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जाति सर्वे के कारण हिंदू वोटों का बिखराव रोकने के लिए RSS लाया चुनावी प्लान

जातिगत जनगणना पर अमित शाह ने बीजेपी का पक्ष सबके सामने रख चुके हैं. बीजेपी विरोध में नहीं है, पर फैसला सही वक्त पर होगा. लेकिन ये हाथी के दिखाने के दांत हैं, असली काम तो RSS कर रहा है. जातीय राजनीति के काउंटर और बीजेपी की मदद के लिए संघ अपना सामाजिक समरसता प्रोजेक्ट आगे बढ़ा चुका है.

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संघ ने राहुल गांधी की जातीय राजनीति की काट खोज ली है
संघ ने राहुल गांधी की जातीय राजनीति की काट खोज ली है

विपक्षी दलों की तरफ से शुरू की गयी जातीय राजनीति बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती पेश कर रही है. ये विपक्ष का ही दबाव ही है कि केंद्रीय मंत्री अमित शाह को छत्तीसगढ़ और बिहार जाकर जातिगत जनगणना पर बीजेपी का पक्ष रखना पड़ा है. अमित शाह का कहना है कि बीजेपी कभी जातिगत जनगणना के विरोध में नहीं रही, लेकिन इस बारे में कोई भी फैसला सही वक्त आने पर भी लिया जाएगा. 

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जैसे हाथी के दिखाने और खाने के दांतों की मिसाल दी जाती है, बीजेपी नेता के बयान के बीच राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नयी मुहिम को देखें तो सब कुछ साफ साफ नजर आता है. आम चुनाव का माहौल बनते बनते ये तस्वीर और भी साफ नजर आएगी. 

जातिगत गणना के प्रति बढ़ते समर्थन को बीजेपी की मदद में बेअसर करने के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मोर्चे पर एक नयी चुनावी मुहिम के साथ अपनी टीम तैनात कर चुका है - ये मुहिम है संघ का सामाजिक समरसता प्रोजेक्ट. इस प्रोजेक्ट के तहत संघ के कार्यकर्ता लोगों के बीच जाकर समझाएंगे कि जातिगत जनगणना की कोई जरूरत नहीं है, क्योंकि हिंदू तो एक हैं - और किसी भी सूरत में लोग जातीय वैमनस्यता फैलाने की कोशिश वाली राजनीति के चक्कर में न पड़ें.

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संघ ने ऐसी तैयारी कर रखी है कि एक तरफ हिंदू समुदाय को घर घर पहुंच कर एकजुट रहने का महत्व समझाया जाये - और मोदी-शाह या जेपी नड्डा जैसे नेता घूम घूम कर कहते रहें कि बीजेपी कभी भी जातीय जनगणना के खिलाफ नहीं रही है, लेकिन फैसला तो सही वक्त पर ही लिया जाएगा. सही वक्त तो तभी आएगा जब संघ और बीजेपी को इस चुनौती से निबटने के लिए किसी नयी मुहिम की जरूरत महसूस होगी.

क्या है संघ का सामाजिक समरसता प्रोजेक्ट 

संघ की वार्षिक अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में भविष्य की राजनीति को देखते हुए स्वयंसेवकों को कुछ खास टास्क दिये गये थे. 12 से 14 मार्च, 2023 तक ये मीटिंग हरियाणा के पानीपत में हुई थी. मीटिंग के बाद आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले ने बताया था कि 2024 में संघ राष्ट्र के पुनरुत्थान के लिए पांच मोर्चों पर काम करेगा. संघ की स्थापना 1925 में हुई थी और अगले साल से शताब्दी वर्ष का जश्न शुरू हो जाएगा. आम चुनाव भी 2024 में ही होना है. 

आरएसएस के सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबले के अनुसार ये 5 मोर्चे हैं, 'सामाजिक समरसता, परिवार प्रबोधन, पर्यावरण संरक्षण, स्वदेशी आचरण और नागरिक कर्तव्य.' बाकी सब तो अपनी जगह हैं, ये सामाजिक समरसता कार्यक्रम ही है जो विपक्ष के जातिगत जनगणना अभियान का असर खत्म करने के लिए जोर शोर से चलाया जाना है. 

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संघ को लगता कि जातीय राजनीति बीजेपी के खिलाफ नये सिरे से एक साजिश के तहत शुरू की गयी है. जिसे पहले भी मंडल बनाम कमंडल की राजनीति के तौर पर देखा जा चुका है. संघ तो लगता है तभी सचेत हो गया था जब बिहार में नीतीश कुमार, तेजस्वी यादव के साथ मिल कर जातिगत जनगणना कराने के लिए मुहिम चला रहे थे. और एनडीए छोड़ने के बाद बिहार सरकार की तरफ से सर्वे कराने के बाद रिपोर्ट भी विधानसभा के पटल पर रख चुके हैं. 

संघ हमेशा ही हिंदू एकता के पक्ष में रहा है. अगर हिमंत बिस्वा सरमा जैसे बीजेपी नेता खुलेआम कहते हैं कि उनको मुस्लिम वोटों की कोई भी जरूरत नहीं है, तो उसका खास मतलब होता है, हर हाल में हिंदू वोट एकजुट रहे. 

सामाजिक समरसता अभियान के तहत संघ के कार्यकर्ता लोगों के बीच पहुंच कर सभी हिंदुओं के एकजुट रहने के लिए तो समझाएंगे ही, ऐसे लोगों और संस्थाओं के पास भी जाएंगे जिनका समाज में खासा प्रभाव हो. इसे 2019 के चुनाव से पहले बीजेपी के संपर्क फॉर समर्थन जैसे अभियान के तौर पर भी समझा जा सकता है. 

