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लालू यादव तो सिर्फ बदनाम हुए, नीतीश कुमार ने तो 'सुशासन' की आड़ में रसातल छू लिया

मीडिया के एक तबके और इंटेलेक्चुअल्स के बीच लालू यादव को उनके देसी अंदाज और चुटीली शैली में कुछ भी बोल देने के चलते नीतीश कुमार की तुलना में हमेशा कमतर आंका जाता रहा है. यही कारण रहा कि कई बार नीतीश को पीएम मटेरियल कहा गया जबकि लालू को कभी इसके लायक नहीं माना गया.

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बिहार के पूर्व चीफ मिनिस्टर लालू प्रसाद यादव और वर्तमान सीएम नीतीश कुमार
बिहार के पूर्व चीफ मिनिस्टर लालू प्रसाद यादव और वर्तमान सीएम नीतीश कुमार

कहावत कही जाती है 'बद अच्‍छा, बदनाम बुरा'. ऐसा ही कुछ लालू यादव के मामले में रहा है. वे अपने मजाकिया अंदाज की वजह से कभी सीरियसली नहीं लिए गए, जबकि नीतीश कुमार ने 'सुशासन बाबू' की छवि की आड़ में अपने जुबानी हल्‍केपन को छुपा लिया. मंगलवार को बिहार विधानसभा में सीएम नीतीश कुमार ने जनसंख्या नियंत्रण में बिहार की उपलब्धियों को बताते हुए पढ़ी लिखी लड़कियों की तारीफ में जो शब्द इस्तेमाल किए थे वो हल्केपन की इंतेहां थीं. संसद -विधानसभा के अंदर नेताओं का मर्यादित आचरण ही लोकतंत्र का गहना होता है जिसे नीतीश कुमार ने पिछले कुछ सालों में उतार फेंका है. इस टिप्‍पणी को पूरा पढ़ने से पहले जान लें कि यह लालू यादव और नीतीश कुमार की सरकारों के दौरान हुए काम-काज की अच्‍छाई-बुराई का विश्‍लेषण नहीं है. यह सिर्फ और सिर्फ इन दोनों नेताओं के भाषायी संतुलन का मूल्‍यांकन है...

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नीतीश के दशकों पुराने साथी और उनके गुरुभाई लालू यादव की अकसर उनसे तुलना होती रही है. मीडिया के एक तबके और इंटेलेक्चुअल्स के बीच लालू यादव को उनके देसी अंदाज और चुटीली शैली में कुछ भी बोल देने के चलते नीतीश कुमार की तुलना में हमेशा कमतर आंका जाता रहा है. यही कारण रहा कि कई बार नीतीश को पीएम मटेरियल कहा गया जबकि लालू को कभी इसके लायक नहीं माना गया. पर नीतीश कुमार ने पिछले दिनों कई मौकों पर अपना जो रूप दिखाया है उससे अब लोगों के आंख के सामने से पर्दा हट गया है. आज लोकनायक जयप्रकाश नारायण जिंदा होते तो उन्हें नीतीश के मुकाबले लालू यादव पर ही फख्र होता. लालू यादव ने भाषाई ठेठ अंदाज भले ही अपनाया पर कठिन से कठिन मौकों पर भी कभी गरिमा को नहीं खोया. 

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नीतीश कुमार की भाषाई फूहड़ता

नीतीश कुमार को बिहार का सात बार सीएम रहने का मौका मिला है. उन्होंने महिला सशक्तिकरण के लिए कई काम भी किए हैं. अपनी सरल और सौम्य इमेज के चलते बिहार के मध्यमार्गियों के हमेशा पसंदीदा बने रहे. पर अपनी सौम्यता के पीछे इधर कुछ सालों से उन्होंने जो भाषाई फूहड़ता का परिचय दिया है वो भारतीय राजनीति के लिए बेहद निराशाजनक मिसाल बन गया है. बिहार विधान भवन में जनसंख्या के सवाल पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जिस भाव भंगिमा के साथ लड़के-लड़की के सेक्स को बताया वो इतना असंसदीय है कि जिसे यहां लिखना भी न्यायोचित नहीं लग रहा है.पर यह केवल अकेली घटना नहीं है. 

