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मोदी-राहुल चाहते तो NEET पर भी बात होती, हिंदू–मुस्लिम का चुनावी मौसम तो आने वाला है

सदस्यों के शपथग्रहण और स्पीकर चुनाव तक तो ठीक था, लेकिन उसके बाद संसद में जो कुछ हुआ, क्या विशेष सत्र बुलाने का वही मकसद था? क्या देश के लिए जरूरी मुद्दों पर बात नहीं हो सकती थी? चुनावों में तो राजनीतिक दुश्मनी निभाने का भरपूर मौका मिलता ही है.

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संसद में NEET और मणिपुर का जिक्र तो हुआ, लेकिन राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी अलग ही भिड़े रहे
संसद में NEET और मणिपुर का जिक्र तो हुआ, लेकिन राहुल गांधी और नरेंद्र मोदी अलग ही भिड़े रहे

संसदीय राजनीति और चुनावी राजनीति में बहुत बड़ा फर्क होता है. सड़कों पर जो तू-तू मैं-मैं होती है, संसद में वैसी बहसों की अपेक्षा बिलकुल नहीं होती, लेकिन नये नवेले नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी और लगातार तीसरी बार प्रधानमंत्री बने नरेंद्र मोदी दोनो ही के भाषणों से ऐसा बिलकुल नहीं लगा.

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सदस्यों का शपथग्रहण और स्पीकर का चुनाव हुआ, और बहाने से बात बात पर शक्ति और विरोध प्रदर्शन भी होता रहा. राजनीति में ये सब तो चलता है, लेकिन देश और लोगों से जुड़े गंभीर मुद्दों पर बात हो, ये भी तो जरूरी है. 

लोकसभा चुनाव 2024 के दौरान राजनीतिक विरोधी एक दूसरे को 'कहीं भी कभी भी' बहस के लिए ललकारते रहते हैं, लेकिन कभी बहस होती नहीं. चंडीगढ़ में कांग्रेस और AAP गठबंधन के उम्मीदवार मनीष तिवारी और बीएसपी प्रत्याशी रितु सिंह के बीच हुई बहस तो राजनीतिक अपवादों की सूची में ही दर्ज की जाएगी. 

चुनावी बातें तो नतीजे आने के साथ ही खत्म हो जानी चाहिये, लेकिन विपक्षी इंडिया गठबंधन के सदस्य संविधान की कॉपी लेकर लोकसभा पहुंचे, जो बीजेपी को निशाना बनाने का एक और प्रयास था. सदस्यों के शपथग्रहण के समय जय संविधान बोलने पर भी हल्का-फुल्का वाद-विवाद हुआ, जाहिर है सत्ता पक्ष भी इंतजार में बैठा था. 

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ये संयोग ही था देश में लागू हुई इमरजेंसी की बरसी भी उसी दौरान आ गई, और मौका मिलते ही सत्ता पक्ष ने इमरजेंसी के बहाने कांग्रेस नेतृत्व को घेरने की कोशिश की. चुने जाने के तत्काल बाद ही स्पीकर ने इमरजेंसी की निंदा की और एनडीए के सदस्यों को दो मिनट के लिए खड़े होकर मौन रहने का भी मौका मुहैया करा दिया. 

बेशक विपक्ष और सत्ता पक्ष में टकराव की नींव पड़ चुकी थी, लेकिन संसद सत्र से ऐन पहले NEET-UG पेपर लीक को लेकर मचे बवाल पर क्या चर्चा नहीं हो सकती थी?

सदन में किसने किसको उकसाया?

अगर लोकसभा में इमरजेंसी की निंदा और एनडीए के सदस्यों ने खड़े होकर मौन धारण नहीं किया होता, तो क्या राहुल गांधी हिंदू-मुस्लिम वाली चुनावी बातें नहीं करते?

और अगर राहुल गांधी विपक्षी सांसदों के साथ हाथों में संविधान की कॉपी लिये संसद में दाखिल नहीं हुए होते, तो भी क्या सत्ता पक्ष इमरजेंसी जैसी कांग्रेस की दुखती रग पर हमला बोलता क्या?

सदन में इमरजेंसी की निंदा को लेकर नेता प्रतिपक्ष बने राहुल गांधी ने स्पीकर ओम बिरला से मुलाकात की थी, और बताया गया कि कांग्रेस नेता ने बातचीत में कहा था कि इमरजेंसी के जिक्र से बचा जा सकता था. 

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ये भी अच्छा तरीका था, शालीनता से अपनी बात कहने का. समझदारी से विरोध जताने का - बात आई गई हो जाती, लेकिन राहुल गांधी रुके नहीं. अगले ही दिन राहुल गांधी ने स्पीकर ओम बिरला को निशाने पर ले लिया. कहने लगे कि वो उनके साथ तो सीधे खड़े होकर हाथ मिलाते हैं, लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से मुखातिब होने से पहले ही झुक जाते, फिर हाथ मिलाते हैं - क्या ऐसी बातों से नहीं बचा जा सकता था?

फिर वो चुनावी रैली वाले अंदाज में ही हिंदुत्व का जिक्र छेड़ दिये - और नफरत-हिंसा, नफरत-हिंसा, नफरत-हिंसा बोल कर सत्ताधारी बीजेपी और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश करने लगे. 

