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प्रियंका गांधी के लिए राहुल गांधी से मुश्किल हो सकता है दक्षिण भारत में पांव जमाना

अमेठी को बीजेपी के जबड़े से छीन कर कांग्रेस की झोली में फिर से डाल देने वाली प्रियंका गांधी के लिए राहुल गांधी ने वायनाड लोकसभा सीट छोड़ी है. लगता है जैसे प्रियंका के लिए जीत का ग्रीन कॉरिडोर मुहैया कराया जा रहा हो, लेकिन वास्तविकता अलग है - अब तो प्रियंका गांधी को नये सिरे से अपनी जमीन तलाशनी होगी.

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राहुल गांधी का रायबरेली अपने पास रखना और प्रियंका गांधी को वायनाड भेजने का फैसला उलटा न पड़े.
राहुल गांधी का रायबरेली अपने पास रखना और प्रियंका गांधी को वायनाड भेजने का फैसला उलटा न पड़े.

कुछ सवालों के जवाब बड़े मुश्किल होते हैं. मसलन, अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस की जीत का श्रेय किसे दिया जा सकता है?

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राहुल गांधी को? प्रियंका गांधी वाड्रा को? स्मृति ईरानी को? या बीजेपी के खराब प्रदर्शन को? 

असल में, ये सारे फैक्टर एक ही इशारा करते हैं कि सभी का कुछ न कुछ योगदान जरूर है. हर जीत टीम वर्क का नतीजा होती है, जिसमें तात्कालिक परिस्थितियों की भी महत्वपूर्ण भूमिका होती है. अमेठी में स्मृति ईरानी के प्रति लोगों की नाराजगी थी, और उत्तर प्रदेश में बीजेपी के खिलाफ माहौल बन गया था - और प्रियंका गांधी को आगे करके कांग्रेस ने हालात का फायदा उठाते हुए हर मौके पर हाथ साफ कर दिया. 

प्रियंका गांधी को कांग्रेस अब केरल के वायनाड से चुनाव लड़ाने जा रही है. क्योंकि राहुल गांधी ने संसद में इस बार रायबरेली का प्रतिनिधित्व करने का फैसला किया है - राहुल गांधी और कांग्रेस के हिसाब से ये फैसला चाहे कितना भी अच्छा क्यों न हो, लेकिन क्या प्रियंका गांधी के लिए भी वैसा ही मामला है?

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शायद नहीं. पूरे 5 साल की कड़ी मशक्कत के बाद कांग्रेस नेतृत्व ने प्रियंका गांधी को संघर्ष करने के लिए नये मोर्चे पर भेज दिया है - हो सकता है, प्रियंका गांधी वायनाड लोकसभा सीट से उपचुनाव जीत भी जायें, लेकिन उसके आगे क्या है? 

क्या दक्षिण भारत की राजनीति में वो राहुल गांधी की तरह अपने लिए जगह बना पाएंगी? 

और इस बात की भी क्या गारंटी है कि राहुल गांधी उत्तर प्रदेश में प्रियंका गांधी की मेहनत की कमाई सहेज कर रखे रहेंगे?

प्रियंका के लिए कैसी होगी दक्षिण भारत की सियासत?

1. प्रियंका गांधी वाड्रा ने उत्तर भारत में ही ज्यादा काम किया है. दक्षिण भारत की राजनीति उनके लिए बिलकुल नई है. राहुल गांधी का तो पहले से भी उधर काफी आना जाना होता रहा है - और वायनाड पहुंच कर तो ऐसे बताने लगे थे जैसे बचपन भी वहीं बीता हो. 
 
2021 में असम विधानसभा चुनाव में प्रियंका गांधी को एक्टिव देखा गया था, लेकिन वो चाय बागानों से तस्वीरों तक ही सीमित नजर आई थीं. जैसे यूपी चुनाव के दौरान धान के खेतों में महिलाओं के साथ खाते पीते और बात करते देखी गई थीं.
  
2019 में वायनाड में भी उनकी भूमिका रायबरेली और अमेठी जैसी नहीं थी, बस मौके पर वो राहुल गांधी के पीछे सपोर्ट में खड़ी जरूर देखी गईं.

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2. कांग्रेस के लिए चुनाव कैंपेन तो प्रियंका गांधी ने कई राज्यों में किया है. यूपी चुनाव के दौरान भी पंजाब गई थीं, और पंजाबी बहू बन कर लोकसभा चुनाव के दौरान भी कांग्रेस के लिए वोट मांग रही थीं. लेकिन सबसे ज्यादा वक्त तो प्रियंका गांधी ने यूपी को ही दिया है, और उसमें भी अमेठी और रायबरेली को.

रायबरेली से तो वो सोनिया गांधी की तरफ से भी कामकाज संभालती रही हैं. सोनिया गांधी की सेहत बिगड़ने के बाद से तो रायबरेली का सब कुछ प्रियंका गांधी के ही जिम्मे था. रायबरेली के लोगों के लिए प्रियंका गांधी दिल्ली में भी दरबार लगा चुकी हैं. 

