11 मार्च को बलूच लिबरेशन आर्मी (BLA) ने ऐसा स्टंट किया जिसे देखकर YRF के स्पाईवर्स वाले भी जल जाएं. उन्होंने एक पैसेंजर ट्रेन को हाईजैक कर लिया, जैसे 'मैड मैक्स: बोलान पास' फिल्म की शूटिंग हो रही हो. इसके बाद BLA और पाकिस्तानी सिक्योरिटी फोर्सेज का आमना-सामना हुआ. दोनों ने दावा किया कि उन्होंने एक-दूसरे के दर्जनों लोग मार गिराए हैं. असल आंकड़े अगर छोड़ भी दें तो भी कह सकते हैं कि मरने वालों की संख्या 'काफी ज्यादा' थी.
BLA यहीं नहीं रुका. 16 मार्च को उसने फिर नौशकी में पाकिस्तानी आर्मी के काफिले पर आत्मघाती हमला और गोलीबारी की. BLA ने दावा किया कि 90 सैनिक मारे गए, लेकिन सरकारी बयान का अब भी इंतजार है. बलूच विद्रोह फिर से सुर्खियों में है. पाकिस्तान बनने से पहले शुरू हुआ यह आंदोलन अब सिर्फ किसी कबीलाई झगड़े तक सीमित नहीं है. अब यह महज सम्मान और गर्व के लिए लड़ी जा रही लड़ाई नहीं रही.
अब आंदोलन की कमान शिक्षित नौजवानों के हाथ में है. ये लोग पुरानी इज्जत-आबरू वाली सोच छोड़कर सोशल मीडिया के हैशटैग्स और हक की लड़ाई में लग गए हैं, और इन्हें एकजुट किया है पाकिस्तानी आर्मी की 'गायब कर दो' वाली पॉलिसी ने. जो भी आर्मी को टेढ़ी नजर से देखे, वो बिना केस, बिना झंझट, सीधा गायब! इसका असर अब ये हुआ कि अगली पूरी पीढ़ी ही कट्टर बन गई है.
इस नए दौर का BLA पाकिस्तान की उन कमजोरियों को भुना रहा है, जो आज पहले से भी कहीं ज्यादा गहरी हो चली हैं. पाकिस्तान में हमेशा से सेना ताकतवर रही है और सिविल सरकारें कमजोर. लेकिन आज हालात ऐसे हैं कि न तो चुनी (या कहें थोपी) गई सरकार की कोई साख बची है, न ही फौज का मनोबल. अब अलगाववादियों के सामने बड़ा सवाल ये है - कि आखिर अब नहीं, तो कब?
इतनी पतली क्यों है पाकिस्तान की हालत?
1. साख और भरोसे का संकट: इस्लामाबाद की शरीफ सरकार को जनता कुबूल नहीं कर रही, और रावलपिंडी के फौजी अपनी पुरानी धाक खो चुके हैं. अदालतें नाकाम हैं. कट्टरपंथी ताकतें अब भी मजबूत हैं लेकिन बंटी हुई हैं.
2. आर्थिक तबाही: पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था कुछ सुधरी थी, लेकिन 30% महंगाई के बाद अब फिर डगमगा रही है. जब दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाएं भी हिल रही हैं, तब पाकिस्तान की हालत एक ऐसे कांपते हुए पिल्ले जैसी है जिसे खाना नहीं मिल रहा और बड़े डॉग्स खुद अपनी जान बचाने में लगे हैं.
3. भूराजनीतिक बवाल: पाकिस्तान की 'स्ट्रेटेजिक डेप्थ' वाली अफगान नीति धरी की धरी रह गई है. तालिबान अब खुद को पाकिस्तान का एहसानमंद नहीं मानता. पाकिस्तान का सबसे बड़ा साथी - चीन - अब दूसरी चीजों में व्यस्त है. और CPEC? वो तो कब का मर चुका है.
4. फौज की दादागीरी और सियासी नाकामी: पंजाब-सिंध अभी संभला हुआ है, लेकिन आर्मी अब पहले जैसी ताकतवर नहीं रही. इमरान खान की गिरफ्तारी ने पाकिस्तान की सियासत में बड़ा गैप पैदा कर दिया है, जिससे पूरा सिस्टम अस्थिर हो गया है.
