प्रशांत किशोर ने बिहार के उपचुनावों में जो कुछ भी कमाया था, पटना में आंदोलन कर रहे छात्रों पर कंबल देने का एहसान जताकर गवां दिया है.
बिहार की जातीय राजनीति तो प्रशांत किशोर पहले से ही मिसफिट थे, लेकिन अलग अलग फील्ड से लोगों को जोड़ कर एक नई राजनीतिक रेखा तो खींच ही रहे थे - और उपचुनावों में मिले वोट भी इस बात की तस्दीक करते ही हैं.
बेशक प्रशांत किशोर मैदान में डटे हुए हैं, तब भी जबकि उनका चौतरफा विरोध हो रहा है. पटना में आंदोलन कर रहे छात्रों पर पुलिस के वाटर कैनन और लाठीचार्ज के पहले मौके से गायब होने का इल्जाम लगने के बाद वो घायल छात्रों से मिलने अस्पताल भी पहुंचे, और अपने ऊपर लगे आरोपों पर सफाई भी दी है - लेकिन कंबल देने की बात करके सारे किये धरे पर खुद ही पानी फेर दिया है.
राजनीति में पब्लिक मेमरी को बहुत शॉर्ट माना जाता है. हो सकता है, लोग प्रशांति किशोर की बातों को आगे चल कर भुला भी दें, लेकिन प्रशांत किशोर ने अपनी पॉलिटिकल लाइन को लेकर जो इशारा किया है, वो तो सबको समझ में आ ही चुका है.
ये तो 'नोट के बदले वोट' वाली राजनीति है
अब तो लगता है, प्रशांत किशोर को नोट के बदले वोट वाली राजनीति में ही यकीन है - लेकिन ये भी समझ लेना चाहिये कि ये ‘रेवड़ी’ कल्चर से बिल्कुल अलग चीज है.
बीते एक साल के विधानसभा के चुनाव नतीजों को देखें तो महिलाओं से जुड़ी योजनाओं का बेजोड़ असर देखने को मिला है. मध्य प्रदेश से लेकर महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव तक. दिल्ली चुनाव में भी वैसे प्रयोग किये जा रहे हैं, और बिहार में तो नीतीश कुमार पहले से ही करते रहे हैं - जाहिर है, आगे और भी ऐसी चीजें हो सकती हैं.
दिल्ली सरकार की तरफ से लोगों को दी जा रही मुफ्त की बिजली और पानी को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बहुत पहले ही रेवड़ी-कल्चर करार दिया था. प्रशांत किशोर की राजनीति में भी अरविंद केजरीवाल की पॉलिटिक्स का अक्स देखा जाता रहा है.
लेकिन, जिस तरह से पीके अपनी तरफ से लाभार्थियों को कंबल देने की बात याद दिला रहे हैं, वो रेवड़ी कल्चर नहीं बल्कि 'नोट के बदले वोट' वाली राजनीति के ज्यादा करीब नजर आ रहा है.
सोशल मीडिया पर चल रहे वायरल वीडियो को गौर से सुना जाये तो लगता है कि डंके की चोट पर प्रशांत किशोर की समझाइश है, कंबल भी ले लिये, और बात नहीं सुनोगे?
क्या प्रशांत किशोर की जेडीयू वाली पारी इसीलिए फ्लॉप रही?
2014 के बाद के बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन की जीत पक्की कर प्रशांत किशोर ने नीतीश कुमार का दिल जीत लिया था. और, जेडीयू का उपाध्यक्ष बनने के बाद पटना यूनिवर्सिटी के छात्रसंघ चुनाव में युवा जेडीयू को अध्यक्ष और कोषाध्यक्ष पद दिला कर साबित कर दिया था, वो जेडीयू के भविष्य हैं. ये बात भी नीतीश कुमार ने ही कही थी.
लेकिन, उन्हीं दिनों एक कार्यक्रम में प्रशांत किशोर की कही गई एक बात जेडीयू नेताओं को हजम नहीं हुई. असल में, प्रशांत किशोर ने बोल दिया था, जब मैं नेताओं को पीएम और सीएम बनवा सकता हूं, तो बिहार के युवाओं को मुखिया और सरपंच नहीं बना सकता क्या.
उसके बाद तो प्रशांत किशोर के खिलाफ पार्टी में ही ऐसी मुहिम चलाई गई कि वो जेडीयू में साइडलाइन कर दिये गये. और, बिहार छोड़कर पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी का काम देखने लगे. उन दिनों प्रशांत किशोर ने सोशल मीडिया पर तंज भरे एक पोस्ट में कहा था, सीनियर नेताओं से सीख रहा हूं. उनका आशय चुनाव प्रचार के काम से था. तब आरसीपी सिंह और ललन सिंह ने मिलकर प्रशांत किशोर को जेडीयू के चुनाव कैंपेन से बाहर कर दिया था. और, प्रशांत किशोर को चुनाव कैंपेन से बाहर करने का मतलब आसानी से समझा जा सकता है, नीतीश कुमार भी चुप्पी साध लिये थे.
