मायावती ने हाल ही में कहा था कि सक्रिय राजनीति से उनके संन्यास लेने का सवाल ही नहीं पैदा होता. बीएसपी नेता का कहना था कि उनके खिलाफ फेक न्यूज फैलाई जा रही है - और आरोप लगाया था कि ये काम 'जातिवादी मीडिया' कर रहा है.
और मायावती के राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में फिर से बीएसपी का अध्यक्ष चुन लिये जाने के बाद ऐसे सारे ही कयास और अफवाह खत्म मान लिये जाने चाहिये. बीजेपी के अध्यक्ष का चुनाव पांच साल के लिए होता है, यानी अगले पांच साल तक तो ये बहस होनी नहीं है. वैसे भी 18 सितंबर, 2003 से मायावती के अध्यक्ष बनने के बाद से बीते 21 साल में ऐसी कोई बहस कभी हुई भी नहीं है. बेशक बहुत सारे नेता बीएसपी छोड़ चुके हैं, लेकिन लोक जनशक्ति पार्टी, शिवसेना और एनसीपी जैसी नौबत मायावती के सामने कभी नहीं आई है - न ही कभी समाजवादी पार्टी जैसा झगड़ा ही देखने को मिला है.
ऐसा भी नहीं है कि मायावती बीएसपी को परिवारवाद की राजनीति के साये से दूर रख पाती हों. पहले अपने भाई को भी पार्टी में लाई थीं, और अब तो भतीजे आकाश आनंद को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी बना ही चुकी हैं.
मायावती के फिर से अध्यक्ष चुन लिये जाने के साथ ही, बीएसपी के नेशनल कोऑर्डिनेटर आकाश आनंद को भी कई जिम्मेदारियां दी गई हैं. जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, आकाश आनंद को उनका प्रभारी बनाया गया है.
उत्तर प्रदेश में 10 सीटों के लिए होने वाले उपचुनाव का काम तो वो पहले से ही देख रहे हैं. इसी बात के लिए तो मायावती आनन फानन में उनको बहाल करते हुए पुरानी जिम्मेदारियां और अधिकार सौंप दिये थे.
अपने संन्यास ने लेने की बात कर, मायावती ने असल में अपनी तरफ से ये तस्वीर साफ करने की कोशिश की थी कि बीएसपी की कमान सिर्फ और सिर्फ उनके हाथों में ही है. बात बस इतनी ही होती तो कोई बात नहीं, बाद में भी मायावती की तरफ कई सारे मुद्दों पर तस्वीर साफ करने की कोशिश की गई है - आखिर यूपी के उपचुनावों से पहले मायावती हर मामले में सफाई क्यों देने लगी हैं?
क्या बीएसपी के घटते वोट बैंक की चिंता सता रही है?
मायावती के हाल के ज्यादातर बयान सोशल साइट X पर ही जारी किये गये हैं, और वो भी उनके ही हैंडल से. मायावती ने कहा है कि बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम की ही तरह वो भी आखिरी सांस तक बीएसपी के आत्मसम्मान और स्वाभिमान अभियान के लिए समर्पित रहेंगी.
और अपनी बातों का मतलब समझाते हुए मायावती कहती हैं, 'सक्रिय राजनीति से मेरा संन्यास लेने का कोई सवाल ही पैदा नहीं होता है... जबसे पार्टी ने आकाश आनंद को मेरे न रहने पर या अस्वस्थ, विकट स्थिति में बीएसपी के उत्तराधिकारी के रूप में आगे किया है, तब से जातिवादी मीडिया ऐसे फेक न्यूज प्रचारित कर रहा है... लोग सावधान रहें.'
लगे हाथ मायावती ने ये भी साफ करने की कोशिश की है कि वो राष्ट्रपति बनने को भी तैयार नहीं हैं. लिखा है, पहले भी मुझे राष्ट्रपति बनाये जाने की अफवाह उड़ाई गयी, जबकि मान्यवर कांशीराम जी ने ऐसे ही ऑफर को ये कहकर ठुकरा दिया था कि राष्ट्रपति बनने का मतलब है सक्रिय राजनीति से संन्यास लेना, जो पार्टी हित में मंजूर नहीं था, तो फिर उनकी शिष्या को यह स्वीकार करना कैसे संभव है?
आखिर मायावती ये बातें, ऐसे वक्त क्यों कर रही हैं, जब उत्तर प्रदेश की 10 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव होने जा रहे हैं?
अरसा बाद उपचुनाव लड़ने का बीएसपी का फैसला मायावती की फिक्र तो सामने ला रहा है, और हाल के उनके तमाम बयान भी एक ही तरफ इशारा कर रहे हैं - क्या मायावती को बीएसपी के घटते वोट बैंक की चिंता होने लगी है?
चुनावी गठबंधन से वास्तव में परहेज है क्या?
2007 में अपने बूते यूपी में सरकार बनाने के अलावा मायावती को गठबंधन के बगैर कामयाबी नहीं मिली है. यहां तक कि 2019 के लोकसभा चुनाव में भी बीएसपी इसीलिए लोकसभा की 10 सीटें जीत पाई क्योंकि समाजवादी पार्टी के साथ चुनावी गठबंधन किया था. वरना, 2014 और 2024 के नतीजे मिसाल हैं.
