बेंगलुरु के अतुल सुभाष की मौत के बीच ये चर्चा कुछ बेमौका है, लेकिन रिपोर्ट चूंकि अभी आई तो बात भी अभी ही होनी चाहिए. हुआ ये कि हाल में लंदन की संसद में वीमन एंड इक्वैलिटी कमेटी ने एक खुलासा किया, जिसके मुताबिक उनके यहां महिलाओं के दर्द को हल्का-फुल्का मानते हुए खुद डॉक्टर ही खारिज कर रहे हैं. खासकर पीरियड पेन को लेकर अगर कोई चली जाए तो उसे मश्वरा देकर लौटा दिया जाता है. ये हाल लंदन से लेकर न्यूयॉर्क, और दिल्ली से लेकर खारतूम तक एक-सा है.
फॉर्मल भाषा में इसे पेन गैप या मेडिकल मिसोजिनी कहा जाता है.
दिलचस्प बात ये है कि इसपर चर्चा भी दसियों सालों से हो रही है कि आखिर क्यों औरतों के दर्द को चुटकुला या बहाना समझा जाता है. पचासों स्टडीज हो चुकीं. और सैकड़ों रिपोर्ट्स छप चुकीं. लेकिन फिलहाल मामला वहीं अटका हुआ है, जहां सदियों पहले शुरू हुआ था.
'वो (पीरियड ब्लड) गलती से भी छू जाए तो लहलहाती फसल सूख जाती है. पशु मर जाते हैं. फलों से लदा पेड़ मुरझा जाता है. यहां तक कि पीतल पर जंग लग जाती है.' रोमन दार्शनिक और प्राकृतिक चिकित्सक प्लिनी द एल्डर ने पीरियड्स के बारे में जब ये कहा तो बहस की कोई वजह नहीं थी. सीधी-सी बात. महीने के कुछ रोज स्त्री नाम की प्रजाति को काबू में रखा जाए ताकि दुनिया बेपटरी न हो. यही हुआ. पहले से ही सिकुड़कर जीती महिलाएं थोड़ा और सिमट आईं. लेकिन बात यहीं खत्म नहीं हुई.
सबसे तेज तलवार को भी जैसे वक्त-वक्त पर धार देने की जरूरत होती है, वैसे ही इस जनाना-बीमारी का खतरा भी रह-रहकर याद दिलाया जाने लगा.
साल 1874 में 'पॉपुलर साइंस' जर्नल में छपा एक आर्टिकल धूम मचा रहा था. उसके लेखक हेनरी मॉल्डस्ले को ब्रिटेन समेत यूरोप में बुलाया जाने लगा कि वे बोलें जिससे बागी स्त्रियां संभल जाएं.
आर्टिकल का एक टुकड़ा आप भी पढ़िए- स्त्री-पुरुष की तुलना दो बराबर के शरीर और दिमागों की तुलना नहीं है. औरतें महीने के कुछ दिन और जिंदगी के बहुत-सारे साल किसी बच्चे से भी कमजोर और मूर्ख हो जाती हैं. लंबी सैर या ज्यादा खाना खा लेने तक से पीरियड्स का डर और बढ़ जाता है. तो स्त्रियां आराम करें, और हल्का खाएं.
एक तरफ हल्का भोजन- उच्च विचार पर पर्चे रंगे जा रहे थे, दूसरी तरफ कुछ औरतें पढ़ने-लिखने लगीं. लंबी सैर करते हुए वे मेडिकल कॉलेजों तक पहुंच गईं और डिग्री भी पाने लगीं.
राग-रंग की गर्म कड़ाही में मानो छन्न से पानी जा गिरा हो. पीरियड्स के नाम पर सालों-साल दी चेतावनी बेकार होने जा रही थी.
पुरुष इकट्ठा हुए और साल 1873 में लंदन ऑब्सटेट्रिकल सोसायटी ने महिलाओं को अस्पतालों में रैंक लेने से रोकने के लिए वोट कर दिया. डॉक्टरों के तरकश में वही घातक तीर था- पीरियड्स में महिलाएं बेकार हो जाती हैं. वे अपना दर्द संभालेंगी, या मरीज का! महिला डॉक्टरों को इस तर्क के साथ घर बैठा दिया गया. यानी एक तरफ दर्द को मानने से ही इनकार कर दिया गया, दूसरी तरफ इसी के हवाले से बंदिशें भी लगा दी गईं.
साल 2023 में हमारे यहां सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका पर सुनवाई हुई. याचिकाकर्ता का कहना था कि कामकाजी महिलाओं को पीरियड लीव मिलनी चाहिए. इसपर तीन सदस्यीय बेंच ने कहा कि मेन्सट्रुअल लीव के कई पहलू हैं. लीव का प्रावधान बना देने से ये भी हो सकता है कि कंपनियां औरतों को काम पर रखने से कतराने लगें.
बेंच ने तमाम सहानुभूति रखते हुए भी इस मामले में कोई सीधा फैसला लेने से इनकार करते हुए कह दिया कि केंद्र चाहे तो ये निर्णय ले सकती है, हम बीच में नहीं पड़ेंगे.
हमसे कई गुना ज्यादा मॉडर्न देशों में भी यही हाल है.
नीदरलैंड, जहां स्त्री-पुरुष 'लगभग' बराबरी पर हैं, चार साल पहले वहां के एक सर्वे में निकला कि पीरियड से गुजर रही सिर्फ 14% महिलाएं ही छुट्टियां लेती हैं. इसमें भी केवल 20% औरतें ही बॉस से असल वजह बता पाती हैं. ज्यादातर महिला कर्मचारियों को हर महीने एकाध दिन या तो बुखार आ जाता है, या फिर कोई फैमिली इमरजेंसी.
