उत्तर प्रदेश में एनकाउंटर को लेकर जबरदस्त राजनीति चल रही है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ राजनीतिक विरोधियों के निशाने पर हैं. पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का आरोप है कि पुलिस यूपी में जाति देखकर एनकाउंटर कर रही है.
सुल्तानपुर डकैती केस में पहले मंगेश यादव को एनकाउंटर में ढेर कर दिया गया था, जिस पर खूब बवाल मचा. बाद में एसटीएफ ने उन्नाव में अनुज प्रताप सिंह को ढेर कर दिया. अनुज के पिता ने तो कहा कि अखिलेश यादव की इच्छा पूरी हुई, क्योंकि हिसाब बराबर हो गया - लेकिन अखिलेश यादव ने अनुज के एनकाउंटर का भी ये कहते हुए विरोध किया कि ये भी फर्जी एनकाउंटर है.
इस बीच बदलापुर रेप के आरोपी अक्षय शिंदे का भी एनकाउंटर हुआ है, जिस पर महाराष्ट्र में राजनीतिक आरोप प्रत्यारोप शुरू हो गया है. एक एनकाउंटर तो तमिलनाडु में भी हुआ है, मारे गये हिस्ट्रीशीटर बदमाश 'सीजिंग राजा' का नाम बीएसपी नेता आर्मस्ट्रांग की हत्या में भी आया था. वे एक दलित थे. इसी हत्या के एक और आरोपी कक्काथोपे बालाजी को हफ्ताभर पहले एक एनकाउंटर में मार दिया गया था.
ठोको नीति से होती हैं गैर-न्यायिक हत्या
पुलिस को एक्स्ट्रा पावर मिल जाये, तो उसे बेलगाम तो होना ही है. जब पुलिस की पीठ पर सीधे मुख्यमंत्री का हाथ हो, तो क्या होगा? ऐसे में कानून और कोर्ट भला क्या मायने रखता है? उत्तर प्रदेश में तो फिलहाल हाल यही है.
सवाल ये है कि पुलिस की कार्यशैली सवालों के घेरे में आती ही क्यों है? हकीकत का एक हिस्सा ये तो है ही कि आरोपियों को पकड़ कर जेल भेज देने भर से कहां कुछ होता है. बलात्कार के ही कई मामलों में देखा गया कि आरोपी को गिरफ्तार कर जेल भेजा गया, और छूटते ही वो पीड़ित पर हमला करता है. कई मामले तो जलाकर मार डालने के भी सामने आ चुके हैं. यूपी के उन्नाव से ही एक ऐसा मामला देखा गया.
ऐसे मामलों में लोगों का आक्रोश भी देखने को मिलता है. पुलिस ही नहीं एनकाउंटर करती, वकील भी मुकदमा लड़ने से मना कर देते हैं. कोलकाता रेप-मर्डर केस में भी ये देखने को मिला था. कस्टडी में हमले होते हैं. मुकदमा तो कोई कसाब का भी नहीं लड़ने के तैयार था, लेकिन कोर्ट को तो वकील मुहैया कराना ही पड़ता है. ये तो इंसाफ का स्टैंडर्ड तरीका है. अंधेर भले न होती हो, लेकिन कोर्ट में देर तो होती ही है.
और एक वजह ये भी होती है कि पुलिस चौतरफा दबाव महसूस करने लगती है. जब हैदराबाद पुलिस ने आरोपियों का एनकाउंटर किया था, तब पब्लिक ताली बजा रही थी. यूपी की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने भी पुलिस की तारीफ की थी. पुलिस के पक्षपात या उसके राजनीतिक झुकाव पर अलग से बहस हो जरूर सकती है.
अब वो चाहे योगी आदित्यनाथ हों, या फिर मायावती ऐसे एनकाउंटर का सपोर्ट करना सही नहीं है, बल्कि अनुज प्रताप सिंह के एनकाउंटर पर अखिलेश यादव की निंदा ज्यादा सही लगतगी है, भले ही वो सोशल मीडिया पर राजनीतिक बयान जारी किये हों - और पुलिस की ऐसी हरकतों पर लोगों का ताली बजाना बहुत ही खतरनाक है.
योगी और ममता बनर्जी के एक्शन के अंतर से समझिये एनकाउंटर नीति का फर्क
आखिर क्यों आसान हो गया एनकाउंटर कर देना, यूपी और बंगाल के मामलों से समझिये. उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का सूबे की पुलिस को एनकाउंटर करने के लिए खुला सपोर्ट हासिल होता है.
हर एनकाउंटर के बाद योगी आदित्यनाथ का बयान भी आता है. अनुज प्रताप सिंह के एनकाउंटर के बाद भी उनके मुंह से वैसी ही बातें सुनने को मिली हैं. योगी का कहना है कि कारोबारियों के साथ जो भी ऐसा करेगा, खामियाजा भुगतना होगा.
योगी आदित्यनाथ ऐसी बातों की कतई परवाह नहीं करते कि यूपी पुलिस पर फर्जी एनकाउंटर के इल्जाम लग रहे हैं. कानून हाथ में लेने का अधिकार तो पुलिस को भी नहीं मिला है. पुलिस को कानून का पालन सुनिश्चित कराना होता है, और खुद भी कानून के दायरे में रह कर ही काम करना होता है.
