
सियासत तेरे रंग हजार... बिहार में सियासत ने फिर से रंग बदल लिया है. कल तक जो एकदूसरे के धुर विरोधी थे, वे आज दोस्त बन गए हैं. नेता सदन नीतीश कुमार और विधानसभा में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव अब साथ-साथ आ चुके हैं. जो तेजस्वी यादव सदन से लेकर सड़क तक, नीतीश कुमार को घेरने का कोई मौका नहीं चूक रहे थे, अब उन्हीं नीतीश कुमार की सरकार में डिप्टी सीएम हैं और सरकार के कदमों का बचाव करने की भूमिका में नजर आएंगे. वहीं, चंद रोज पहले तक नीतीश सरकार में सहयोगी रही भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) के विधायक अब विपक्षी दल की भूमिका में होंगे और उन्हीं नीतीश को घेरते नजर आएंगे जिनके साथ इतने लंबे समय तक बिहार में सरकार चलाई है.
सियासत में कोई किसी का स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता. उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव और मायावती का साथ आना हो या अब बिहार में नीतीश कुमार और तेजस्वी यादव का. बिहार में इस नए गठबंधन को कोई अवसरवाद बता रहा है तो कोई नीतीश कुमार की सत्ता लोलुपता. नीतीश कुमार को कोई पलटू राम कह रहा है तो कोई उनके गठबंधन धर्म निभा पाने की क्षमता और दोस्त के खिलाफ चले जाने और गैरों से गलबहियां कर लेने को लेकर आरोप की बरसात कर रहा है. बिहार के सियासी बदलाव से बदले हालात में दो धड़े नजर आ रहे हैं- एक धड़ा नीतीश के कदम की तारीफ कर रहा है तो दूसरा धड़ा विरोध. सबके अपने-अपने तर्क हैं, अपनी-अपनी बातें.
नीतीश की दोस्ती पर भी सवाल उठ रहे हैं. नीतीश कुमार के सियासी सफर पर नजर डालें तो ये निकलकर भी आता है कि वजह चाहे जो भी हो, वे अपने सियासी दोस्त बदलते रहे हैं. लेकिन साथ ही एक खास बात और है. आप इसे नीतीश कुमार की खूबी कहें या कमजोरी, उन्होंने दोस्ती के बाद विरोधी बनने के बावजूद फिर से उसी नेता या पार्टी के साथ आने में भी कभी गुरेज नहीं करते. लोहिया की समाजवादी युवजन सभा के जरिये साल 1971 में सार्वजनिक जीवन का आगाज करने वाले नीतीश के सियासी सफर में कई ऐसे मौके आए, जब वे अपनों के ही खिलाफ खड़े हुए तो विरोधियों के साथ भी.
ऐसा हम नहीं, अतीत कह रहा है. नीतीश कुमार भी जयप्रकाश आंदोलन की संपूर्ण क्रांति से निकले नेताओं में गिने जाते हैं. बाद में जनता दल से जुड़े. साल 1985 में नीतीश कुमार पहली बार बिहार विधानसभा के सदस्य निर्वाचित हुए. 1990 के दशक में सामाजिक न्याय की अवधारणा को लेकर राजनीति करने वाले लालू प्रसाद यादव और विधायी जीवन के नवप्रवेशी नीतीश कुमार, अति पिछड़ा वर्ग से आने वाले दो नेताओं की दोस्ती की बिहार में मिसाल दी जाने लगी. कहा तो ये भी जाता है कि लालू यादव ने जनता दल के विपक्ष में रहते समय नीतीश कुमार को विधानसभा में विपक्ष का नेता बनवाया और उन्हें पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव पद तक पहुंचने में भी पूरी मदद की.
दोस्त लालू के धुर विरोधी बन गए नीतीश कुमार
समय ने करवट ली और तस्वीर बदल गई. बिहार में काफी मजबूत हो चुके जनता दल के दो स्तंभ लालू यादव और नीतीश कुमार एक-दूसरे के धुर विरोधी बन गए. नीतीश कुमार ने लालू यादव से मतभेदों के बाद 1994 में जनता दल से किनारा कर लिया और जॉर्ज फर्नांडिस के साथ समता पार्टी बना ली. इसके बाद शुरू हो गया बिहार में लालू यादव बनाम नीतीश कुमार की सियासत का दौर. कभी जिनकी दोस्ती की मिसाल दी जाती थी, वे अब एक-दूसरे के विरोध की सियासत कर रहे थे. बाद में लालू यादव ने भी जनता दल से अलग होकर राष्ट्रीय जनता दल का गठन कर लिया और जनता दल अब शरद यादव के भरोसे बच गई.
लालू यादव बिहार में जातीय अस्मिता को धार देकर नीतीश कुमार, शरद यादव और अन्य नेताओं को पछाड़ते हुए अन्य पिछड़ा वर्ग के सर्वमान्य नेता बन चुके थे. लालू ने सियासत के समीकरण इस तरह से सेट कर लिए थे कि इस सदी की शुरुआत तक उनकी पार्टी राष्ट्रीय जनता दल को अजेय समझा जाने लगा था. दूसरी तरफ, नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस की समता पार्टी 1996 में बिहार में कमजोर मानी जाने वाली बीजेपी के साथ हो ली. साल 2000 के चुनाव में लालू यादव की आरजेडी के नेतृत्व वाला गठबंधन बहुमत के आंकड़े से थोड़ा सा पीछे रह गया और नीतीश कुमार पहली बार सात दिन के सीएम बने.
