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क्‍या मोहन भागवत नारेबाजी की नई परिभाषा लिख रहे हैं? बीजेपी के लिए सबक - ममता को राहत | Opinion

‘जय श्रीराम’ और ‘भारत माता की जय’ बोलने को लेकर अक्सर राजनीतिक विवाद होते रहे हैं, लेकिन अब इस पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की गाइडलाइन आ गई है. संघ प्रमुख मोहन भागवत की समझाइश है कि हर जगह ऐसी नारेबाजी की कोई जरूरत नहीं है.

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क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बीजेपी की राजनीति में बदलाव लाना चाह रहा है?
क्या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बीजेपी की राजनीति में बदलाव लाना चाह रहा है?

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भारतीय जनता पार्टी से नाराजगी खत्म हो चुकी है, ऐसा बिलकुल नहीं लगता - और मोहन भागवत की तरफ से आई नई समझाइश एक साथ कई इशारे कर रही है. 

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बीजेपी के दो राजनीतिक नारों को लेकर जिस तरह से मोहन भागवत ने सख्त रुख दिखाया है, ऐसा लगता है देश में बदलते राजनीतिक समीकरण अब संघ की भी चिंता बढ़ाने लगे हैं.

एक कार्यक्रम में नारेबाजी कर रहे लोगों को जिस तरह से मोहन भागवत ने डांट पिलाई है, अयोध्या में बीजेपी की हार की पीड़ा भी उसमें महसूस की जा सकती है. 

‘जय श्रीराम’ और ‘भारत माता की जय’, अभी तक बीजेपी के कार्यक्रमों में ऑफिशियल स्लोगन के रूप में गूंजते रहे है्ं, जिस पर अक्सर विवाद भी होता रहा है - लेकिन अब मोहन भागवत ने साफ हिदायत दे डाली है कि हर जगह ये नारा लगाना जरूरी नहीं है.

बीजेपी को भागवत की नई नसीहत

संघ प्रमुख मोहन भागवत दिल्ली में एक किताब के रिलीज के मौके पर जैसे ही पहुंचे, समर्थकों ने पारंपरिक अंदाज में ही स्वागत किया, लेकिन वो तरीका उनको जरा भी अच्छा नहीं लगा. नारे लगाने वालों को जिस लहजे में मोहन भागवत ने डपट दिया, उससे तो ऐसा ही समझ मेें आता है. 

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‘जय श्रीराम’ और ‘भारत माता की जय’ के नारे अब तक संघ और बीजेपी से जुड़े सभी कार्यक्रमों में लगाये जाते रहे हैं. यहां तक कि संसद में भी बीजेपी के सदस्य जोर जोर से ये नारे लगाते रहे हैं.   

जब मोहन भागवत ने अपनी बात शुरू की तो सबसे पहले उनका इसी बात पर जोर देखा गया. मोहन भागवत ने कहा, ‘देखो, हर बात के लिए एक खास जगह होती है… और ये बात नारों पर भी लागू होती है, लेकिन ये वो जगह नहीं है.’

मंच के सामने बैठे लोगों ने ताली तो मोहन भागवत की सलाह पर भी बजाई, लेकिन क्या उन लोगों को अटपटा नहीं लगा होगा? क्या ये हिंदुत्व की राजनीति को लेकर अब तक चले आ रहे स्टैंड से यू-टर्न लेने जैसा नहीं होगा? 

बीजेपी के नारों से किस किस को दिक्कत है

बीजेपी इन नारों से सबसे ज्यादा चिढ़ते ममता बनर्जी को ही देखा गया है, और ऐसा कई बार हुआ है जब वो आपे से बाहर हो गई हैं - लेकिन देश में बीजेपी विरोध की राजनीति करने वाले नेता भी हैं, जिन्हें दिक्कत तो दूर उनके मंचों पर भी ये नारे लगाये जा चुके हैं. 
आम आदमी पार्टी के नेता अरविंद केजरीवाल तो ये नारे लगाते ही हैं, बीएसपी प्रमुख मायावती को भी अब ऐसी कोई दिक्कत नहीं रही. ऐसे कई मौके आये हैं, जो इस बात की गवाही देते हैं. 

