बिहार में जो ठाकुर-ब्राह्मण की लड़ाई चल पड़ी है, उसका निशान कुछ और नहीं बल्कि वोट बैंक की राजनीति है. पूरे वाकये के अलग अलग पहलुओं को एक साथ समझें तो तस्वीर काफी हद तक साफ हो जाती है. ये भी समझ में आता है कि लड़ने वाले तो सिपाही हैं, रणनीति तो एक ही सेनापति की है.
कौन क्या कह रहा है, इसके बजाय ये समझना जरूरी है कि क्यों और कब कह रहा है? और तभी ये भी समझ में आता है कि मोर्चे पर तो बस मोहरों को उतार दिया गया है, रिंग मास्टर तो अगले चुनाव की तैयारी कर रहा है.
कहने को तो सवर्ण जातियों के दो नेता आमने सामने लड़ते नजर आ रहे हैं, लेकिन ये अलग अलग राजनीतिक दलों के तो हैं नहीं. एक ही पार्टी आरजेडी के नेता हैं. दोनों नेताओं के भी एक ही नेता हैं - लालू यादव.
बिहार की राजनीति में मुर्गे की लड़ाई जैसा फील दे रहे दो नेताओं के झगड़े में बहुत सारे लोचे भी हैं. खबर तो सूत्रों के हवाले से ही आई है, लेकिन लालू यादव का आनंद मोहन के परिवार से न मिलना, चेतन आनंद का मनोज झा के भाषण के पांच दिन बाद रिएक्शन देना - और फिर आनंद मोहन का मोर्चा संभाल लेना.
जैसे कोई WWE का मुकाबला चल रहा हो
सबसे पहले उस घटना की बात करते हैं, जिसके आधार पर इस झगड़े का पूरा ताना बाना बुना गया लगता है. लोक सभा से नारी शक्ति वंदन अधिनियम के पास हो जाने के बाद राज्य सभा में होने वाली बहस में आरजेडी सांसद मनोज झा भाषण देते हैं. चूंकि लोक सभा में आरजेडी का जीरो बैलेंस है, इसलिए वहां तो ऐसा कुछ होना मुमकिन भी नहीं था.
बहस महिला आरक्षण बिल पर चल रही होती है, लेकिन आरजेडी नेता मनोज झा एक ऐसी कविता पढ़ते हैं जिसमें अगड़ों और पिछड़ों की राजनीतिक की तरफ इशारा होता है. ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता में एक किरदार को 'ठाकुर' कह कर संबोधित किया गया है.
मनोज झा ये समझाने की कोशिश करते हैं कि दया कभी अधिकार की श्रेणी में नहीं आ सकती है. क्योंकि मनोज झा की नजर में महिला आरक्षण बिल को दया भाव की तरह पेश किया जा रहा होता है. ये सब समझाते हुए मनोज झा कविता पढ़ते हैं.
"चूल्हा मिट्टी का, मिट्टी तालाब की, तालाब ठाकुर का.
भूख रोटी की, रोटी बाजरे की, बाजरा खेत का, खेत ठाकुर का.
बैल ठाकुर का, हल ठाकुर का, हल की मूठ पर हथेली अपनी, फसल ठाकुर की.
कुआं ठाकुर का, पानी ठाकुर का, खेत-खलिहान ठाकुर के.
गली-मोहल्ले ठाकुर के फिर अपना क्या?"
आखिर में मनोज झा अपनी तरफ से डिस्क्लेमर भी पेश करते हैं. कहते हैं, 'वो ठाकुर मैं भी हूं... वो ठाकुर संसद में है... वो ठाकुर विश्वविद्यालयों में है... वो ठाकुर विधायिका को कंट्रोल करता है... इस ठाकुर को मारो, जो हमारे अंदर है.'
मनोज झा ब्राह्मण हैं, लेकिन कविता में ठाकुर का जिक्र आता है. जातीय राजनीति के हिसाब से ब्राह्मण और ठाकुर अलग अलग जरूर हैं, लेकिन वोट बैंक की राजनीति में दोनों सवर्ण हो जाते हैं - खास कर तब जब लड़ाई को अगड़ों और पिछड़ों के बीच बनाने की कवायद चल रही हो.
