बीएसपी दिल्ली विधानसभा चुनाव शिद्दत से लड़ती रही है, लेकिन मायावती इस बार खास दिलचस्पी ले रही हैं. कभी कभी तो लगता है, जैसे यूपी चुनाव से भी ज्यादा वक्त दे रही हैं. यूपी के हाल के 9 सीटों पर हुए उपचुनावों से ज्यादा तो लगता ही है.
विधानसभा चुनाव के लिए मायावती के दिल्ली में डेरा डाल देने को आखिर कैसे समझा जाये, वो भी तब जब मिल्कीपुर में महत्वपूर्ण उपचुनाव भी 5 फरवरी को ही हो रहा हो. 9 सीटों पर हुए उपचुनाव में बीएसपी के संतोषजनक प्रदर्शन न होने के बाद, मायावती ने मिल्कीपुर उपचुनाव से पहले ही दूरी बना ली थी.
बीएसपी की गैरमौजूदगी में नगीना सांसद चंद्रशेखर आजाद ने मिल्कीपुर उपचुनाव में मोर्चा संभाल लिया है - और मायावती का पूरा फोकस दिल्ली विधानसभा चुनाव पर हो गया है.
आम चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव का सपोर्ट किया था. लखनऊ पहुंच कर साथ में प्रेस कांफ्रेंस भी की थी, और दिल्ली में अखिलेश यादव ने भी आम आदमी पार्टी का सपोर्ट किया है - लगता है मायावती को ये दोस्ती बिल्कुल भी अच्छी नहीं लग रही है. यूपी में तो वैसे ही अखिलेश यादव और और मायावती के रिश्ते में 36 का आंकड़ा हो रखा है.
लेकिन दिल्ली में मायावती के निशाने पर अरविंद केजरीवाल ही हैं या कोई और? एक सदाबहार दुश्मनी तो वो कांग्रेस और गांधी परिवार के साथ पूरे मन से निभाती हैं - लेकिन जिस तरीके से बीएसपी के टिकट बांटे गये हैं मायावती के निशाने पर तो चंद्रशेखर आजाद भी नजर आने लगे हैं.
ये तो पहले ही देखा जा चुका है कि यूपी के हालिया उपचुनावों में मायावती के हिस्सा लेने की वजह चंद्रशेखर आजाद ही थे. क्योंकि, लोकसभा चुनाव के दौरान भतीजे आकाश आनंद से जिम्मेदारियां छीन लेने के बाद उपचुनाव से पहले बहाल करने की कोई और वजह तो थी नहीं, सिवा चंद्रशेखर आजाद के चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच जाने के.
मायावती ने यूपी के उपचुनावों की जिम्मेदारी भी आकाश आनंद को ही दी थी, और दिल्ली विधानसभा चुनाव का प्रभार भी उनके पास ही है.
मायावती की चुनावी राजनीति में रणनीतिक बदलाव
दिल्ली विधानसभा चुनाव के लिए बीएसपी के उम्मीदवारों की सूची कई बातें अलग से बता रही है - युवा उम्मीदवारों पर खास जोर कुछ मजबूत इशारे तो कर ही रहा है.
मायावती ने दिल्ली की करीब आधी सीटों पर जाटव समुदाय से उम्मीदवार उतारे हैं, और उनमें भी करीब आधे 45 साल से कम उम्र वाले हैं.
मान कर चलना होगा कि युवाओं को टिकट दिये जाने में आकाश आनंद की भी अहम भूमिका होगी, लेकिन मुहर तो मायावती ने ही लगाई होगी - और ये सब कुछ सोच समझकर ही किया होगा.
चुनावी राजनीति में बीएसपी भले ही हाशिये पर पहुंच चुकी हो, लेकिन दलित समुदाय अब भी मायावती को ही सबसे बड़ा नेता मानता है, और चंद्रशेखर आजाद के सांसद बनने से पहले तक मायावती की तुलना में उनको उतनी गंभीरता से नहीं लेता रहा है.
लोकसभा चुनाव में तो चंद्रशेखर ने नगीना सीट पर बीएसपी को बड़ा झटका दिया ही था, दलित युवाओं में भी उनकी फैन-फॉलोविंग बढ़ी देखी जा रही है.
और आकाश आनंद के सामने मायावती के लिए यूपी में चंद्रशेखर आजाद वैसे ही बड़ा चैलेंज हैं, जैसे बिहार में तेजस्वी यादव के सामने लालू यादव के लिए कन्हैया कुमार और पप्पू यादव जैसे नेता.
बीएसपी ने दिल्ली की 70 में से 69 सीटों पर उम्मीदवार उतारा है जिनमें 45 दलित समुदाय से हैं, और उनमें भी 35 जाटव बिरादरी से. ध्यान रहे मायावती और चंद्रशेखर दोनो ही जाटव बिरादरी से ही आते हैं.
बीएसपी के दलित उम्मीदवारों में 33 सामान्य सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं, क्योंकि दिल्ली में 12 सीटें ही अनुसूचित जाति के लिए रिजर्व हैं.
जाटव के साथ साथ बीएसपी ने बाल्मीकि और खटिक के अलावा जाट, गुर्जर, ब्राह्मण, ठाकुर, वैश्य, पंजाबी और ओबीसी समुदाय के नेताओं को भी उम्मीदवार बनाया है - और मायावती ने 5 मुस्लिम उम्मीदवारों को भी टिकट दिया है.
दिल्ली चुनाव में बीएसपी का प्रदर्शन कैसा रहा है
दिल्ली में बीएसपी का अब तक का सबसे उम्दा प्रदर्शन 2008 में देखने को मिला है, यानी मायावती के अपने बूते यूपी में सरकार बनाने के ठीक साल भर बाद. तब मायावती ने दलित और ब्राह्मण वोटों की सोशल इंजीनियरिंग की थी, और वो भी बीएसपी का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन था.
2008 के विधानसभा चुनाव में बीएसपी को दिल्ली में दो विधानसभा सीटें मिली थीं. 14 फीसदी वोट शेयर के साथ बाबरपुर विधानसभा सीट, और गोकलपुर की सुरक्षित सीट.
लेकिन 5 साल बाद ही, 2013 में बीएसपी का वोट शेयर 14 फीसदी से घट कर 5.35 फीसदी पहुंच गया, और बीएसपी का खाता भी नहीं खुल सका. ये वही साल था जब दिल्ली की राजनीति में अरविंद केजरीवाल की एंट्री हुई थी, और कांग्रेस का करीब करीब सफाया हो गया था. शीला दीक्षित की नई दिल्ली सीट पर अरविंद केजरीवाल के हाथों हार के साथ ही कांग्रेस 8 सीटों पर सिमट गई थी. उसके बाद तो कांग्रेस का भी बीएसपी की ही तरह खाता नहीं खुल पा रहा है.
2015 में बीएसपी का वोट शेयर 1.3 पहुंच गया था जब पार्टी के 70 में से 69 उम्मीदवारों की जमानत जब्त हो गई थी. 2020 में तो बीएसपी के सभी 68 उम्मीदवार जमानत राशि गंवा बैठे थे, और वोट शेयर भी एक फीसदी से नीचे 0.71 फीसदी पर पहुंच गया - और लोकसभा चुनाव 2024 में भी बीएसपी का वोट शेयर 0.7 ही दर्ज किया गया है.