हाल ही में मुझे और राजदीप सरदेसाई को दिए एक इंटरव्यू में एनसीपी नेता शरद पवार ने कांग्रेस की तुलना उत्तर प्रदेश के एक ऐसे जमींदार से की जो अपना पुराना वैभव, शानो-शौकत लुटा चुका है, लेकिन अब भी उसके अकड़ और नजरिए में बदलाव नहीं आया है. इस बयान पर काफी चर्चा हुई. इस पर कांग्रेस के नेताओं के टूट पड़ने का अनुमान था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं.
कई कांग्रेसियों ने निजी तौर पर माना कि वो सही कह रहे हैं, लेकिन उनका कहना है कि उन्हें ये कहना नहीं चाहिए था. लेकिन कई ये जानना चाह रहे थे कि उन्होंने ऐसा क्यों कहा होगा? मैं यही जवाब देने की कोशिश करूंगा.
नवंबर 2019 में जब महाराष्ट्र में महाराष्ट्र विकास आघाडी का प्रयोग हो रहा था और 3 दिन के लिए अजित पवार-देवेंद्र फडणवीस की सरकार बनी थी, तब एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में शरद पवार ने तब के बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह को चुनौती देते हुए कहा था, 'मुझे देखना ही है की दिल्ली से अमित शाह कैसे हमारी सरकार नहीं बनने देते'. चुनौती सिर्फ अमित शाह को नही थी, बल्कि हाई कमान और केंद्रीय सत्ता को या यूं कहें कि सत्ता के केंद्रीकरण को थी. कांग्रेस और कांग्रेस के सिस्टम के साथ पवार का यही झगड़ा रहा है. इसी वजह से पार्टी से उन्हें दो बार बाहर निकलना पड़ा. दूसरी बार जब वो निकले तो कभी वापस ना जाने के लिए. लेकिन इसके बावजूद कांग्रेस के इस सिस्टमसे उनका कभी पाला छूटा नहीं, क्योंकि कांग्रेस से बाहर निकलने के बाद भी उनकी राजनीति कांग्रेस के साथ ही रही . कांग्रेस के इसी सिस्टम को वो अब भी चुनौती दे रहे हैं.
पवार ने हमसे करीब डेढ़ घंटे बात की. दिल्ली में कइयों को हमेशा लगता है कि वो बीजेपी के साथ कभी भी जा सकते हैं. हालांकि उनकी बातचीत से साफ दिखा कि ऐसा भ्रम बनाए रखने में उन्हें ज्यादा फायदा दिखता है बजाय इसके कि वो सीधे बीजेपी के साथ हाथ मिला लें. खैर बात कांग्रेस की करते हैं. पवार से यह बार-बार यह पूछा गया कि 2024 में विपक्ष के लोगों को साथ लाने में दिक्कत क्या है? पवार को लगता है कि सबसे बड़ा रोड़ा कांग्रेस और खासकर राहुल गांधी के करीबियों का जमीनी हकीकत से हटकर सोचना है. महाराष्ट्र में मविआ का प्रयोग इसलिए हो पाया क्योंकि कांग्रेस के स्थानीय विधायकों और नेताओं ने अपनी जमीनी हकीकत को समझते हुए हाईकमान पर दबाव बनाया कि भले कांग्रेस जूनियर पार्टनर बने, लेकिन सरकार बनना जरूरी है . पवार का मानना है की ये सूझबूझ दिल्ली में खो जाती है. 2024 में सबके साथ आने में बात यहीं रुक जाती है कि नेता कौन होगा?