5. बलूचों के लिए बढ़ता समर्थन: आज बलूच आंदोलन के प्रति सहानुभूति सबसे ज्यादा है, और यह सिर्फ बलूचिस्तान तक सीमित नहीं है. अब ये सिर्फ बुगती या मैरी कबीले का आंदोलन नहीं रहा. महरंग बलूच जैसे नए चेहरे इस आंदोलन को नई दिशा दे रही हैं. वो निडर हैं, गुस्से से भरी हैं, और अपने लोगों के हिंसक रास्ता अपनाने को भी गलत नहीं कहतीं.
पाकिस्तान के पास दो ही सहारे हैं – अल्लाह और अमेरिका. ट्रंप के अमेरिका में दोबारा आ जाने के बाद अब अमेरिका पाकिस्तान का कितना साथ देगा- कहना मुश्किल है. और रही बात अल्लाह की, तो 'अल्लाह ही मालिक है' और वही सबसे बेहतर जानता है.
बलूच अभी पूरी तरह आजाद होंगे या नहीं, कहना मुश्किल है, लेकिन इतना तो पक्का है कि ये लड़ाई और भड़केगी और लगातार होते रहने वाले छोटे-बड़े हमलों में बदल जाएगी.
इधर तालिबान को अफगानिस्तान से खदेड़ा गया और उधर पाकिस्तान में उनके देवबंदी सहपाठियों का मनोबल गिर गया. हालांकि पाकिस्तान में उनके साथी दहशतगर्द (जैसे लश्कर-ए-झांगवी और TTP) कभी-कभी हमला करके अपनी मौजूदगी जताते रहे. लेकिन उनका इलाका सिर्फ खैबर पख्तूनख्वा तक सीमित था.
बीच के समय में खादिम रिज़वी ने पंजाब में तहरीक-ए-लब्बैक के बैनर तले बरेलवी ताकत खड़ी कर दी. उनमें एक मौलवी का करिश्मा था और वो मंच से सबसे बढ़िया पंजाबी गालियां बोलने की हिम्मत रखते थे. पिछले 10 साल में तहरीक-ए-लब्बैक (TLP) पंजाब में मुख्य हीटमेकर बन गए, वो भी बिना AK-47 उठाए.
अब देवबंद गुट वापस आ गए हैं. अफगानिस्तान में तालिबान की जीत से उनमें नया जोश आ गया है. TTP और ISKP के आतंकवादी अब फिर से पाकिस्तान के उत्तर में आग लगा रहे हैं. यह एक टैग-टीम डिस्ट्रैक्शन की तरह है. ऐसे में बलूचों को एक खुला मैदान मिल गया है कि वे फौज पर घात लगाकर हमला कर सकें. 48 घंटों में ही 57 हमले हुए.
मार्च 2025 में उत्तर में धमाकों की आतिशबाजी हुई, दक्षिण में तबाही मची, और सेना बिना सिर वाले मुर्गे की तरह इधर-उधर उछलती रही.
बरेलवी, जिनकी पाकिस्तान की सड़कों पर धाक कभी सेना के सहारे और सहमति से बनी थी, वो अब इतने ताकतवर हो गए हैं कि सेना खुद उन्हें काबू करने में नाकाम दिख रही है. पंजाब-पाकिस्तान के राजनीतिक और आर्थिक केंद्र पर दबदबा बनाने की उनकी कोशिश देश के नाजुक जातीय संतुलन को बिगाड़ सकती है और ऐसे नतीजे ला सकती है जिनकी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी.
पहले से ही सांप्रदायिक संघर्षों से जूझ रहे देश में सुन्नी बनाम सुन्नी की लड़ाई एक और जहर घोल सकती है और यह पाकिस्तान के लिए किसी बुरे सपने से कम नहीं होगी. अगर बरेलवी और देवबंदी यह साबित करने में जुट गए कि उनका फिरका सबसे ज्यादा धार्मिक है, तो इसकी सबसे ज्यादा मार शिया और अहमदियों पर पड़ेगी.
इन संकटों की जड़ें जनरल जिया-उल-हक की नीतियों तक जाती हैं, जिनकी इस्लामीकरण की मुहिम और सेना की अजेयता पर बेइंतहा भरोसे ने आज के हालात के बीज बोए थे. दशकों बाद, जिया की लगाई गई आग अब पूरी तरह भड़क चुकी है, और पाकिस्तान संघर्ष और अस्थिरता के उसी दलदल में फंस चुका है, जो उसके वजूद की बुनियाद रहा है. 1940 के दशक में जो पौधा लगाया गया था, वह 2025 में एक पूरा घना पेड़ बन चुका है. मुबारक हो पाकिस्तान, तुमने खुद को ही मात दे दी!