ये कवायद तो संसद में महिला आरक्षण बिल पेश करने के साथ ही शुरू हो गयी थी. अब तो कांग्रेस भी थक हार कर ओबीसी महिलाओं के लिए अलग से आरक्षण मानने लगी है, पहले तो ये काम लालू यादव की पार्टी के जिम्मे हुआ करता था. अब तो INDIA गठबंधन में साथ बने रहने के लिए सोनिया गांधी प्रधानमंत्री पत्र लिखती हैं, और राहुल गांधी जातीय जनगणना कराने के लिए विपक्ष के साथ अभियान चला रहे हैं.
हैरानी तो तब होती है जब मनोज झा के भाषण के पांच दिन बाद आरजेडी विधायक चेतन आनंद की नींद टूटती है. वो फेसबुक पर लाइव आते हैं, अलग से पोस्ट लिखते हैं और अपनी बात कहने के लिए मीडिया से मुखातिब होते हैं - और बाद में आगे बढ़ कर उनके पिता और कलक्टर की हत्या केस में सजायाफ्ता आनंद मोहन मोर्चा संभाल लेते हैं.
फेसबुक पर आरजेडी विधायक चेतन आनंद लिखते हैं, हम "ठाकुर" हैं साहब!!
अपनी पोस्ट में चेतन आनंद लिखते हैं, 'समाजवाद में किसी एक जाति को टार्गेट करना समाजवाद के नाम पर दोगलापन के अलावा कुछ नही! जब हम दूसरों के बारे में गलत नहीं सुन सकते तो अपने (ठाकुरों) पर अभद्र टिप्पणी बिल्कुल नही बर्दाश्त करेंगे!!'
मीडिया से बातचीत में चेतन आनंद का कहना है, 'मनोज झा ठाकुरों को मारने की बात कहते हैं... अगर इतने ही समाजवादी हैं तो क्यों नहीं अपने अंदर के ब्राह्मण को मारते... मनोज झा क्यों नहीं अपने नाम के झा हटा देते हैं.'
आगे आगे बेटा तो पीछे पीछे पिता. आनंद मोहन गरजते हैं, 'अगर मैं होता राज्य सभा में तो जीभ खींचकर आसन की तरफ उछाल देता, सभापति की ओर.'
अब जरा क्रोनोलॉजी भी समझ लेते हैं. 21 सितंबर को मनोज झा का संसद में भाषण हुआ था. 26 सितंबर को चेतन आनंद फेसबुक के जरिये आगे आते हैं - आखिर पांच दिन तक वो हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठे रहे. और जागे भी तो खुद से या किसी और ने जगाया?
सवाल भी यही है कि चेतन आनंद को नींद से जगाया किसने? पिता आनंद मोहन ने? मां लवली आनंद ने? किसी सलाहकार ने या उनके नेता ने?
सवाल ये उठता है कि जो कुछ हो रहा है वो आनंद मोहन परिवार की पहल है, या आरजेडी की रणनीति ही यही है? ओबीसी और जातीय जनगणना को लेकर जो माहौल बना है, ये तो पूरी तरह उसमें फिट भी हो जाता है.
और तभी राष्ट्रीय जनता दल की तरफ से सोशल साइट X पर मनोज झा के भाषण को दमदार और शानदार बताते हुए शेयर भी कर दिया जाता है - 26 सितंबर को रात नौ बज कर 51 मिनट पर.
मतलब राष्ट्रीय जनता दल को भी ये भाषण शानदार और जानदार 5 दिन बाद ही लगता है. ये क्या बात हुई, आरजेडी के सोशल मीडिया प्रभारी और विधायक चेतन आनंद दोनों एक ही दिन मनोज झा का भाषण सुनते हैं! एक साथ नींद से जागते हैं. दोनों आपस में एक दूसरे को देख कर जागते हैं या दोनों को कोई तीसरा जगा रहा होता है.