समस्या यह है कि कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होने के बावजूद राष्ट्रीय नहीं रह गई है. उलटे जहां कांग्रेस का मुकाबला बीजेपी से होता है वहा भी कांग्रेस जी-जान से उससे लड़ नही पा रही. जहां जीत मिल भी जाती है वहां उसे बनाए नहीं रख पा रही, और अगर कहीं सत्ता टिकती है तो अंदरुनी कलह की वजह से हाथ से चली जाती है. गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान कर्नाटक और असम जैसे बड़े राज्यों और हिमाचल, गोवा जैसे छोटे राज्यों में कांग्रेस और बीजेपी की सीधी लड़ाई है. बीजेपी का लोकसभा में सबसे बेहतर प्रदर्शन भी इन्हीं राज्यों में है. विधानसभा में इसमें से कुछ जगहों पर कांग्रेस जीती, लेकिन सत्ता को बचाने में या जिसे निर्णायक कहते है, ऐसी जीत नही ला पाई . इतना ही नहीं, वह राजनीतिक समझदारी दिखाकर महाराष्ट्र जैसा प्रयोग भी नही दिखा पाई है .
वहीं जगन मोहन रेड्डी, चंद्रशेखर राव या ममता बनर्जी ज्यादा बेहतर और कड़ी लड़ाई लड़े और जीते भी. इसमें दो राय नहीं कि इन सभी का प्रभाव फिलहाल उनके राज्य के बाहर नहीं है, लेकिन ये सारे नेता भी पुराने कांग्रेसी हैं और कांग्रेस से बाहर जा कर भी न सिर्फ टिके हुए हैं, बल्कि बेहतर टक्कर भी दे रहे हैं. केरल जैसे राज्य में कांग्रेस की लेफ्ट के साथ लड़ाई है वहां भी कांग्रेस की नही चल पाई. तमाम मतभेद होने के बावजुद लेफ्ट 2004 में कांग्रेस के साथ आई थी और यूपीए सरकार बनाने में मददगार साबित हुई थी. कुछ समय तक ममता भी इस सरकार में शामिल रहीं, लेकिन पवार का मानना है कि ये अब नहीं होगा.
तब कांग्रेस का नेतृत्व इसलिए माना गया क्योंकि कांग्रेस के पास 140 सीटें थीं, अब स्थिति बदल गई है. कांग्रेस खुद 50 का आंकड़ा मुश्किल से पार कर पा रही है और आज की हालत देखें तो भी 100 तक पहुंचना उसके लिए आसान नहीं है. जब आंकड़ों का गणित नही बैठ रहा, तब 2024 के लिए कांग्रेस के नेतृत्व में साथ आना भी आसान नही होगा. पवार और उनके जैसे लोग (उनकी भाषा में कहें तो नेहरू, गांधी की विचारधारा के लोग) विकल्प देना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस अब भी अपनी पुरानी अकड़ को छोड़ नहीं रही और समस्या यहीं शुरू होती है. यूपी की जमींदारी वाला बयान इसी वजह से आया है .
जी-23 वाली चुनौती भी कांग्रेस में बदलाव नही ला पाई है. राहुल गांधी के नेतृत्व में दो बार चुनाव हारने के बावजूद पार्टी विकल्प ढूंढ़ नहीं पा रही है. पवार के इंटरव्यू में असली बात यहीं आकर रुकती है. पवार ने कहा कि बीजेपी के हर सांसद को यह पता है कि वो मोदी के नाम पर चुनाव जीतते हैं. एक जमाना था कि कांग्रेस के नेता गांधी ( इंदिरा) के नाम पर संसदीय चुनाव जीतते थे, 1989 तक ये सिलसिला चलता रहा. अब कांग्रेस का कैंडिडेट गांधी नाम पर नही जीत रहा और जीत दिलवाने के लिए जो संगठन चाहिए वो भी खत्म हो रहा है . लेकिन इसके बावजूद तेवर वही हैं. असली समस्या यही है. शायद इसलिए पवार बार-बार कह रहे हैं कि गांधी-नेहरू की विचारों पर चलने वाले लोगों को साथ आना चाहिए. वो जो नही कह रहे वह यह बात है कि इस साथ आने में राहुल गांधी कहां होंगे? ऐसा लग रहा है कि इसका जवाब वो कांग्रेस से चाहते हैं.