3. सफल होने में भले ही प्रियंका गांधी को 5 साल लग गये, लेकिन अमेठी को बीजेपी से छीन लेना कोई मामूली बात तो है नहीं. वो भी तब जब चुनावों से पहले रायबरेली को बचा पाना भी कांग्रेस के लिए टेढ़ी खीर मानी जा रही थी.
 
2019 के आम चुनाव में प्रियंका गांधी ने कांग्रेस महासचिव के तौर पर औपचारिक रूप से कामकाज संभाला था. और तब अमेठी में राहुल गांधी की हार ने भी प्रियंका की साख पर ही बट्टा लगाया था, क्योंकि वो उनकी निगरानी में हुआ पहला मामला था.
 
2022 के हिमाचल विधानसभा चुनाव में भी प्रियंका गांधी ने अपने घर से कांग्रेस के कैंपेन की निगरानी की थी. अपने घर को तो प्रियंका गांधी ने शुभ बना लिया, लेकिन अमेठी स्मृति ईरानी के घर पर हार का दाग लगा दिया.

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4. ये ठीक है कि यूपी में बीजेपी के पक्ष में माहौल नहीं था, लेकिन अमेठी की जीत भी कोई थाली में सजा कर कांग्रेस को थोड़े ही मिली है. एक कांग्रेस कार्यकर्ता केएल शर्मा को मैदान में उतारकर उनकी जीत सुनिश्चित करना कोई आसान काम तो नहीं ही था - और प्रियंका गांधी ने खुद को साबित तो किया ही है. 

5. रायबरेली की बात करें तो सोनिया गांधी अपनी तरफ से संदेश देती रहीं, और राहुल गांधी भी आते जाते ही रहे - ये तो प्रियंका गांधी ही हैं जिन्होंने शुरू से आखिर तक डेरा डाले रखा. और अपने वादे के मुताबिक जीत कर ही दिल्ली लौटीं. 

क्या राहुल गांधी यूपी संभाल लेंगे

उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी और अखिलेश यादव के बीच प्रियंका गांधी ब्रिज का काम करती रही हैं. 2017 में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के बीच गठबंधन प्रियंका गांधी ने ही कराया था, जिसे बाद में राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने तोड़ डाले थे. 

अब अखिलेश ने भी दिल्ली का रुख कर लिया है. जैसे 2022 में आजमगढ़ लोकसभा सीट छोड़ी थी, अब करहल विधानसभा सीट छोड़ दी है. यानी, अब वास्तव में वो अपने लिए पिता की तरह केंद्र की राजनीति में जगह तलाश रहे हैं.
 
हो सकता है, अखिलेश यादव को लगता हो कि यूपी में सत्ता हाल फिलहाल नहीं मिलने वाली तो समय क्यों बर्बाद किया जाये. वैसे भी सत्ता में आने तक यूपी तो कोई और भी देख लेगा. लखनऊ में उनकी टीम है ही. और डिंपल यादव भी मौके पर मौजूद रहेंगी ही.

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मुश्किल तो तब आएगी जब कांग्रेस को अखिलेश यादव के इरादे समझ में आएंगे. प्रधानमंत्री बनने का ख्याल तो उनके भी मन में होगा ही, पिता की अधूरी हसरत पूरा करने की बेटे की कोशिश तो होनी ही चाहिये. 

और अगर प्रधानमंत्री पद के मुद्दे पर अखिलेश यादव और राहुल गांधी स्वार्थ टकराया, तो क्या यूपी में सपा-कांग्रेस गठबंधन बच पाएगा?

रायबरेली अपने पास रख कर राहुल गांधी ने दक्षिण भारत में अपने राजनीतिक विरोधियों के आरोपों को सही साबित कर दिया है - सवाल ये है कि तब क्या होगा अगर वायनाड के लोगों ने उपचुनाव में अपनी नाराजगी जाहिर कर दी? 

वायनाड में प्रियंका गांधी वाड्रा को नये सिरे से मोर्चे पर उतरना पड़ेगा. खुद को साबित करना पड़ेगा. ये भी यकीन दिलाना होगा कि आगे से कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी की तरह दक्षिण भारत का इस्तेमाल सिर्फ मतलब के लिए नहीं करेंगी. जब राहुल गांधी को सबसे ज्यादा जरूरत थी, वायनाड के लोगों ने ही साथ दिया, जैसे बेल्लारी के लोगों ने सोनिया गांधी को हाथोंहाथ लिया था.

ऐसा क्यों लगता है कि जिस तरह प्रियंका गांधी को CWC की बैठकों में दूसरे महासचिवों के साथ दूर बिठा दिया जाता है, कांग्रेस ने बिलकुल वैसे ही यूपी से केरल भेज दिया है - क्या कांग्रेस में मेहनत का ऐसा ही इनाम मिलता है? 

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क्या गांधी परिवार में राहुल और प्रियंका होने का यही फर्क है?

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