काफी दिनों बाद जब पीके बढ़-चढ़ कर नीतीश कुमार के खिलाफ बयानबाजी करने लगे, जिसमें निशाने पर सीधे सीधे बीजेपी नेतृत्व यानी मोदी-शाह हुआ करते थे, एक दिन नीतीश कुमार ने प्रशांत किशोर को जेडीयू से बाहर का रास्ता दिखा दिया.
राजनीतिक विरोधियों को तो पीके ने खुद ही मौका दिया है
जनसुराज मुहिम की शुरुआत से ही प्रशांत किशोर के निशाने पर तेजस्वी यादव सबसे ऊपर रहे हैं, और अब पप्पू यादव के खिलाफ बयान देकर उन्होंने नई मुसीबत मोल ली है. जब नीतीश कुमार ने पहली बार महागठबंधन से नाता तोड़ा था, तो लालू परिवार हमलावर हो गया था, और प्रशांत किशोर के धमकाने पर चुप भी हो गया था, लेकिन तब की बात और थी, तब नीतीश कुमार भी साथ थे. अब वो बात नहीं रही. ध्यान रहे.
1. प्रशांत किशोर राजनीति को अब भी चुनाव कैंपेन वाले बिजनेस की ही तरह ले रहे हैं. चुनाव कैंपेन का ठेका कारोबार हो सकता है, लेकिन मुख्यधारा की राजनीति यानी सत्ता और विपक्ष की राजनीति वैसे तो नहीं चल सकती.
2. प्रशांत किशोर को ये भी मालूम होना चाहिये कि जनसुराज का रजिस्ट्रेशन चुनाव आयोग में हुआ है, न कि रजिस्ट्रार ऑफ कंपनीज के पास - किसी राजनीतिक पार्टी को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी की तरह नहीं चलाया जा सकता.
3. कंबल बांटने वाला बयान देकर वो खुद को पूर्णिया सांसद पप्पू यादव की कैटेगरी में लाकर खड़ा कर दिये हैं. पप्पू यादव के बयानों पर प्रशांत किशोर ने रिएक्ट भी किया है. दावा है कि पहले वो भैया बोलकर मदद मांग रहे थे. लेकिन उनके मदद मांगने में गलत क्या है? प्रशांत किशोर जिस काम के एक्सपर्ट हैं, पप्पू यादव भी वही मदद मांग रहे होंगे. वैसे भी, उस तरह की मदद तो पहले प्रशांत किशोर का बिजनेस ही रहा है. आखिर वो ट्रेड सीक्रेट खुद क्यों लीक कर रहे हैं.
4. प्रशांत किशोर उस पप्पू यादव के मुंह नहीं लगने की बात कर रहे हैं, जिनकी तरफ मदद के लिए पूरा बिहार देखता रहा. जब कोविड संकट काल में किसी को ऑक्सीजन का सिलेंडर नहीं मिलता था तो सब पप्पू यादव से ही उम्मीद करते थे.
तब पटना और बिहार के कई लोगों ने बताया था कि सत्ता पक्ष के लोग भी किसी न किसी के माध्यम से पप्पू यादव की तरफ ही उम्मीदों भरी नजर से देखते थे. ये बात अलग है कि राजनीति के कारण पप्पू यादव को तब जेल भी भेज दिया गया था.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पुराने संगठन हिंदू युवा वाहिनी की तर्ज पर प्रशांत किशोर ने सोशल मीडिया पर PK Digital Vahini बनाया है, जिस पर पप्पू यादव को टैग करते हुए लिखा गया है, 'बंधे हुए हाथ, चेहरे पर मदद की उम्मीद और भक्ति भाव से 250 किलो का शरीर लिए कुर्सी पर बैठा हुआ ये शख्स कौन है पहचानिए. बेशर्मी में अव्वल हैं. सुरक्षा गार्ड्स पाने के लिए खुद की जान पर खतरा होने का ड्रामा करते हैं. पहले ये दहलीज पर आकर भीख मांगते हैं फिर मीडिया में जाकर झूठ बोलते हैं. पेशे से पॉलिटिशियन हैं, लेकिन सी-ग्रेड की एक्टिंग भी कर लेते हैं.'
5. हर किसी में कमियां होती है, पप्पू यादव में भी बहुत सारी होंगी, लेकिन पूर्णिया से वो बगैर कांग्रेस के सपोर्ट के और लालू परिवार के विरोध के बावजूद लोकसभा सांसद बने हैं, और ऐसा कोई पहली बार नहीं हुआ है
बिहार की सत्ता पर काबिज होना तो दूर, अभी तो प्रशांत किशोर के पप्पू यादव बनने में भी काफी वक्त लगेगा. कंबल पॉलिटिक्स के बाद तो तेजस्वी यादव के खिलाफ भी पीके के हमले की धार कमजोर पड़ सकती है, और नीतीश कुमार के खिलाफ चाहे जितनी भी बयानबाजी कर लें - अगर राजनीति करनी है तो सबसे पहले प्रशांत किशोर को पॉलिटिकली करेक्ट होना जरूरी है.