क्या ये सब जान कर नहीं लगता कि सामने WWE की फाइट का सीन चल रहा हो. शोर तो वहां भी सुनाई देता है. ज्यादा शोर भी वे ही करते हैं जो लड़ने के लिए रिंग में उतरे होते हैं - और रिंग मास्टर की भूमिका तो यहां भी लगती है. बस सीटी कौन बजा रहा है, समझने की जरूरत है.
लालू क्यों नहीं मिले आनंद मोहन के परिवार से
सूत्रों के हवाले से इसी बीच एक खबर आती है. खबर होती है आरजेडी नेता लालू यादव से आनंद मोहन परिवार के मिलने की कोशिश को लेकर. कोशिश इसलिए क्योंकि आनंद मोहन के पूरे परिवार को 10 मिनट तक इंतजार करने के बाद भी लालू यादव मिलने का समय नहीं देते.
बड़ी अजीब बात है. बस 10 मिनट में पूरा परिवार नाराज हो जाता है. अरे, 10 मिनट से ज्यादा तो हाल चाल और इधर उधर की बातों में गुजर जाता है. भला ये क्या बात हुई.
ये सवाल तो है ही कि लालू यादव ने अपनी ही पार्टी के विधायक चेतन आनंद के परिवार से मुलाकात क्यों नहीं की? लालू यादव ने अगर ऐसा किया है तो ये कब की बात है? क्या लालू यादव ने इसलिए मुलाकात नहीं की क्योंकि आनंद मोहन का परिवार मनोज झा की शिकायत लेकर पहुंचा था?
आरजेडी के हैंडल से मनोज झा के भाषण को जानदार और शानदार बताया जाना तो यही बता रहा है कि लालू यादव का सपोर्ट हासिल है. अगर कांग्रेस नेतृत्व अचानक यूटर्न लेकर महिला आरक्षण में ओबीसी के लिए अलग से मांग रख देता है, फिर तो उसी तरह मनोज झा के भाषण की भी लाइन पहले से तय हो रखी होगी.
और पांच दिन तक जब किसी भी सियासी कोने से कोई प्रतिक्रिया नहीं आती, तो आरजेडी के भीतर से ही एक धड़ा विरोध में खड़ा हो जाता है. क्या ये सब यूं ही अचानक हो सकता है? वो भी तब जबकि बिहार में लालू यादव और तेजस्वी यादव के साथ खड़े होने के लिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बीजेपी से लड़ कर जातीय सर्वे करा रहे हों. कांग्रेस भी ओबीसी का मुद्दा उठा रही हो.
बीती बातों पर गौर करें तो पाएंगे कि आनंद मोहन और लालू यादव एक दूसरे के लिए मददगार ही साबित हुए हैं. ये सही है कि 1995 में लालू यादव को ही चैलेंज कर आनंद मोहन ने बिहार पीपुल्स पार्टी बनायी थी, और ये भी सही है कि लालू यादव ने तब बिहार की 324 में 167 सीटें जीत ली थी. चुनाव में आनंद मोहन ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे. कांग्रेस का वोट कटा और आरजेडी की सत्ता में वापसी हो गयी.
पहले आनंद मोहन, अब चेतन आनंद. पहले पिता आनंद मोहन के सियासी दांव से लालू यादव को मदद मिली, अब बेटे चेतन आनंद के राजनीतिक स्टैंड से तेजस्वी यादव को फायदा मिलना तय है. और लालू यादव भी तो यही चाहते हैं कि अगले चुनाव में लड़ाई बैकवर्ड और फॉरवर्ड के बीच ही हो. यदि आनंद मोहन और चेतन आनंद के सार्वजनिक गुस्से को स्वाभाविक माना जाए तो यह भी माना जा सकता है कि ये परिवार मानकर बैठा है कि ठाकुरों का वोट अब RJD को नहीं मिलेगा, ऐसे में उनके लिए एक नई जमीन तलाशना जरूरी हो गया है. वो जगह भाजपा में भी हो सकती है.