दिल्ली की गद्दी तक पहुंचने के लिए 10 साल पहले बीजेपी ने बनारस की धरती का इस्तेमाल किया था और पूरी तरह सफल भी रही. बीजेपी की ये कोशिश उस राजनीतिक परंपरा में फिट होने की रही कि दिल्ली का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर गुजरता है. वरना, गुजरात से तो मोरारजी देसाई भी प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचे थे.
नये तेवर वाली बीजेपी को नया कलेवर देने के मकसद से ही नरेंद्र मोदी ने गुजरात से निकल कर उत्तर प्रदेश का रुख किया. बनारस तो पहले से ही बीजेपी और हिंदुत्व की राजनीति का गढ़ रहा है, लेकिन अयोध्या वाली बात और थी. काशी और मथुरा का नाम तो वैसे भी हिंदुत्व की राजनीति के एजेंडे में अयोध्या के बाद ही आता है. अयोध्या आंदोलन के दौरान पुलिस सेवा से राजनीति में आये श्रीशचंद्र दीक्षित ने भी बतौर बीजेपी उम्मीदवार बनारस को ही चुनाव क्षेत्र बनाया था.
लेकिन 2014 में बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में बनारस पहुंचे नरेंद्र मोदी ने जो बयान दिया था, उसका अर्थ धीरे धीरे गहरा होने लगा है. अब उत्तर प्रदेश में अयोध्या राम मंदिर के लिए जाना जा रहा है, लेकिन वाराणसी की ब्रांडिंग प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चुनाव क्षेत्र के रूप में की जाने लगी है. मान कर चलिये कि 2024 में उत्तर भारत की राजनीति तो अयोध्या और काशी के इर्द-गिर्द ही घूमने वाली है - लेकिन मोदी ने उसमें एक ऐड-ऑन फीचर भी अलग से जोड़ दिया है.
जैसे बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को आगे कर बनारस से दिल्ली को साधने की कोशिश की थी, अब बनारस की धरती से ही दक्षिण भारत को साधने का प्रयास कर रही है. देखने को तो यही मिला है कि दक्षिण भारत में बीजेपी कर्नाटक से आगे नहीं बढ़ पा रही है - और अब तो कर्नाटक भी उसके हाथ से निकल कर कांग्रेस के खाते में पहुंच चुका है.
2019 में भी बीजेपी ने कांग्रेस के साथ साथ सभी विपक्षी दलों को राष्ट्रवाद के नाम पर आक्रामक तरीके से घेरा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चुनावी रैलियों में भी विपक्षी दलों के नेता निशाने पर हुआ करते थे. वो कहते कि जब ये कुछ बोलते हैं तो पाकिस्तान में हेडलाइन बनती है - कैंपेन का ये फ्रंट तो राष्ट्रवाद के एजेंडा का ही हिस्सा था.
बीजेपी के राष्ट्रवाद की उसी लाइन को बढ़ाते हुए प्रधानमंत्री मोदी 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' मुहिम के तहत काशी तमिल संगमम की व्याख्या कर रहे हैं. काशी तमिल संगमम् एक्सप्रेस का उद्घाटन भी उसी मुहिम का हिस्सा है. राहुल गांधी के कश्मीर से कन्याकुमारी तक की भारत जोड़ो यात्रा की तरह ही बीजेपी बनारस से कन्याकुमारी को जोड़ने का प्रयास कर रही है - जाहिर है निशाने पर कांग्रेस नेतृत्व के साथ साथ पूरा INDIA गुट ही है.
कश्मीर नहीं, काशी से कन्याकुमारी!
संसद के जरिये जम्मू-कश्मीर से जुड़ी धारा 370 तो पहले ही खत्म हो गई थी, अब तो सुप्रीम कोर्ट का फैसला भी आ गया है. अदालत के फैसले के बाद बीजेपी नेता अमित शाह के बाद अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी बयान आ गया है.
एक अखबार को दिये इंटरव्यू में प्रधानमंत्री मोदी ने कहा है, 'अब ब्रह्मांड की कोई भी ताकत आर्टिकल 370 की वापसी नहीं करा सकती है.' असल में अब तक कश्मीर को लेकर देश के भीतर और बाहर हर जगह राजनीति की एक वजह धारा 370 के तहत राज्य को मिली व्यवस्था ही थी, लेकिन अब वो बात नहीं रही. तभी तो अलग अलग तरीके से उसका असर भी देखने को मिल रहा है.