इसी साल मार्च महीने में विधानसभा में नीतीश कुमार ने एक बार पुरुषों के सेक्स के बारे में बात करते हुए कहा था कि कितनो मेहतन करिएगा आदमी तो गड़बड़ करता ही है. हम लोग तो देखे हैं भाई , जब हम एमपी थे तब की बात है , सुबह सुबह एक आदमी जनवरे के साथ कर रहा था. ये बताते हुए वे भाव भंगिमा के साथ एक्शन भी उसी तरह दिखा रहे थे.

हाल ही में महागठबंधन की सरकार में मंत्री अशोक चौधरी के पिता स्व. महावीर चौधरी की 95वीं जयंती पर महावीर चौधरी स्मृति संस्थान द्वारा आयोजित भजन संध्या में भी मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हंसी के पात्र बन गए थे. नीतीश कुमार ने शोक के इस कार्यक्रम में जो फूल अशोक चौधरी के पिता स्व. महावीर चौधरी की तस्वीर पर चढ़ाने के लिए रखे हुए थे, उसे उठाकर अशोक चौधरी पर पुष्प वर्षा कर दी. इसी तरह कुछ दिनों पहले चिराग पासवान को टार्गेट करने के चक्कर में राम विलास पासवान की दूसरी शादी तक पहुंच गए.
बाद में चिराग ने कहा कि नीतीश कुमार ने मेरे पिता पर टिप्पणी कर उनके व्यक्तिगत जिंदगी को मजाक बना डाला. चिराग ने कहा था कि उनके निधन के बाद ऐसे निचले स्तर की बयानबाजी किसी भी मुख्यमंत्री को शोभा नहीं देता.

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चिराग क्या तेजस्वी को भी 2020 के चुनाव प्रचार के समय सुशासन बाबू बोले जाने वाले सीएम नीतीश कुमार ने कहा था कि अगर पढ़ना चाहते हो तो अपने बाप से पूछो, अपनी माता से पूछो कि कहीं कोई स्कूल था, कहीं कोई स्कूल बन रहा था. बाद मे तेजस्वी ने बड़ी सौम्यता से अपने चाचा के तू-तड़ाक जवाब दिया था. 

लालू का अंदाज हमेशा देसी रहा, अपमानजनक नहीं

लालू यादव ने एक बार कहा था कि बिहार की सड़कों को हेमा मालिनी के गाल की तरह चिकन बना देंगे. कहा जाता है कि यह बात उन्होंने तब की थी जब विरोधियों ने बिहार की सड़कों की तुलना ओम पुरी के गाल से की थी. सही क्या था ये विवादित हो सकता है पर जब उनके बिहार की सड़कों को हेमामालिनी की गाल जैसा बनाने की बात हेमा भी नाराज नहीं हुईं थीं. क्योंकि कहने का अंदाज बता देता है कि कहने वाले की मंशा क्या है.
 
लालू यादव की देसी स्टाइल का फैन पूरा बॉलीवुड रहा है. लालू इस बात को कहते भी रहे हैं कि उनकी वजह से बॉलीवुड में कितनों की रोजी रोटी चलती है. यह भी सही भी है. कितनी फिल्मों में उनके नाम , चरित्र उनके स्टाइल का दुरुपयोग किया गया. कितनी फिल्मों को खलनायक को लालू यादव की शक्ल सूरत दी गई. उनकी स्टाइल में बात करते हुए कितने खलनायक और कामेडियन ने कॉपी किया.पर लालू यादव ने कभी भाषाई लिमिट को नहीं क्रॉस  किया. 