अव्वल तो हिंदुत्व पर राहुल गांधी पुराने तरीके के बजाय नये अंदाज में अपनी बात रखी थी, लेकिन जब प्रधानमंत्री ने विपक्ष के नेता के बयान को गंभीर बताते हुए आपत्ति जताई तो वो पर्सनल हो गये. 

कहने लगे, नरेंद्र मोदी हिंदू समाज नहीं हैं. बीजेपी हिंदू समाज नहीं है. आरएसएस हिंदू समाज नहीं है. अब कुदरत के नियम के मुताबिक क्रिया की प्रतिक्रिया तो होनी ही थी, हुई भी - लेकिन क्या दोनों पक्ष ऐसी चीजों से थोड़ा परहेज नहीं कर सकते थे?

और राष्ट्रपति के अभिभाषण पर जब धन्यवाद प्रस्ताव की बारी आई तो प्रधानमंत्री मोदी भी बिलकुल चुनावी रैली वाले अंदाज में ही पेश आये. पहले तो 2014 से पहले की बातें और दस साल की अपनी दो सरकारों की उपलब्धियां वैसे ही गिनाते रहे, जैसे लोकसभा चुनावों के दौरान उनका भाषण सुनने को मिलता था, लेकिन बाद में राहुल गांधी और कांग्रेस पर फोकस हो गये. 

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पहले तो मोदी के मुंह से कटाक्ष इतना ही सुना गया था कि नेता प्रतिपक्ष को गंभीरता से लिया जाना चाहिये, लेकिन बाद में राहुल गांधी को 'बालक बुद्धि' बता डाला. अब तक बीजेपी नेता राहुल गांधी को 'पप्पू' कह कर संबोधित करते थे, मोदी ने अब एक नया नाम देकर उनको अलग ही पॉलिटिकल लाइन दे दी है - तब से सोशल मीडिया पर ये शब्द छाया हुआ है. 

NEET और मणिपुर का जिक्र तो हुआ, लेकिन...

इमरजेंसी को लेकर राहुल गांधी को घेरने की सत्ता पक्ष की कोशिश के बाद कांग्रेस ने राष्ट्रपति के अभिभाषण में मणिपुर का जिक्र न होने पर भी सवाल उठाया. राहुल गांधी ने भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को पत्र लिख कर संसद में NEET पर चर्चा कराने की मांग की थी.

संसद में जिक्र तो NEET का भी हुआ, और मणिपुर का भी लेकिन चर्चा एकतरफा रह गई. कोई बहस नहीं हो सकी - क्योंकि लोकसभा में प्रधानमंत्री मोदी के भाषण के दौरान लगातार नारेबाजी करने वाले विपक्ष ने राज्यसभा से वॉकआउट कर दिया था. 

लोकसभा की तुलना में प्रधानमंत्री मोदी राज्यसभा में ज्यादा सहज नजर आये, और उनके भाषण में पुराना पैनापन लौटते भी देखने को मिला. यूपीए सरकार के दौरान बनी NAC का नाम लेकर कांग्रेस पर संविधान से खिलवाड़ करने का आरोप लगाने के साथ ही मोदी ने इस बात पर भी सवाल उठाया कि कांग्रेस की शिकायत पर AAP पर एक्शन होता है, तो भी उनका नाम घसीट लिया जाता है.

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और फिर बाहर जा चुके विपक्ष को खरी खोटी सुनाने लगे. मोदी बोले, पेपर लीक को लेकर हम चाहते थे... ऐसे संवेदनशील मुद्दे पर राजनीति न हो, लेकिन विपक्ष को इसकी आदत है... मैं भारत के युवाओं को आश्वस्त करता हूं कि नौजवानों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वालों को सख्त सजा मिले, इसके लिए एक्शन लिए जा रहे हैं.

मणिपुर पर चुप्पी तोड़ते हुए प्रधानमंत्री मोदी ने कहा कि राज्य में हालात सामान्य बनाने के लिए सरकार प्रयासरत है... मणिपुर में हिंसा की घटनाएं लगातार कम हो रही हैं... मणिपुर में भी स्कूल-कॉलेज संस्थान खुले हुए हैं... जैसे देश में परीक्षाएं हुईं, वहां भी परीक्षाएं हुई हैं. केंद्र सरकार सभी से बातचीत करके सौहार्द का रास्ता खोलने की कोशिश कर रही है. 

मोदी ने कहा, एक समय आएगा जब मणिपुर ही रिजेक्ट करेगा उन लोगों को... जो लोग मणिपुर को, मणिपुर के इतिहास को जानते हैं, वो जानते हैं कि वहां संघर्ष का लंबा इतिहास रहा है. कांग्रेस के लोग ये ना भूलें कि इन्हीं हालात के कारण इस छोटे से राज्य में 10 बार राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ा है... ये हमारे कार्यकाल में नहीं हुआ है, कुछ तो वजह होगी. 1993 में इसी तरह हिंसा का दौर चला था. 

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बाकी बातें अपनी जगह हैं, फिर भी मुद्दा ये नहीं है कि उकसाने की शुरुआत किसने की, और किसने प्रतिक्रिया जताई - बल्कि, सवाल ये है कि संसद में ऐसी बातों की जरूरत ही क्या थी? 

अगर लोकसभा चुनावों में ये शौक पूरा नहीं हो पाया था, तो विधानसभा चुनाव कौन से ज्यादा दूर हैं - कम से कम संसद को तो बख्श दिये होते. 

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