यूपी के उपचुनावों से पहले मायावती ने एक बार फिर गठबंधन को लेकर अपना विजन शेयर किया है. मायावती ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के गठबंधन से साफ साफ इनकार किया है.
मायावती ने समाजवादी पार्टी और कांग्रेस को आरक्षण विरोधी पार्टी बताया है, और कहा है कि इनसे गठबंधन करना क्या SC, ST और OBC तबके के हित में उचित होगा? मायावती का कहना है कि वो दोनो में से किसी के साथ भी गठबंधन नहीं करेंगी, और SC, ST और OBC तबके को अपने दम पर खड़ा होना होगा.
हालांकि, मायावती ने गठबंधन न करने के मामले में भारतीय जनता पार्टी का नाम नहीं लिया है. क्या मायावती अपने लोगों को कोई क्लू देने की कोशिश कर रही हैं? बीते कई चुनावों में मायावती पर बीजेपी के मददगार होने के आरोप तो लगते ही रहे हैं.
इसी बीच, मायावती ने समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव के प्रति इस बात के लिए आभार जताया है कि उन्होंने बीएसपी नेता के ईमानदार होने की सच्चाई को स्वीकार किया है. साथ ही, मायावती पर आरोप लगाने वाले मथुरा के विधायक के खिलाफ बीजेपी से कार्रवाई की मांग की है.
क्या मायावती को कांग्रेस भी डराने लगी है?
कांग्रेस तो हमेशा ही मायावती के निशाने पर पहले नंबर पर आती है. राहुल गांधी कुछ भी कर दें, प्रियंका गांधी वाड्रा कोई भी कदम बढ़ा दें - मायावती धावा बोल देती हैं. पूरी तरह घेर लेने की कोशिश होती है. प्रियंका गांधी तो मायावती पर बीजेपी का अघोषित प्रवक्ता होने का आरोप भी लगा चुकी हैं, और जिस तरह मायावती रिएक्ट करती हैं, कई बार ऐसे आरोप बेबुनियाद भी नहीं लगते.
मायावती को ताजा गुस्सा राहुल गांधी के मिस इंडिया वाले बयान पर आया है, जिसमें वो सवाल उठा रहे हैं कि ब्युटी कॉन्टेस्ट में कभी एससी-एसटी के प्रतियोगी दिखाई क्यों नहीं देते. असल में राहुल गांधी अब जातीय राजनीति में सीधे सीधे दखल देने लगे हैं. अव्वल तो निशाने पर आगे बीजेपी है, लेकिन राहुल गांधी की जातीय जनगणना के बहाने चल रही मुहिम वास्तव में मायावती जैसे नेताओं को ही है, जो सिर्फ अपनी बिरादरी के बूते सत्ता की राजनीति में बने रहते हैं. जो खतरा मायावती फिलहाल महसूस कर रही होंगी, आने वाले दिनों में वो बात अखिलेश यादव से लेकर तेजस्वी यादव और चिराग पासवान तक ऐसे सभी नेताओं पर लागू होती है.
मायावती कह रही हैं कि प्रयागराज में संविधान सम्मान समारोह करने वाली कांग्रेस को बाबा साहेब अंबेडकर के अनुयायी कभी माफ नहीं करेंगे, जिसने संविधान के मुख्य निर्माता को उनके जीते-जी और निधन के बाद भी भारतरत्न की उपाधि से सम्मानित नहीं किया. और वैसे ही, बाबा साहेब की मुहिम को गति देने वाले मान्यवर कांशीराम के निधन पर केन्द्र की सत्ता में होते हुए भी उनके सम्मान में एक दिन का भी राष्ट्रीय शोक, और सपा सरकार ने भी राजकीय शोक घोषित नहीं किया... ऐसी सोच... चाल और चरित्र से जरूर सजग रहें.
बातों बातों में मायावती ने 1995 के गेस्ट हाउस कांड की भी याद दिलाई है. वो सपा पर जानलेवा हमला कराने का आरोप तो लगा ही रही हैं, ये भी पूछ रही हैं कि कांग्रेस ने कभी क्यों नहीं बोला? मायावती ये भी याद दिलाने की कोशिश कर रही हैं, कि जब लखनऊ के गेस्ट हाउस में उन पर जानलेवा हमला हुआ था तब केंद्र में कांग्रेस की ही सरकार थी, लेकिन उसने अपना दायित्व नहीं निभाया.
सवाल है कि मायावती ये कैसे भूल जाती हैं कि 2019 में चुनावी गठबंधन के तहत वो मैनपुरी जाकर मुलायम सिंह यादव के लिए वोट भी मांग चुकी हैं - क्या बीएसपी के समर्थक ये सब यूं ही भूल जाएंगे?
जिस तरह दलित तबके के 2024 के आम चुनाव में बीएसपी या बीजेपी की जगह सपा-कांग्रेस गठबंधन को वोट देने की बात समझी जा रही है, उससे तो यही लगता है कि महज बयानबाजी से दलित वोटर को न तो आगाह किया जा सकता है, न ही गुमराह किया जा सकता है.