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लालू हमेशा कहते रहे है कि जब तक समोसे में आलू रहेगा, तब तक बिहार में लालू रहेगा. लालू अपने मसखरेपन वाले अंदाज के चलते उपहास में भी महफिल लूट लिया करते रहे हैं. रेलवे में बढ़ती चोरी की घटनाओं पर रेल मंत्री रहते हुए लालू ने कहा था, 'यह तो होते रहता है. रेल का दायित्व भगवान विश्वकर्मा पर है. मैं उनका काम संभालने के लिए विवश नहीं हूं.'रेल मंत्री रहते लालू का यह बयान भी चर्चा में रहा था, ‘अगर आप गाय को पूरी तरह नहीं दुहेंगे, तो वह बीमार पड़ जायेगी.’

लालू को मीडिया मैनेजमेंट की परवाह नहीं रही, नीतीश की नजरें मीडिया पर ही टिकीं

लालू यादव ने प्रेस को लेकर या अपनी इमेज बिल्डिंग को लेकर कभी सजग नहीं रहे इसके उलट नीतीश कुमार मीडिया मैनेजमेंट के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार रहे. दोनों के कार्यकाल इस बात की गवाही देते हैं. नीतीश सरकार का एक दौर था जब उन्हें पत्रकारों के बीच ए़डिटर इन चीफ बोला जाना लगा था.क्योंकि अखबारों में क्या छपा है या क्या छप रहा है पर उनकी सीधी नजर होती थी. 2010 की बात है कि विरोध में खबर छपने के चलते प्रदेश के नंबर वन हिंदी दैनिक का विज्ञापन रोक लिया गया था. 2016 में कोलकाता के एक प्रसिद्ध इंग्लिश डेली को अपना पटना कार्यालय बंद करना पड़ा था.2013 में प्रेस काउन्सिल ओफ़ इंडिया जैसी प्रतिष्ठित संस्था अपने रिपोर्ट में बिहार में मीडिया पर सरकार के बढ़ते दवाव का ज़िक्र करती है. 

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यही नहीं नीतीश कुमार ने अपनी इमेज मेकिंग के लिए बिहार सरकार का विज्ञापन बजट पंद्रह सालों के कार्यकाल के दौरान करीब 32 गुना से भी अधिक बढ़ा दिया. लालू यादव को अपनी इमेज की कितनी चिंता थी वह उनके एक कार्यकाल के बिहार सरकार के विज्ञापन बजट को देखकर लगाया जा सकता है.साल 1999-00 में बिहार सरकार का विज्ञापन बजट 4 करोड़ 97 लाख 62 हज़ार 860 रुपए था जो अगले पांच सालों के दौरान 2003-04 में घटकर 4 करोड़ 12 लाख 49 हज़ार 579 हो गया. पर 2005 के अंत में सत्ता संभालने वाले नीतीश सरकार का साल 2008-09 में विज्ञापन पर कुल खर्च 25 करोड़ 25 लाख 23 हज़ार 312 हो गया था.

चलते-चलते...

नीतीश कुमार के भाषायी असंतुलन का घड़ा भर गया है. वे कोई आम नेता नहीं हैं. बिहार जैसे महत्‍वपूर्ण राज्‍य के मुख्‍यमंत्री हैं. पत्रकारवार्ताओं में गंभीर सवालों को हंसी में उड़ा देना उनका शगल रहा है. लेकिन, वे जिस भाव भंगिना के साथ सेक्‍स को विधानसभा में घसीट रहे हैं, वह सिर्फ और सिर्फ वल्‍गर है. किसी यौन कुंठा से भरे व्‍यक्ति की विकृति वाला. नीतीश की पार्टी और उनके राजनीतिक स‍हयोगी बचाव कर रहे हैं. नीतीश कुमार की उपलब्धियों को गिना रहे हैं. यह सब सही है. नीतीश ने जो अच्‍छा काम किया है, उसका पूरा क्रेडिट जाता है उन्‍हें. लालू से उनकी तुलना सिर्फ भाषायी संतुलन और उसके कारण बनने वाली छवि को लेकर है. लालू के जंगल राज का कोई जस्टिफिकेशन नहीं हो सकता. लेकिन, सिर्फ भाषा की वजह से आज नीतीश ने अपनी सारी राजनीतिक कमाई खो दी. और लालू यादव की यादें गनीमत लग रही हैं.

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