जम्मू-कश्मीर में नई सरकार के साथ एक अच्छी शुरुआत के भी संकेत मिल रहे हैं. मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला की ही तरह उप राज्यपाल मनोज सिन्हा भी अब चुनी हुई सरकार और राज भवन के बीच किसी तरह का टकराव न होने देने की बात कर रहे हैं.
धारा 370 खत्म कर जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित क्षेत्र बना दिये जाने के बाद पहले से ही दिल्ली जैसी तकरार की आशंका जताई जा रही थी, लेकिन चुनाव जीतने के बाद नेशनल कांफ्रेंस नेता उमर अब्दुल्ला ने अपनी तरफ से स्थिति साफ करने की कोशिश की, वो केंद्र सरकार या उप राज्यपाल के साथ किसी तरह के टकराव के पक्ष में बिलकुल नहीं हैं - और अब ऐसी ही बातें जम्मू-कश्मीर के एलजी मनोज सिन्हा की तरफ से भी आई हैं.
जुलाई, 2024 में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने एक अधिसूचना के जरिये ट्रांजैक्शन ऑफ बिजनेस के नियमों को संशोधित करके जम्मू-कश्मीर के उप राज्यपाल के प्रशासनिक अधिकार बढ़ा दिये थे. और इसके साथ ही उप राज्यपाल को कामकाज के मामले में फाइनल अथॉरिटी बना दिया गया है.
और ये तो हर किसी को मालूम है कि केंद्र-शासित प्रदेश होने की वजह से विधान सभा और नये मुख्यमंत्री के पास वैसे पावर नहीं हैं जो बाकी राज्यों की विधान सभा और मुख्यमंत्रियों के पास होती हैं. अब तक एलजी के फैसलों को देखकर भी टकराव की आशंका जताई जा रही थी. हां, उमर अब्दुल्ला की पहल के बाद कुछ कम टकराव होने की संभावना लग रही थी - लेकिन, अब तो मनोज सिन्हा ने साफ साफ बोल दिया है कि उनकी तरफ से टकराव की कोई वजह नहीं होगी.
मनोज सिन्हा भी उमर अब्दुल्ला के साथ मिलकर काम करना चाहते हैं
जम्मू-कश्मीर के एलजी मनोज सिन्हा ने भी मिलजुल कर सरकार चलाने की बात इंडियन एक्सप्रेस के साथ इंटरव्यू में ही कही है, और उमर अब्दुल्ला ने भी ऐसे ही किया था. नई सरकार के गठन की पूर्वसंध्या पर मनोज सिन्हा से नये मुख्यमंत्री के लिए संदेश के बारे में पूछा गया था.
मनोज सिन्हा का कहना है, 'मेरा संदेश यही है कि जम्मू-कश्मीर के लोगों ने मैंडेट दे दिया है... चुने हुए प्रतिनिधियों को लोगों से किये गये वादे पूरे करने की कोशिश करनी चाहिये, ताकि जम्मू-कश्मीर में शांति, समृद्धि और विकास सुनिश्चित किया जा सके - और इस काम में नई सरकार को मेरी तरफ से पूरा सहयोग मिलेगा.'
दिल्ली की मिसाल देते हुए जब पूछा जाता है कि वैसी स्थितियों को कैसे टाला जा सकता है, तो मनोज सिन्हा कहते हैं, 'मिलजुल कर तमाम मसलों को सुलझाया जा सकता है. मैं चार साल से जम्मू-कश्मीर में हूं, और बहुत सारे काम हुए हैं, और बहुत सारे काम किये भी जाने हैं - ऐसे में मुझे नहीं लगता कि टकराव जैसी कोई नौबत आएगी.'
और लगे हाथ, मनोज सिन्हा ये भी आश्वस्त करने की कोशिश करते हैं, 'मेरी तरफ से किसी तरह के टकराव जैसी स्थिति नहीं पैदा होने दी जाएगी... मेरी ओर से टकराव की कोई वजह नहीं होगी.'
मुख्यमंत्री और उप राज्यपाल की ये सोच तारीफ के काबिल है, और अगर दोनो पक्ष अपनी बात पर कायम रहते हैं तो ये जम्मू-कश्मीर की अवाम के लिए भी बहुत अच्छी बात होगी. उमर अब्दुल्ला पहले ही कह चुके हैं कि केंद्र के साथ बेहतर रिश्ते कायम करने की उनकी पूरी कोशिश होगी, और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनको ऐसी अपेक्षा भी है. इंडियन एक्सप्रेस को दिये इंटरव्यू में उमर अब्दुल्ला ने कहा था कि वो इस बात पर भी कायम हैं कि उप राज्यपाल और केंद्र सरकार से टकराव से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण बात उनके लिए वो जिम्मेदारी है जो जम्मू-कश्मीर के लोगों ने नेशनल कांफ्रेंस को सौंपी है - और मनोज सिन्हा भी ऐसी ही बातें कर रहे हैं.
