महाराष्ट्र से आ रहे रुझानों में महाविकास अघाड़ी तो लगता है पूरी तरह फिसड्डी साबित हो रही है. जिस तरीके से महायुति को जबरदस्त कामयाबी मिल रही है, बहुमत की कौन कहे, ये तो क्लीन स्वीप नजर आ रहा है.
महाराष्ट्र में 20 नवंबर को 288 सीटों के लिए वोटिंग हुई थी, जिसमें 65 फीसदी से ज्यादा मतदान हुआ था. महाविकास अघाड़ी के बैनर तले कांग्रेस ने 101, शिवसेना (UBT) ने 95 और NCP (शरदचंद्र पवार) ने 86 सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे. सत्ताधारी महायुति में सबसे ज्यादा 149 सीटों बीजेपी, 81 पर एकनाथ शिंदे की शिवसेना और 59 सीटों पर अजित पवार के नेतृत्व वाली NCP चुनाव मैदान में उतरी थी.
महाविकास अघाड़ी के पास सत्ता पर काबिज होने का बेहतरीन मौका था, लेकिन वो पूरी तरह चूक गई है - और साफ तौर पर लगता है, MVA को उसकी गलतियां ही भारी पड़ी हैं.
लोकसभा की कामयाबी हजम नहीं कर पाना
2022 में महाराष्ट्र में राजनीतिक भूचाल देखने को मिला था. शिवसेना में बगावत के कारण महाविकास अघाड़ी की सरकार गिर गई थी. उद्धव ठाकरे से मुख्यमंत्री पद की कुर्सी और शिवसेना की कमान भी छिन गई - और कुछ दिन बाद शरद पवार के साथ भी बिलकुल वही कहानी दोहराई गई.
महाविकास अघाड़ी को लोकसभा चुनाव में इन घटनाओं की वजह से सहानुभूति मिली. उद्धव ठाकरे और शरद पवार ने लोकसभा चुनाव में एकनाथ शिंदे और अजित पवार दोनो को पछाड़ दिया था - लेकिन लगता है MVA के नेता अपनी कामयाबी को हजम नहीं कर पाये - और उनका अति-आत्मविश्वास ले डूबा है.
सीटों के बंटवार से लेकर मुख्यमंत्री पद तक महाविकास अघाड़ी के नेता लगातार आपस में भिड़े रहे - और नतीजा सामने है.
मुख्यमंत्री की लड़ाई जगजाहिर हो जाना
जब महायुति में चुनाव की तैयारियां चल रही थीं, महाविकास अघाड़ी के नेता मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर भिड़े हुए थे - उद्धव ठाकरे के कदम पीछे खींच लेने के बाद भी कोई सहमति नहीं बन पाई और लोगों के बीच गलत संदेश चला गया.
पहले उद्धव ठाकरे खुद मुख्यमंत्री पद का चेहरा बनना चाहते थे, लेकिन बाद में इस बात के लिए भी तैयार हो गये कि सहमति बना ली जाये, और घोषणा न की जाये. कोई तैयार नहीं हुआ.
असल में कांग्रेस की तरफ से नाना पटोले भी मुख्यमंत्री पद के दावेदार थे, और शरद पवार अपना आदमी कुर्सी पर बिठाना चाहते थे - ये झगड़ा नुकसानदेह साबित हुआ.
महायुति के प्रभाव को कम नहीं कर पाना
जिन परिस्थितियों में एकनाथ शिंदे मुख्यमंत्री बने थे, और जिस तरह से सरकार चला रहे थे, महाविकास अघाड़ी के पास सत्ता पर काबिज होने का शानदार मौका था, लेकिन वे चूक गये.
MVA के लिए सबसे जरूरी था महायुति के प्रभाव को कम करना, सरकार की योजनाओं खासकर महिला वोटर को न साध पाना, गवर्नेंस के मुद्दे पर सरकार को ठीक से नहीं घेर पाना. ले देकर आखिरी दौर में धारावी को कारोबारी गौतम अडानी के नाम पर राहुल गांधी ने मुद्दा बनाने की कोशिश जरूर की, लेकिन अन्य मामलों में MVA के नेता पिछड़ गये.
हर सरकार के खिलाफ सत्ता विरोधी लहर होती ही है, कोई पार्टी सत्ता में वापसी करती है तो उसकी एक वजह वोटर के सामने विकल्प न होना भी होता है - MVA ये मौका भी पूरी तरह चूक गया.
बीजेपी के हिंदुत्व के एजेंडे को काउंटर न कर पाना
महाराष्ट्र की राजनीति में बाला साहेब ठाकरे के जमाने से ही हिंदुत्व का बड़ा प्रभाव रहा है, और शिवसेना के टूट जाने के बाद बीजेपी ने इसी मुद्दे पर उद्धव ठाकरे को टार्गेट करना शुरू किया था - और अब तो ये भी कह सकते हैं कि वो सफल रही.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ‘बंटेंगे तो कटेंगे’ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ‘एक हैं तो सेफ हैं’ नारों को महाविकास अघाड़ी के नेता काउंटर नहीं कर पाये, जबकि अजित पवार के साथ साथ बीजेपी के भी कई नेता विरोध जता रहे थे.
हिंदुत्व के एजेंडे के साथ चुनाव लड़कर भी बीजेपी अगर अयोध्या हार सकती है, तो क्या महाराष्ट्र में उसे नहीं हराया जा सकता था?
राहुल गांधी, शरद पवार और उद्धव ठाकरे के सामने ये बड़ा सवाल खड़ा हो गया है, जो आगे भी परेशान करता रहेगा.