असल में, यूपी पुलिस की पीठ भी योगी आदित्यनाथ वैसे ही ठोकते हैं, जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ईडी और सीबीआई जैसी केंद्रीय एजेंसियों की. बस अंदाज अलग अलग होता है. मोदी कहते हैां कि जो काम जनता नहीं कर पाई, एजेंसियों ने कर दिखाया, जबकि योगी साफ साफ बोल देते हैं कि जो भी आंख उठाएगा उसे मिट्टी में मिला दिया जाएगा.
यूपी में ताजा एनकाउंटर सुल्तानपुर में एक सर्राफा कारोबारी के यहां हुई डकैती के मामले में हुए हैं. एनकाउंटर में पुलिस ने दो आरोपियों को ढेर कर दिया है. बदलापुर का मामला अलग है.
बदलापुर में रेप के आरोपी का एनकाउंटर हुआ है, जिस पर स्कूली बच्चियों के साथ रेप का आरोप था. यूपी की तरह महाराष्ट्र में भी राजनीति शुरू हो गई है. महाराष्ट्र पुलिस पर आरोप लगा है कि राजनीतिक कनेक्शन वाले एक व्यक्ति को बचाने के लिए आरोपी का एनकाउंटर किया गया है.
अगर बदलापुर के मामले की पश्चिम बंगाल रेप-मर्डर केस से तुलना करें तो बिलकुल अलहदा तस्वीर नजर आती है. कोलकाता पुलिस पर जो भी आरोप लगा हो, लेकिन वो इल्जाम नहीं लगा जो यूपी और महाराष्ट्र पुलिस पर लगा है. फर्जी एनकाउंटर का.
और सिर्फ इतना ही नहीं, ममता बनर्जी या कोलकाता पुलिस कमिश्नर के सामने भी बिलकुल वैसा ही मौका था, जैसा बदलापुर केस में महाराष्ट्र पुलिस के पास या कुछ साल पहले हैदराबाद पुलिस के पास. हैदराबाद पुलिस ने एक वेटरिनरी डॉक्टर से रेप के आरोपियों का भी क्राइम सीन पर ले जाकर एनकाउंटर कर दिया था.
लोगों का गुस्सा सड़क पर उतरने की स्थिति में या मीडिया में खबर आने के बाद दबाव में पुलिस ऐसे काम किया करती है. कोलकाता के पुलिस कमिश्नर को कुर्सी छोड़नी पड़ी, लेकिन बगैर कोर्ट के ट्रायल के किसी का एनकाउंटर नहीं किया गया - राजनीति से इतर एक घटना के तौर पर देखें तो ये ऐसा ही लगता है.
ममता बनर्जी और कोलकाता के पुलिस कमिश्नर दोनो पर भारी दबाव था. आरोपी को बचाने के लिए दोनो सबके निशाने पर रहे. जब कोई खुद फंसता है तो अपना ही बचाव करता है. कोलकाता पुलिस कमिश्नर के पास भी रेप और मर्डर के आरोपी संजय रॉय के एनकाउंटर का पूरा मौका था, लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ.
ममता बनर्जी भी कोलकाता पुलिस को इशारा कर सकती थीं कि आरोपी को ठोक डालो, लेकिन सब कुछ के बावजूद ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया. देखा जाये तो कोलकाता की परिस्थितियां ऐसी तो बन ही गई थीं, जैसे हालात में पुलिस एनकाउंटर कर डालती है.
सुप्रीम कोर्ट ने पश्चिम बंगाल पुलिस और सरकार को चाहे जितना भी जलील किया हो, लेकिन कोलकाता रेप-मर्डर केस के आरोपी को ट्रायल का पूरा मौका मुहैया कराया गया है. नैसर्गिक न्याय का सिद्धांत भी यही है - गुनहगार भले ही सबूतों के अभाव में छूट जाये, लेकिन किसी बेगुनाह को सजा नहीं मिलनी चाहिये.
निष्कर्ष: कहना बहुत आसान है कि जुर्म के मामले में अपराधियों के साथ न्यायसंगत सुलूक होना चाहिए. पकड़ा गया अपराधी हमेशा रहम चाहता है. भले वो गिरफ्त से छूटकर दोबारा अपराध करे. वहीं, उसी अपराधी के पीड़ित न्याय के रूप में चाहते हैं कि जुर्म करने वाला वही सब भोगे, जो उन्हें झेलना पड़ा है. पीड़ितों का आक्रोश कभी भी कम नहीं आंका जा सकता है. सरकार और न्याय व्यवस्था को यह भरोसा दिलाना चाहिये कि उनका हर कदम पीड़ितों को राहत पहुंचाएगा, न कि अपराधियों को. पुलिस पारदर्शी ढंग से काम करे. वैसा तो बिल्कुल नहीं, जैसा कोलकाता रेप-मर्डर केस में हुआ. और न्याय व्यवस्था भी अपराधियों को तेजी से सजा दे. न कि तारीख पर तारीख. यदि ये भरोसा कायम रहा, तो न्याय चाहने वाले उस इंतजार के लिए तैयार रहेंगे जिसके बाद अपराधी को न्याय की सूली पर चढ़ाया जाएगा. न कि पुलिस की गोली से मारा जाएगा.
एनकाउंटर, पुलिस की गोली पर लिखी एक स्वीकारोक्ति है. कि पुलिस सही जांच नहीं कर पाई और केस नहीं बना पाई. और न्याय व्यवस्था पीड़ितों को भरोसा दिलाने वाला इंसाफ देने में नाकाम रही.