क्या ये महबूबा की तरह उमर अब्दुल्ला को भी आजमाने की कोशिश है?
जिस तरह उमर अब्दुल्ला और मनोज सिन्हा के बयान सामने आये हैं, जम्मू-कश्मीर की राजनीति में नये सियासी समीकरणों के संकेत समझे जा सकते हैं - केंद्र में सत्ताधारी बीजेपी की तरफ से इसे वैसा ही इशारा समझा जा सकता है, जैसा 2014 के विधानसभा चुनावों के बाद देखने को मिला था.
तब बीजेपी नेतृत्व और पीडीपी नेता महबूबा मुफ्ती ने आगे बढ़कर हाथ मिलाया और गठबंधन की सरकार बनाई. सरकार बनने से पहले उसे बेमेल गठबंधन कहा जाने लगा था, लेकिन कुछ दिन बाद लगने लगा कि दोनो पक्ष मिल कर आलोचकों का मुंह बंद करने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन 2018 आते आते बीजेपी नेता अमित शाह के समर्थन वापस लेने के फैसले के साथ ही सरकार गिर भी गई. 2019 में संसद में प्रस्ताव लाकर धारा 370 खत्म कर दी गई, और अब जाकर 10 साल बाद विधानसभा के चुनाव कराये जा सके हैं.
अभी तो नेशनल कांफ्रेंस सरकार बनाने जा रही है, लेकिन पीडीपी करीब-करीब साफ हो चुकी है. नेशनल कांफ्रेंस को विधानसभा की 42 सीटें मिली हैं, जबकि पीडीपी को महज तीन. बीजेपी को 29 सीटें ही मिल पाई हैं.
अगर ये सरकार ठीक से चली और दिल्ली की तरह बात बात पर झगड़ा नहीं हुआ तो, भविष्य में नेशनल कांफ्रेंस और बीजेपी के करीब आने और फिर साथ आने से भी इनकार नहीं किया जा सकता - फिलहाल, इतना तो समझा ही जा सकता है कि नेशनल कांफ्रेंस और बीजेपी दोनो एक नये रिश्ते की नींव रखने की कोशिश तो कर ही रहे हैं.
क्या ये मिलजुल कर कश्मीर से कांग्रेस के सफाए की कोशिश है?
नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस ने चुनाव पूर्व गठबंधन किया था, और उमर अब्दुल्ला के शपथग्रहण मे शामिल होने के लिए लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी श्रीनगर भी पहुंच चुके हैं - लेकिन नई सरकार को लेकर कांग्रेस का जो रुख सामने आ रहा है, वो अच्छे इशारे नहीं कर रहा है.
एक तरफ उमर अब्दुल्ला और मनोज सिन्हा आपसी टकराव टालने के लिए प्रयासरत लगते हैं, और दूसरी तरफ नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस में तकरार शुरू हो गई है. कांग्रेस के जम्मू-कश्मीर प्रभारी भरत सिंह सोलंकी का कहना है कि नेशनल कांफ्रेंस से बातचीत जारी है, और सरकार में शामिल होने को लेकर फैसला बाद में लिया जाएगा. कहते हैं, कांग्रेस गठबंधन का हिस्सा है, लेकिन कांग्रेस का कोई विधायक मंत्री के रूप में शपथ नहीं लेगा, क्योंकि अभी ये तय नहीं हो पाया है कि हम सरकार का हिस्सा हैं या बाहर से समर्थन करेंगे?
पहले जम्मू-कश्मीर कांग्रेस के अध्यक्ष तारिक हमीद कर्रा के कैबिनेट में शामिल होने की बात चल रही थी, लेकिन अब तो बात ही अलग होने लगी है.
देखा जाये तो ये विवाद शुरू हुआ निर्दलीय विधायकों के उमर अब्दुल्ला सरकार को समर्थन दिये जाने की पहल से. फिर अरविंद केजरीवाल ने भी सपोर्ट का ऑफर कर दिया - और हालात ऐसे होते गये कि कांग्रेस हाशिये की तरफ बढ़ने लगी.
अच्छी बात ये है कि कांग्रेस नेताओं के सरकार में शामिल होने को लेकर सख्त रुख अपनाये जाने के बावजूद राहुल गांधी और प्रियंका गांधी शपथग्रहण में शामिल हो रहे हैं. और कुछ हो न हो, कम से कम रिश्तों को संभालने में मदद तो मिल ही सकती है - और मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी कांग्रेस को ही ध्यान में रखकर कैबिनेट में जगह बचा कर रखी है.