराश करने वाले थे. यहां तक कि अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के प्रमुख सीताराम केसरी ने यह तक कह दिया था कि पार्टी उन अधिकांश सीटों पर हार गई है जहां सोनिया ने प्रचार किया था.

उत्तर प्रदेश में 1998 के बाद से लगातार विधानसभा और संसदीय चुनाव के नतीजों में देखा गया कि मुस्लिम बहुल निर्वाचन क्षेत्रों में भी पार्टी बहुत कम या कोई प्रभाव नहीं दिखा सकी है. दरअसल, निजी तौर पर ज्यादातर कांग्रेसी राम मंदिर मुद्दे पर निष्पक्ष या पारदर्शी तरीके से बात करने से बचना पसंद करते हैं. कुछ अजीब कारणों से, पार्टी ने लगभग तीन दशकों से कोई विशेष एआईसीसी सत्र बुलाने या अपने जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं को सुनने और अपना स्टैंड क्लियर करने से इनकार कर दिया है.

(इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के अपने निजी विचार हैं.)

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