मौजूदा राजनीति में ऐसा लगता है कि कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत को जोड़ने की परंपरा अब पुरानी पड़ने लगी है. नई परंपरा काशी से कन्याकुमारी को जोड़ने की विकसित की जा रही है. ये नये मिजाज की भारत की राजनीति है, जिसमें हर कोई नफरत की राजनीति के खिलाफ अपने अपने तरीके से मोहब्बत की दुकान खोलने का प्रयास कर रहा है.
कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा के जरिये कन्याकुमारी से कश्मीर को फिर से जोड़ने की कोशिश की थी, क्योंकि वो नफरत की राजनीति के खिलाफ अपनी मुहिम चला रहे हैं. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कन्याकुमारी से काशी को जोड़ना शुरू कर दिया है - और माध्यम बन रही है 'काशी तमिल संगमम' एक्सप्रेस.
2024 के लोक सभा चुनाव के लिए बीजेपी के मिशन को आगे बढ़ाते हुए अपने चुनाव क्षेत्र वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कहते हैं,'काशी तमिल संगमम ऐसा अविरल प्रवाह है, जो एक भारत श्रेष्ठ भारत की भावना को लगातार मजबूत कर रहा है... यही प्रवाह है जो आज हमारे राष्ट्र की आत्मा को सींच रहा है.'
असल में ये देश में शुरू हुई उत्तर और दक्षिण की राजनीति पर बीजेपी का राजनीतिक बयान है. बीजेपी नेता अमित शाह ने हाल ही में कहा था कि लोक सभा चुनाव 2024 के बाद उत्तर और दक्षिण की राजनीति को लेकर चल रही बहस खत्म हो जाएगी - प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ताजा बयान में बीजेपी की रणनीति को समझा जा सकता है.
बीजेपी एक बार फिर विपक्ष को राष्ट्रवाद के मुद्दे पर घेरने का प्लान बना चुकी है. मुश्किल ये है कि बीजेपी को न्योता भी विपक्ष की तरह से ही मिला है. 2019 के चुनाव से पहले ये बहस पुलवामा के आतंकवादी हमले के बाद शुरू हुआ था, और इस बार विपक्षी गठबंधन INDIA के नेताओं के बयान से. 2021 के केरल विधानसभा चुनाव के दौरान इस बहस की नींव तो राहुल गांधी ने ही रखी थी, जिसे उनके नये नवेले मुख्यमंत्री ए. रेवंत रेड्डी ने बिहार के लोगों के डीएनए पर टिप्पणी करके और हवा दे दी है.
बीजेपी की इस राजनीति को थोड़ा ध्यान से समझें तो 'एक भारत श्रेष्ठ भारत' की मुहिम आगे बढ़ कर बीजेपी के राष्ट्रवाद 2.0 का रूप लेने जा रही है, और उत्तर-दक्षिण की इस राजनीति में विपक्ष घिरने लगा है.
नई संसद और सेंगोल के जिक्र के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समझाते हैं, 'जब उत्तर में आक्रांताओं द्वारा हमारी आस्था के केन्द्रों पर, काशी पर आक्रमण हो रहे थे, तब राजा पराक्रम पाण्डियन् ने तेनकाशी और शिवकाशी में ये कहकर मंदिरों का निर्माण कराया कि काशी को मिटाया नहीं जा सकता... आप दुनिया की कोई भी सभ्यता देख लीजिये... विविधता में आत्मीयता का ऐसा सहज और श्रेष्ठ स्वरूप आपको शायद ही कहीं मिलेगा! अभी हाल ही में G-20 समिट के दौरान भी दुनिया भारत की इस विविधता को देखकर चकित थी.'
वाराणसी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी एक साथ उत्तर और दक्षिण के लोगों को संबोधित करते हैं, 'वणक्कम काशी, वणक्कम तमिलनाडु'. आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की मदद से प्रधानमंत्री के भाषण शुरुआती तीन मिनट हिंदी और तमिल में एक साथ होता है.
वैसे भी प्रधानमंत्री के संबोधन में 'मित्रों' की जगह अब 'मेरे परिवार के लोगों' सुनने को मिलता है, और अपने तरीके से वो तमिलनाडु के लोगों को काशी आने का मतलब समझाते हैं. समझाते हैं कि ये महादेव के एक घर से दूसरे घर आने जैसा ही है - जैसे 'मदुरै मीनाक्षी के यहां से काशी विशालाक्षी के यहां आना.'