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नीतीश कुमार, ममता बनर्जी की तरह गुस्सा तो नहीं होते, लेकिन काफी असहज जरूर हो जाते हैं. 2019 के आम चुनाव में कैंपेन के दौरान ऐसा देखा गया था, जब मंच पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ बीजेपी नेता ये नारे लगाते रहे, और नीतीश कुमार चुपचाप बस मुस्कुरा देखे गये थे. 

2021 के पश्चिम बंगाल चुनाव से पहले कोलकाता में नेताजी सुभाष चंद बोस को लेकर एक कार्यक्रम हुआ था. केंद्र सरकार की तरफ से आयोजित कार्यक्रम में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी मौजूद थे, और प्रोटोकॉल के हिसाब से पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी पहुंची थीं. तभी कार्यक्रम में मौजूद कुछ लोग जय श्रीराम के नारे लगाने लगे. 

ऐसी नारेबाजी सुनकर पहले कई बार ममता बनर्जी को आग बबूला होते देखा जा चुका था, लेकिन उस दिन वो चुप रहीं. ऐसी चुप्पी साध ली कि कार्यक्रम में भाषण देने से भी इनकार कर दिया. 

बीजेपी के नारों पर संघ की गाइडलाइन क्यों?

नेताजी वाले कार्यक्रम के बाद बंगाल में काम कर रहे संघ के स्थानीय पदाधिकारियों की नाराजगी की खबर आई थी. तब भी ऐसा लगा था कि संघ नेताजी के कार्यक्रम में ममता बनर्जी को नाराज होते नहीं देखना चाहता था, ताकि उसका बंगाल के लोगों पर कोई भावनात्मक असर पड़े और बीजेपी को उसकी कीमत चुकानी पड़े. बीजेपी पर असर तो पड़ा ही, पूरी ताकत झोंक कर भी बीजेेपी के हाथ कुछ नहीं लगा, और 2024 में भी 2019 के लोकसभा जितनी सीटें नहीं ला सकी.

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अभी तो यही देखने को मिल रहा है कि ममता बनर्जी बीजेपी और कांग्रेस से बराबर दूरी बना कर चल रही हैं. ममता बनर्जी के हालिया स्टैंड को देखें तो, न तो वो कांग्रेस के बहुत करीब नजर आ रही हैं, न ही बीजेपी से बहुत ज्यादा दूरी बनाते हुए देखी जा रही हैं - कोलकाता रेप-मर्डर केस इस बात की मिसाल है.

ये तो बीजेपी भी जानती है कि ममता बनर्जी के खिलाफ जाने की एक लिमिट है, क्योंकि अगर नीतीश कुमार और चंद्रबाबू नायडू का मन बदल गया तो आगे कौन संभालेगा? एहतियाती इंतजाम तो करने ही पड़ते हैं. 

अभी तक ममता बनर्जी की तरह किसी और को बीजेपी के नारों से दिक्कत नहीं देखी गई है, लेकिन मोहन भागवत की नई नसीहत कुछ मजबूत इशारे तो करती ही है. 

क्या बीजेपी की अयोध्या की हार भी इसकी कोई वजह हो सकती है? क्या संघ भी मानने लगा है कि हिंदुत्व के राजनीतिक एजेंडे में तब्दीली की जरूरत है - और कट्टरता छोड़ कर सॉफ्ट हिंदुत्व से भी काम चलाया जा सकता है? 

क्या संभावित सॉफ्ट हिंदुत्व की ये राह आगे चल कर सेक्युलर होने वाली है? मतलब, बीजेपी सरकार को 2047 मेंं विकसित भारत बनाने और सत्ता में बने रहने के लिए नये मुद्दे तलाशने होंगे.

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