यात्राओं का दौर खत्म होने के बाद राहुल गांधी राजनीति की जिस सड़क पर रफ्तार भर रहे हैं, आगे बढ़ने से पहले उस पर लिखे अलर्ट भी गौर से बांच लेना चाहिये - 'आगे अंधा मोड़ है,' और 'सावधानी हटी, दुर्घटना घटी.'
भले ही इसके लिए ब्रेक लेना पड़े. भले ही छुट्टी लेनी पड़े. भले ही फिर से विदेश दौरा करना पड़े - लेकिन राहुल गांधी को मंजिल के रास्ते में किसी ढाबे पर थोड़ी देर ठहर कर आगे के प्लान पर फिर से विचार करना चाहिये. चुनाव प्रचार के बीच पहले भी राहुल गांधी की रास्ते में रुक कर जलपान करने की तस्वीरें आती रही हैं.
राहुल गांधी के राजा की शक्ति से लड़ाई वाली बात भले ही तेज रफ्तार में हुआ एक हादसा हो, लेकिन उसका हश्र भी लालू यादव के परिवार वाले बयान जैसा हुआ है - न्याय यात्रा के मंच से राहुल गांधी ने जो सियासी बयार बहाने की कोशिश की थी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने हिसाब से लपक लिया और हवा का रुख बदलने की कोशिश में जुट गये हैं.
मोदी पर निजी हमला, मतलब बीजेपी का फायदा
हाल ही की बात है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जिस तरह 2019 के चुनाव में कांग्रेस नेता राहुल गांधी के 'चौकीदार चोर है' स्लोगन को न्यूट्रलाइज कर दिया था, आरजेडी नेता लालू यादव के परिवार वाले बयान पर बिलकुल वैसा ही सलूक किया है.
फर्क बस ये है कि पिछली बार प्रधानमंत्री मोदी ने भी अपने नाम से पहले चौकीदार शब्द जोड़ लिया था, इस बार बीजेपी के नेता और समर्थकों ने अपने अपने नाम के साथ 'मोदी का परिवार' जोड़ लिया है - और खुद टारगेट से हटकर हथियार का रास्ता उसी ओर मोड़ दिया है, जिधर से वार किया गया था.
हो सकता है, लालू यादव की राजनीतिक सेहत को उनके बयान से उतना नुकसान न हो जितना राहुल गांधी का होता है, क्योंकि दोनों ही नेताओं के अलग अलग वोट बैंक हैं - लेकिन प्रधानमंत्री मोदी पर निजी हमलों की रणनीति से INDIA ब्लॉक में राहुल गांधी और लालू यादव के साथी नेता उमर अब्दुल्ला भी इत्तेफाक नहीं रखते.
लालू यादव के बयान पर 2019 के आम चुनाव की याद दिलाते हुए नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने 'चौकीदार चोर है' के नारे का हवाला देते हुए समझाया कि कैसे विपक्ष को ही दांव उलटा पड़ गया.
उमर अब्दुल्ला कहते हैं, 'मैं कभी भी ऐसे नारों के पक्ष में नहीं था... और न ही इनसे कोई फायदा होता है... जब हम ऐसे नारे लगाते हैं तो इसका उलटा असर होता है... हमें ही नुकसान होता है.'
उमर अब्दुल्ला की राय मानें तो वोटर को नारों से मतलब नहीं होता. कहते हैं, वो जानना चाहते हैं... आज उसके सामने जो समस्याएं हैं, उनका समाधान कैसे किया जाएगा... रोजगार, कृषि संकट से निपटने के तरीके बारे में जानना चाहते हैं... किसी का परिवार है या नहीं इस बारे में नहीं जानना चाहते.'
मोदी पर निजी हमले से होने वाले नुकसान को लेकर कांग्रेस के नेता ही राहुल गांधी को अलर्ट कर चुके हैं, लेकिन वो मानने को तैयार नहीं हैं. कहां विपक्ष आक्रामक होकर बीजेपी और मोदी को घेरने की कोशिश करता, और कहां सेल्फ-गोल के बाद बचाव की मुद्रा में आना पड़ रहा है - राहुल गांधी और लालू यादव के बयान मिसाल हैं.
राहुल गांधी को मुद्दों पर फोकस होना चाहिये
लालू यादव के बहाने ही सही, उमर अब्दुल्ला की पूरी समझाइश राहुल गांधी के लिए ही लगती है. समझाते हैं, चौकीदार, अडानी-अंबानी, राफेल, परिवार - प्रधानमंत्री मोदी के खिलाफ ये सारे मुद्दे काम नहीं करते हैं.
