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राहुल गांधी को जनता की आवाज उठाने के साथ ही संसदीय राजनीति के दांव-पेच भी सीखने होंगे

नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को अब संसदीय राजनीति की बारीकियां भी सीखनी होंगी, और सदन में हर वक्त अलर्ट भी रहना होगा. जिस तरह से बीजेपी की मोदी सरकार ने कांग्रेस नेतृत्व को इमरजेंसी के मुद्दे पर घेरा है, राहुल गांधी को भी काउंटर करने के लिए हरदम तैयार रहना होगा - तभी मजबूत विपक्ष का कोई मतलब समझ में आएगा.

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राहुल गांधी चाह लें तो बहुत कठिन नहीं है डगर पनघट की
राहुल गांधी चाह लें तो बहुत कठिन नहीं है डगर पनघट की

20 साल तक सड़क की राजनीति के बाद राहुल गांधी संसद में विपक्ष के नेता बने हैं. 2004 में राहुल गांधी पहली बार अमेठी सीट से लोकसभा पहुंचे राहुल गांधी फिलहाल गांधी परिवार का गढ़ समझी जाने वाली रायबरेली सीट से सांसद चुने गये हैं. 

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2014 तक 10 साल चली यूपीए की सत्ता के दौरान राहुल गांधी को सरकार में शामिल होने का कई बार ऑफर मिला था, लेकिन, बताते हैं कि उन्होंने खुद उन प्रस्तावों को ठुकरा दिया था. इस बार CWC में राहुल गांधी विपक्ष का बनाये जाने का प्रस्ताव पास हुआ - और आखिरकार वो मान गये. 

राहुल गांधी 18वीं लोकसभा में विपक्ष के नेता तो बन गये हैं, लेकिन उनके सामने अब भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह जैसे बीजेपी के बेहद अनुभवी नेता हैं, जिनसे संसद सत्र के दौरान उनको हर रोज दो-दो हाथ करना है. 

लोकसभा चुनाव में खराब प्रदर्शन के बावजूद जिस तरह बीजेपी ने संसद में कांग्रेस को इमरजेंसी के नाम पर घेरा है, वो राहुल गांधी के लिए पहला सबक है - और आगे से विपक्ष के नेता को हर वक्त सतर्क रहना होगा, और बीजेपी से मुकाबले के लिए राजनीतिक रूप से तैयार रहना होगा. 

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अगर राहुल गांधी संसदीय राजनीति में सफल रहते हैं, तो मान कर चलना चाहिये, कांग्रेस को भीतर और बाहर यानी विपक्षी खेमे में भी उनका दबदबा बढ़ सकता है. 

'प्रथम ग्रासे...' इमरजेंसी पर मौन, और निंदा

राजनीति में शतरंज की तरह चाल चलनी होती है. ये ध्यान भी रखना होता है कि राजनीतिक विरोधी की चाल को कैसे पहले काउंटर और आखिरकार न्यूट्रलाइज करना है - और उसके आगे की हर संभावित राजनीतिक स्थिति से मुकाबले के लिए पहले से ही प्लान तैयार करना होता है. 

सबसे बड़ी बात ये है कि ये सब करने के लिए बहुत मौका नहीं होता. तत्काल प्रभाव से मौके पर ही फैसला लेना होता है. घर से नोट ले जाकर संसद में भाषण देने, और तात्कालिक परिस्थितियों में राजनीतिक कदम बढ़ाने में बहुत फर्क होता है - राहुल गांधी को अब ये सब अच्छी तरह समझ लेना चाहिये. 

जिस तरह स्पीकर चुने जाने के फौरन बाद ओम बिरला ने संसद में एनडीए सांसदों से मौन रखवा दिया, और इमरजेंसी की विस्तार से निंदा की - राहुल गांधी के लिए इंटेलिजेंस इनपुट की तरह है, जो साफ साफ दिखाई पड़ रहा है. ऐसी चीजों को डिकोड करने की भी जरूरत नहीं होती.

जिस तरह राष्ट्रपति के अभिभाषण में भी ये मुद्दा शामिल किया गया, वो भी तब जबकि लोग इमरजेंसी के बाद आई जनता पार्टी की सरकार को हटा देने के बावजूद फिर से सत्ता इंदिरा गांधी को सौंप दी थी. अब करीब 50 साल बाद उसकी कितनी अहमियत रह जाती है, ये तो समझने और और समझाने वाले पर ही निर्भर करता है. 

