उत्तर प्रदेश में बीजेपी के जिला स्तर के पदाधिकारियों के जो नाम सामने आये हैं, 2027 में होने वाले विधानसभा चुनावों की रणनीति के साफ साफ संकेत दे रहे हैं.
बीजेपी के जिला अध्यक्षों के नाम देखें तो सवर्णों का ही बोलबाला नजर आता है, लेकिन ऐन उसी वक्त ओबीसी चेहरों का भी खास दबदबा देखने को मिल रहा है.
जाहिर है, बीजेपी के निशाने पर अखिलेश यादव और मायावती के साथ साथ कांग्रेस की हालिया गतिविधियां भी बनी हुई हैं. विशेष रूप से, दिल्ली चुनाव और बिहार से लेकर गुजरात तक देखा गया राहुल गांधी का नया तेवर.
और हां, ध्यान देने वाली बात ये भी है कि 28 जिलों के अध्यक्षों का चयन नहीं हुआ है, और उनमें अयोध्या, वाराणसी, प्रयागराज और कानपुर जैसे जिले शामिल हैं.
महत्वपूर्ण जिलों में अध्यक्षों का चुनाव होल्ड क्यों?
उत्तर प्रदेश में बीजेपी ने 70 नये जिलाध्यक्षों का ऐलान किया है, लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र वाराणसी, लोकसभा चुनाव से खासतौर पर चर्चा में आया अयोध्या और हाल तक महाकुंभ के लिए चर्चित रहा प्रयागराज का मामला होल्ड पर है. वाराणसी में महानगर अध्यक्ष चुन लिया गया है, लेकिन जिलाध्यक्ष का इंतजार है.
उत्तर प्रदेश में बीजेपी के नये जिलाध्यक्षों में सवर्णों की संख्या सबसे ज्यादा है. 55 फीसदी से ज्यादा जिलाध्यक्ष और महानगर अध्यक्ष सवर्ण तबके से बनाये गये हैं, जबकि 35 फीसदी के आस पास ओबीसी से और 10 फीसदी दलित चेहरे दिखाई पड़े हैं.
एक बड़ा सवाल है कि आखिर 28 जिलों में जिलाअध्यक्ष के पद अभी खाली क्यों रखे गये हैं? सीधे सीधे जवाब तो नहीं मिल रहे हैं, लेकिन पता चला है कि कुछ नाम पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से हरी झंडी नहीं मिल पाई है, और कुछ जगह बड़े नेताओं का आपसी टकराव भी एक वजह सुनाई पड़ी है.
अयोध्या, वाराणसी और प्रयागराज की तरह ही लखीमपुर, आंबेडकर नगर, कानपुर जैसे जिलों में भी अध्यक्षों का चयन नहीं किया है. बताते हैं कि इस काम में अभी महीना भर और लग सकता है.
ओबीसी पर जोर, निशाने पर अखिलेश यादव
जिस तरह से सवर्णों के बाद ओबीसी को भी खासतौर पर तरजीह दी गई है, यूपी से आये लोकसभा चुनाव के नतीजों से जोड़कर देखा जा सकता है. बीजेपी को पीछे छोड़कर समाजवादी पार्टी का सबसे ज्यादा सीटें जीत लेना बीजेपी के लिए बहुत बड़ा सदमा था.
लोकसभा चुनाव में फैजाबाद सीट जीतकर अखिलेश यादव ने लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी के साथ मिलकर अयोध्या की हार के रूप में बीजेपी के खिलाफ कैंपेन चलाया था. ये बात अलग है कि यूपी के उपचुनावों में मिल्कीपुर और कुंदरकी जैसी सीटें जीतकर योगी आदित्यनाथ ने अपनी तरफ से हिसाब बराबर कर लिया है, लेकिन आगे भी ऐसा ही हो ये तो कहा नहीं जा सकता.
संगठन में ओबीसी नेताओं को मिल रही तरजीह, असल में, अखिलेश यादव के पीडीए फैक्टर और राहुल गांधी के जातीय जनगणना मुहिम को काउंटर करने की ही मजबूत कोशिश लग रही है - ऐसा लगता है जैसे आने वाले चुनाव से पहले बीजेपी वैसे ही एहतियाती उपाय कर रही हो, जैसे पुलिस कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए अब तक धारा 144 लागू करती आ रही है.
मायावती और चंद्रशेखर पर भी खास नजर
नये जिलाध्यक्षों में 10 फीसदी दलित चेहरे देखे गये हैं, और बचे हुए 28 जिलों में महिलाओं के अलावा ऐसे ही ओबीसी और दलित नेताओं के नाम सामने आ सकते हैं.
भीम आर्मी वाले चंद्रशेखर आजाद के उभार से तो बीजेपी बेफिक्र है, क्योंकि कांग्रेस की तरह वो मोर्चा भी मायावती खुद ही संभालती आ रही हैं, लेकिन बीएसपी की नई हलचल ने लगता है बीजेपी में भी अलर्ट मैसेज भेज दिया है - और अब अखिलेश यादव के साथ साथ मायवती पर भी नकेल कसने की बीजेपी की पूरी तैयारी लग रही है.
ब्राह्मण-ठाकुर समीकरण बैलेंस करने की कोशिश
संगठन सवर्ण पदाधिकारियों को मोर्चे पर उतारना बीजेपी की ब्राह्मण-बनिया पार्टी वाली छवि बनाये रखने की कवायद तो लगती ही है, ये ब्राह्मण-ठाकुर समीकरण बैलेंस करने की भी गंभीर कोशिश लग रही है.
सवर्णों में ठाकुर नाम दर्जन भर ही हैं, इसे आप चाहें तो बीजेपी नेतृत्व के ब्राह्मणों और ठाकुरों को बराबरी में रखने की कोशिश भी समझ सकते हैं, और चाहें तो योगी आदित्यनाथ को अभी खुली छूट न देने की तरह भी देख सकते हैं.
बेशक उपचुनावों में मिल्कीपुर सहित ज्यादातर विधानसभा सीटें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने बीजेपी की झोली में डाल दी है, लेकिन उससे लोकसभा चुनाव की हार के जख्म नहीं भर पाये हैं - और यही वजह है कि कुछ गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं.
1. सवर्णों का दबदबा हो जाने के बाद बीजेपी अखिलेश यादव के ओबीसी वोट बैंक से कैसे होगा मुकाबला करेगी?
2. ठाकुरों का नंबर कम होना, और ब्राह्मणों की तादाद ज्यादा होने का भी खास मतलब है. बीजेपी ब्राह्मणों की नाराजगी मोल लेने के मूड में नहीं है - लेकिन क्या इससे ठाकुरों की लामबंदी नहीं बढ़ेगी?
3. लोकसभा चुनाव की भरपाई भले ही योगी आदित्यनाथ ने उपचुनावों के जरिये कर ली हो, लेकिन विधानसभा चुनाव में भी ऐसा ही होने की गारंटी कौन दे सकता है?