दूसरा विश्व युद्ध खत्म होते ही जापान ने अपने यहां पीरियड लीव पॉलिसी लागू कर दी. वो चाहता था कि युद्ध में घर-बाहर संभालती थक चुकी औरतें थोड़ा सुस्ताएं. इस बात को 70 साल से ज्यादा हुए, लेकिन वहां हालात और खराब हैं. टोक्यो के फाइनेंशियल अखबार निकेई का सर्वे बताता है कि वैसे तो जापान की 48% औरतें दर्द से निढाल रहती हैं लेकिन काम से छुट्टी नहीं ले पातीं. वजह? पीरियड्स पर छुट्टी मांगती औरत या तो झूठी है, या नाकाबिल. या फिर कमजोर.
कल्पना करें, ऑफिस मीटिंग के दौरान कोई महिला सहकर्मी पीरियड पेन की बात कहते हुए उठ जाए!
अव्वल तो ऐसा होगा नहीं. और अगर हुआ तो जब वो ये कह रही होगी- दिल ही दिल में कुछ पुरुष मुस्कुरा रहे होंगे. कुछ चिड़चिड़ा रहे होंगे. तो कुछ पक्का होंगे कि यहां से निकलकर वो पार्लर-शॉपिंग या पार्टी करने वाली है. बहुतों को शायद ये मलाल हो कि काश उनके पास भी कोई ऐसा बहाना होता, जिसपर बॉस बिना आंखों में सीधा ताके हां कह देता.
मन-मसोसू दल में कुछ महिलाएं भी शामिल होंगी, जो बोलने वाली को बेशर्म या मुंहफट सोच रही होंगी. दर्द तो हमें भी होता है, लेकिन मजाल जो कभी जताया हो!
पीरियड्स पेन पिटा-पिटाया सबजेक्ट है. चलिए बाकी तकलीफों पर बात करते हैं. जैसे, हार्ट अटैक के वक्त होने वाला दर्द!
साल 2003 से अगले 10 सालों के भीतर इंग्लैंड और वेल्स में लगभग साढ़े हजार हजार महिलाओं की इसमें जान चली गई क्योंकि उनके पास बने लोगों को अंदाजा ही नहीं था कि महिलाओं को भी सीने में दर्द हो सकता है, या फिर उन्हें दिल का दौरा भी पड़ सकता है. ज्यादातर महिलाओं को घर पर ही गैस की दवा के साथ कुछ काम-धाम करने का नुस्खा थमा दिया गया.
द कन्वर्शेसन की रिपोर्ट के अनुसार, ये प्रिवेंटेबल मौतें थीं, मतलब अगर वक्त रहते इलाज मिलता, तो जान बच जाती.
डॉ एलिजाबेथ कॉमेन कैंसर सर्जरी में बड़ा नाम हैं. उन्होंने न्यूयॉर्क टाइम्स को दिए इंटरव्यू में एक किस्सा सुनाया था- मेरी एक मरीज मौत से कुछ घंटों की ही दूरी पर थी. एक-एक कर स्टाफ उसे विदा दे रहा था. मैं पहुंची तो लाड़ से उसने अपने गाल मुझसे सटा दिए. एकाध मिनट बाद वो संभलते हुए बोली- माफी चाहती हूं कि मैंने अपना पसीने से चिपचिपा चेहरा आपसे सटा दिया! आखिरी वक्त में भी माफी मांगती महिला मरीज पहली नहीं.
बकौल डॉ कॉमेन औरतें लगातार शर्मिंदा होती रहती हैं- अपने बीमार होने पर, बीमारी के खुलासे पर, दवाओं के खर्च पर, कमजोरी में घर या बाहर न संभाल पाने पर. यहां तक कि वक्त से पहले मरते हुए भी उन्हें ये बात सालती है कि वे अपनी जिम्मेदारी छोड़कर जा रही हैं.
इसी तजुर्बे के बाद डॉ कॉमेन ने एक किताब लिखी- ऑल इन हर हेड...इसमें उन्होंने बताया कि कैसे सदियों से महिलाओं की बीमारियों को वहम कहकर टाला जाता रहा. यहां तक कि अब भी दर्द में होने पर वे माफी मांगने लगती हैं.
कुछ हफ्तों पहले की बात है, एक जानने वाले ने सोशल मीडिया पर पीरियड्स में बेहाल होती लड़कियों पर लंबी पोस्ट लिखी. अंग्रेजी में लिखी पोस्ट की एक लाइन थी- 'दुनिया ने तुम्हारा दर्द समझने का ठेका नहीं लिया है. दर्द है तो घर बैठो. कमाने का काम हम पर छोड़ दो.' ट्रोल होने पर पोस्ट गायब हो गई, लेकिन केवल पोस्ट ही.
'दर्द है तो घर बैठो!'
कोई घर न बिठा दे इसलिए कितनी ही बच्चियां स्कूल के रास्ते में छेड़ी जाकर भी चुप रहती हैं. घर न बैठना पड़े इसलिए कितनी ही औरतें अनचाही छुअन सहती हैं. घर न बैठना पड़े इसलिए आधी दुनिया हर महीने ऐंठते पेट के साथ भी तनकर बैठने को मजबूर रहती है. या फिर सीने के दर्द में गैस की दवा खाकर बेमौत मर जाती है.