देखा जाये तो अडानी-अंबानी का मुद्दा भी चुनावों के दौरान लोगों को राफेल की तरह ही बोरियत पैदा करने वाला लग रहा है. अगर राहुल गांधी बेरोजगारी की बात करते हैं, आरक्षण की बात करते हैं, महिलाओं, किसानों, युवाओं की बात करते हैं, तो उस पर फोकस भी रहना चाहिये - बाकी बातें हानिकारक साबित हो रही हैं.
क्षेत्रीय दलों के साथ खड़े होने की कोशिश करनी चाहिये
इंडिया टुडे कॉनक्लेव के दौरान सीवोटर के प्रमुख यशवंत देशमुख ने देश की ऐसी 243 सीटों का हवाला दिया था, जहां क्षेत्रीय दल बीजेपी के लिए चुनौती बने हुए हैं. कांग्रेस को अब तो संभल ही जाना चाहिये - और खुद पीछे खड़े होकर क्षेत्रीय दलों को मुकाबले में मोर्चे पर रहने देना चाहिये.
राहुल गांधी के मन में क्षेत्रीय दलों को लेकर जो भी धारणा बनी हुई हो, लेकिन असलियत तो यही है कि पश्चिम बंगाल हो या उत्तर प्रदेश या फिर तमिलनाडु कांग्रेस के लिए ड्राइविंग सीट कहीं भी खाली नहीं है - और हर ट्रैफिक सिग्नल पर बीजेपी पूरे लाव लश्कर के साथ डटी हुई है. एक भी रेडलाइट जंप किया तो खैर नहीं.
राहुल गांधी को अब अपनी रणनीति बदलनी होगी
1. अगर वास्तव में राहुल गांधी को मोदी और बीजेपी से वास्तव में मुकाबला करना है तो पूरी स्ट्रैटेजी बदलनी होगी - भाषण लिखनेवाले से लेकर सलाहकारों तक, और खुद भी अनावश्यक मुद्दे उठाने से बचना होगा. वरना, ये हाल रहा तो सत्ता हासिल करना तो दूर अस्तित्व बचाना मुश्किल हो सकता है.
2. राहुल गांधी को ऐसे काम पर फोकस करना चाहिये जिससे लोगों के मन में उम्मीद बंधे. जैसे, पांच न्याय में कुछ चीजें ऐसी जरूर हैं. इसलिए जितना भी संभव हो सके, राहुल गांधी और उनकी टीम को अपनी बात लोगों तक हर हाल में पहुंचाने की कोशिश करनी चाहिये.
3. एक काम तो राहुल गांधी को तत्काल प्रभाव से कर लेना चाहिये - स्पीच राइटर और सलाहकार हर हाल में बदल लेने चाहिये. भला ऐसे स्पीच राइटर और सलाहकारों का क्या फायदा जो हर मुद्दे पर अपने नेता को चक्रव्यूह में फंसा देते हों.
4. हिंदुत्व का मुद्दा बहुत ही संवेदनशील है. यूपी राम मंदिर बन जाने के बाद लोग कुछ भी इधर उधर सुनना नहीं चाहते. ऐसे में राहुल गांधी को सोच समझकर ही बोलना चाहिये. वो भी तब जब पहले से ही सनातन के मुद्दे पर बवाल मचा हो. हो सकता है, RSS, BJP और मोदी को लेकर मन में खीझ भर गई हो, लेकिन भावनाओं पर काबू पाने के प्रयास होने चाहिये. राजनीतिक लड़ाई लड़ने के लिए अपनी भावनाओं पर काबू रख कर वोटर की भावनाओं को समझने की कोशिश करनी चाहिये, और उसी के हिसाब से आगे बढ़ने का प्रयास होना चाहिये.
5. प्रधानमंत्री मोदी को टारगेट करना तो छोड़ना ही होगा. राहुल गांधी चाहें तो ये टास्क अपने हिसाब से कुछ निडर नेताओं को दे सकते हैं. जैसे प्रवक्ता टीवी पर होने वाली बहसों और मीडिया के सामने आकर पार्टी का बचाव करते हैं, राहुल गांधी को एक ऐसी टीम बनानी चाहिये जो घूम घूम कर उनके मन की बात करें - और इसके लिए दिग्गविजय सिंह जैसे पुराने साथी या नये दौर में सुप्रिया श्रीनेत जैसी नेता को आजमाने की कोशिश करनी चाहिये.
लोकप्रिय नेता का मुकाबला लोगों का भरोसा जीत कर ही किया जा सकता है. लोकप्रियता का असर ये होता है कि लोग अपने नेता की हर बाद पर आंख मूंद कर यकीन कर लेते हैं, और जिससे भरोसा उठ जाता है, उसकी गंभीर बातों पर भी ध्यान नहीं देते - मोदी और राहुल गांधी में फिलहाल यही फर्क है.