बिहार में नीतीश युग की शुरुआत
केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार समता पार्टी के साथ ही जनता दल भी गठबंधन में थी. बिहार में आरजेडी के दबदबे को देखते हुए नीतीश कुमार, जॉर्ज फर्नांडिस और शरद यादव, तीनों नेताओं को शायद ये समझ आ गया था कि अलग-अलग चुनाव लड़कर बिहार में लालू सरकार को उखाड़ फेंकना संभव नहीं. नीतीश कुमार और जॉर्ज फर्नांडिस ने साल 2003 में समता पार्टी का शरद यादव के नेतृत्व वाले जनता दल में विलय कर दिया और इस तरह से जनता दल यूनाइटेड अस्तित्व में आई. इस बीच बिहार का विभाजन हो चुका था और झारखंड का गठन भी. इन नेताओं ने जैसा सोचा था, वैसा ही हुआ भी. साल 2005 के चुनाव में जेडीयू ने आरजेडी को सत्ता से उखाड़ फेंका और इसके बाद बिहार की सियासत में नीतीश युग की शुरुआत हो गई.
सत्ता से टकराने चले, शीर्ष पर चिपक गए
"आओ कृषक, श्रमिक, नागरिक, इंकलाब का नारा दो.
कविजन, शिक्षक , बुद्धिजीवियों अनुभव भरा सहारा दो.
फ़िर देखें हम सत्ता कितनी बर्बर है, बौराई है.
तिलक लगाने तुम्हे जवानों क्रांति द्वार पर आई है."
- राम गोपाल दीक्षित
जयप्रकाश नारायण की संपूर्ण क्रांति में सत्ता से टकराने चले नीतीश कुमार ने बिहार की सत्ता के शीर्ष पर पहुंचने के बाद इस गीत की इन पंक्तियों को ही अपनी सियासत का मुख्य आधार बना लिया. नीतीश कुमार ने लालू यादव के जातिगत समीकरण ध्वस्त कर दिए. अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित को अति पिछड़ा और महादलित में बांटकर एक धड़े को अपने पाले में ला खड़ा किया. कानून व्यवस्था को लेकर नीतीश सख्त हुए तो पुलिस ने अपराधियों को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया. अपराध की घटनाएं कम हुईं तो बुद्धिजीवियों ने नीतीश को अनुभव भरा सहारा भी दिया और वे अपनी 'सुशासन बाबू' की छवि गढ़ने में भी सफल रहे. इसके बाद जो हुआ, वह आज पूरे देश के सामने है. नीतीश कुमार ने बीच-बीच में गठबंधन सहयोगी बदले लेकिन सत्ता के शीर्ष पर ऐसे चिपके कि वह जोड़ अटूट सा बन गया है.
दोस्ती तोड़ेंगे पर साथ नहीं छोड़ेंगे
नीतीश कुमार के सियासी सफर में दोस्तों के विरोधी और फिर सहयोगी बनने की कई घटनाएं सामने आईं. पहले लालू से दोस्ती, फिर विरोधी और इसके बाद फिर सहयोगी-विरोधी और सहयोगी बनना कोई इकलौता उदाहरण नहीं है. नीतीश की कई ऐसी कहानियां हैं. नीतीश कुमार की जॉर्ज फर्नांडिस के अंतिम दिनों में उनसे भी खटपट हुई. सबसे विश्वस्त सहयोगियों में शामिल रहे शरद यादव से लेकर जीतनराम मांझी तक, कई नेताओं से नीतीश कुमार के दोस्त से विरोधी और फिर सहयोगी बनने की कई कहानियां हैं. नीतीश ने बीजेपी से लंबा गठबंधन तोड़कर आरजेडी के साथ सरकार बनाई और फिर महागठबंधन का हाथ झटक एनडीए में शामिल हो गए. अब नीतीश बीजेपी से फिर दूर हो चुके हैं और महागठबंधन के साथ.
बीजेपी-आरजेडी विधायकों की सीट बदल गई, बदलेंगे नीतीश?
बिहार में सियासी उलटफेर के बाद बीजेपी और आरजेडी विधायकों की सीट बदल गई है. बीजेपी के विधायक ट्रेजरी बेंच से विपक्ष और विपक्ष की कुर्सी से आरजेडी के विधायक ट्रेजरी बेंच पर आ चुके हैं. नीतीश कुमार का अतीत यही बताता है कि नीतीश कुमार हर बार दोस्ती तोड़ते हैं लेकिन फिर भी साथ नहीं छोड़ते. विरोधियों के साथ और साथियों के विरोध में खड़े होने से भी नीतीश को कभी गुरेज नहीं रहा. महागठबंधन की नई-नवेली सरकार के भविष्य को लेकर भी ये आशंकाएं जताई जा रही हैं कि ये कितने दिन तक चल पाएगी? अब देखना ये भी होगा कि बीजेपी-आरजेडी विधायकों की सीट बदल गई, क्या अब नीतीश कुमार का सहयोगी बदलने वाला मिजाज बदलेगा?