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जब ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद भी पंजाब में कांग्रेस सत्ता में आ जाती हो, तो ऐसे मुद्दे पर डरने की जरूरत क्यों है? बीजेपी कांग्रेस को कठघरे में खड़ा करने के लिए ऐसे मुद्दे तो उठाएगी ही, ये तो राहुल गांधी को ही आगे बढ़ कर राजनीतिक रूप से दुरुस्त जवाब देना होगा. 

बीजेपी को तो राजनीतिक चाल चलने से कांग्रेस रोक नहीं सकती, लेकिन कमजोर जगहों पर हमलावर तो रहना ही होगा. सोनिया गांधी 2020 के दिल्ली दंगों का मुद्दा जोर शोर से उठाती हैं. कांग्रेस नेताओं के साथ राष्ट्रपति भवन तक मार्च करती हैं, लेकिन जैसे ही बीजेपी के नेता मीडिया के सामने आकर 1984 के दंगों की याद दिलाना शुरू करते हैं, कांग्रेस नेतृत्व खामोश हो जाता है - ऐसे भला कैसे काम चलेगा?

राजनीति में भी चलता है - शठे शाठ्यम् समाचरेत 

राहुल गांधी नई संसदीय पारी में पहले आदर्श पेश करना चाहते थे. उनके भाषण में कटाक्ष और चेतावनी जरूर थी, लेकिन कहीं से भी वो टकराव के मूड में नहीं लग रहे थे. 

विपक्ष के नेता के रूप में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ स्पीकर ओम बिरला का स्वागत भी किया, और साथ साथ आसन तक छोड़ने भी गये थे. संसदीय परंपरा का निर्वहन अच्छा होता है, लेकिन जरूरत के हिसाब से रणनीति बदलनी भी पड़ती है. 
 
पहले दिन राहुल गांधी हाथों में संविधान लिये पहुंचे थे, लेकिन स्पीकर के चुनाव के मौके पर सफेद कुर्ता पायजामा पहकर पहुंचे. असल में, राहुल गांधी ये संदेश देने की कोशिश कर रहे थे कि आगे से वो सकारात्मक विपक्ष की भूमिका निभाएंगे - लेकिन बीजेपी तो पहले से तैयार बैठी थी. संविधान के नाम पर चुनाव कैंपेन का गुस्सा था. मन में भड़ास भरी पड़ी थी. 

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हाथ में संविधान लेकर चुनाव कैंपेन के बाद राहुल गांधी का चुनाव जीतकर भी हाथों में संविधान की कॉपी लिये संसद मार्च भला बीजेपी को कैसे हजम होता. राजनीति तो ऐसी ही होती है, और इस लिहाज से बीजेपी ने वही किया जो राजनीति में करना उसे ठीक लगा. हक भी बनता है. 

राहुल गांधी और इंडिया गठबंधन के साथी सांसद बस शोर मचाकर विरोध जताते रह गये - लेकिन, सवाल ये है कि क्या राहुल गांधी या विपक्षी सांसदों के पास विरोध का कोई मौका नहीं था?

क्या राहुल गांधी या विपक्ष के किसी भी सदस्य को पप्पू यादव का चेहरा नहीं नजर आया?

पप्पू यादव NEET एग्जाम में हुई गड़बड़ी के विरोध में ऐसी टीशर्ट पहन कर संसद पहुंचे थे जिस पर लिखा था - #RENEET.

मानते हैं कि मौन और इमरजेंसी की निंदा करने के फौरन बाद ओम बिरला ने लोकसभा स्थगित कर दी, लेकिन क्या इमरजेंसी के विरोध की जगह नीट को लेकर आवाज उठाई गई होती, तो बीजेपी बेअसर रह पाती?

और ये काम तो अगले दिन भी किया जा सकता था - फिर तो बीजेपी सरकार को भी राष्ट्रपति के अभिभाषण में इमरजेंसी की चर्चा करने से पहले कई बार सोचना पड़ता.

हर बीमारी से बचाव के लिए एहतियाती उपाय जरूरी होते हैं, राजनीति में भी. राहुल गांधी ये सब जितना जल्दी समझ जाएंगे, और अच्छे दिन आने में उतना ही कम वक्त लगेगा. 

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