INDIA गुट को राष्ट्रवाद के जाल में ऐसे उलझा रही है बीजेपी
अमेठी की हार का गुस्सा राहुल गांधी के मुंह से केरल चुनाव के दौरान उत्तर और दक्षिण भारत के लोगों की राजनीतिक समझ समझाते हुए निकला था - और तभी से उत्तर और दक्षिण की राजनीतिक बहस ने जोर पकड़ लिया - हाल फिलहाल कांग्रेस और डीएमके नेताओं ने बहस की आग में घी डालने की कोशिश की है.
उत्तर और दक्षिण भारत की राजनीति में फर्क तो बहुत पहले से समझा जाता रहा है. स्वीकार्यता के हिसाब से देखें तो दक्षिण की राजनीति में हिंदी का विरोध तो पहले से ही देखने को मिलता रहा है, हाल ही में डीएमके नेता उदयनिधि स्टालिन के सनातन पर बयान के बाद उनके ही साथी नेता सेंथिलकुमार ने उत्तर भारत के लोगों को 'गोमूत्र' राज्य का निवासी बता डाला, हालांकि बाद में माफी भी मांगी, और संसद के रिकॉर्ड से उनका भाषण हटा भी दिया गया.
इस बहस को हवा मिली है, उत्तर भारत के तीन राज्यों में बीजेपी और तेलंगाना में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद. कांग्रेस के नेतृत्व वाले INDIA गुट के नेताओं को लगता है कि ये बहस उनके लिए फायदेमंद हो सकती है - सवाल ये है कि फायदा किसे हो सकता है?
निश्चित तौर पर अगर बीजेपी को किसी तरह का नुकसान होता है, तो कांग्रेस उसमें सीधे अपना फायदा समझ सकती है - लेकिन क्या कांग्रेस को दक्षिण में वास्तव में फायदा हो रहा है?
ये ठीक है कि कर्नाटक और तेलंगाना में कांग्रेस अपनी सरकार बना चुकी है, लेकिन ये कोई लोक सभा चुनाव में भी सभी सीटें जीतने की गारंटी तो है नहीं? अगर कर्नाटक में 2019 की तरह रिजल्ट आ गये तो. जैसे मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बन जाने के बाद बीजेपी ने ज्यादातर सीटें बटोर ली थी.
ये भी ठीक है कि कर्नाटक और तेलंगाना सहित दक्षिण भारत के राज्यों में बीजेपी की पोजीशन मध्य प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों जैसी नहीं है, लेकिन फर्ज कीजिये आने वाले चुनाव में बीजेपी के साथ बीआरएस आ जाये तो क्या होगा? बीआरएस नेता के. चंद्रशेखर राव और बीजेपी के बीच जिस तरह का राजनीतिक तालमेल महसूस किया गया है, और कांग्रेस ने भी तो दोनों में सांठगांठ का आरोप लगाया ही है - अगर कर्नाटक में येदियुरप्पा के बेटे को कमान सौंपने और तेलंगाना में बीजेपी नये प्रयोगों की बदौलत कुछ कर लेती है तो गठबंधन के हाथ तो कुछ भी लगने से रहा.
देखा जाये तो INDIA गुट का सबसे मजबूत फॉर्म तमिलनाडु में ही नजर आ रहा है, और ये कांग्रेस नेता राहुल गांधी और डीएमके नेता एमके स्टालिन के मजबूत रिश्तों की वजह से ही है. इस देश में अगर कोई क्षेत्रीय नेता राहुल गांधी की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी का सपोर्ट करता है, तो वो एमके स्टालिन ही हैं. कोई दूसरा उनकी तरह मजबूती से सपोर्ट नहीं करता.
लेकिन कांग्रेस-डीएमके के साथ का साइड इफेक्ट उत्तर भारत में कांग्रेस को झेलना पड़ सकता है - और अब बीजेपी तमिलनाडु में ही विपक्षी गठबंधन को टारगेट करने लगी है. एक तरफ डीएमके नेता उत्तर भारत के लोगों के लिए भला-बुरा कहने में कोई संकोच नहीं कर रहे हैं, और दूसरी तरफ प्रधानमंत्री तमिलनाडु के लोगों का दिल खोल कर स्वागत कर रहे हैं. बीजेपी तमिलनाडु के लोगों को भले ही अपनी तरफ पूरी तरह न खींच पाये, लेकिन विपक्षी गठबंधन को लेकर गफलत में तो डाल ही सकती है.