संघ नेता दत्तात्रेय होसबले के मुताबिक, संघ मंदिरों, स्कूलों और अलग अलग सामाजिक संस्थानों और संस्थाओं के पास पहुंच कर ये जानने और समझने की कोशिश करेगा कि सामाजिक समरसता के लिए और क्या और कैसे किया जा सकता है. मंदिर और दूसरी संस्थाओं की बात और है, लेकिन स्कूलों तक पहुंचना दूरगामी सोच को दर्शाता है. स्कूली बच्चे भी तो आने वाले दिनों में वोट देंगे - और अगर अभी से उन तक पहुंच बनायी जा सके तो फायदा ही फायदा है. अभी तक संघ की पहुंच सरस्वती शिशु मंदिर जैसे स्कूलों तक ही देखी जा रही थी, लेकिन अब इसे विस्तार देने की कोशिश हो रही है.

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सितंबर, 2023 में संघ की पुणे बैठक में भी सामाजिक समरता का एजेंडा अति महत्वपूर्ण चीजों में शामिल रखा गया था. संघ नेतृत्व की तरफ से बार बार ये बताने और समझाने की कोशिश चलती रही है कि हिंदू एकता का मुद्दा सवालों से परे है. तभी तो 2015 के बिहार चुनाव के दौरान आरक्षण की समीक्षा की पैरवी कर चुके संघ प्रमुख मोहन भागवत के मुंह से अब सुनने को मिल रहा है, 'सामाजिक व्यवस्था में हमने अपने बंधुओं को पीछे छोड़ दिया... हमने उनकी देखभाल नहीं की और यह 2000 वर्षों तक चला,' और ये सलाह भी कि लोगों को 200 साल तक आरक्षण के लिए तैयार रहना चाहिये.

कौन है हिंदू वोटर?

संघ हिंदू एकता की बात इसलिए करता है ताकि बीजेपी को मिल रहा वोट बंटने न पाये, लेकिन सारा हिंदू वोट तो बीजेपी को मिलता नहीं. फिर संघ किस हिंदू को एकजुट बनाये रखने के लिए जूझ रहा है? 

जैसे मोहन भागवत आरक्षण की व्यवस्था को आगे के लिए भी जरूरी मानने लगे हैं, ये भी सच है कि जातीय राजनीति भी शायद ही कभी खत्म हो सके. कई क्षेत्रीय दलों का अस्तित्व तो जाति विशेष के वोट बैंक पर ही टिका हुआ है, लेकिन बाकी दल ही कौन कहें कि चुनावों में जाति के आधार पर टिकट नहीं देते.  

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और दूसरे दलों की कौन कहे, बीजेपी भी तो हर सीट पर जाति विशेष की विवेचना के बाद ही उम्मीदवार फाइल करती है. जिताऊ उम्मीदवार तो जाति विशेष का ही होता है. जातीय राजनीति से तो बीजेपी इस कदर डरी हुई है कि उत्तर प्रदेश की योगी आदित्यनाथ सरकार में ओबीसी मंत्रियों का नंबर बढ़ाने के कयास लगाये जा रहे हैं. महिला बिल पर चर्चा के दौरान कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने ओबीसी सचिवों की संख्या पर सवाल उठा दिया था, तब तो बीजेपी ने जैसे तैसे जवाब देकर पल्ला झाड़ लिया - लेकिन दबाव तो बढ़ ही गया है. 

जमाने के साथ संघ भी अपने को अपडेट और अपग्रेड करने लगा है. दत्तात्रेय होसबले की बातों से तो ऐसा ही लगता है, 'ऐसे हिंदू भी हैं जो मंदिर नहीं जाते... कुछ ऐसे भी हैं जो मंदिर जाते ही हैं... कुछ ऐसे लोग हैं जो सभी मंदिरों में दर्शन करने जाया करते हैं... गुरुद्वारों में भी जाते हैं. हमारा मानना है कि कोई मंदिर जाता हो या नहीं, वो फिर भी हिंदू बने रह सकता है... हमारी तरफ से बस इतना ही निवेदन है कि कोई किसी भी धार्मिक स्थल पर जाये... वहां की परंपरा को जरूर माने.'

PEW रिसर्च के सर्वे से समझिये हिंदी, हिंदू और भाजपा का समीकरण- 

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1. बीजेपी को सबसे ज्यादा समर्थन और वोट उन हिंदुओं का मिलता रहा है जो हिंदू होने के साथ साथ भारतीय पहचान के साथ हिंदी भी बोलते हैं - 2019 में बीजेपी को ऐसे लोगों का सबसे ज्यादा वोट मिला था. 

2. सर्वे में 55 फीसदी लोगों हिंदू होने के लिए सच्चा भारतीय होना जरूरी माना है. 42 फीसदी लोग ऐसे भी मिले हैं जिनके लिए ये चीज कुछ हद तक ही मायने रखती है, लेकिन 33 फीसदी ऐसे भी हैं जिनको हिंदू होने के लिए राष्ट्रवादी होना जरूरी नहीं लगता है.

3. ऐसे ही सच्चे भारतीय होने के लिए हिंदी बोलना 59 फीसदी लोग महत्वपूर्ण मानते हैं, जबकि 44 फीसदी लोगों के लिए ये कुछ हद तक ही जरूरी लगता है, लेकिन 27 फीसदी लोग ऐसे भी मिले हैं जिनको हिंदी बोलना जरूरी नहीं लगता.

4. एक सच्चा भारतीय होने के लिए हिंदू होने के साथ साथ हिंदी बोलना भी जरूरी है, ऐसा 60 फीसदी लोग मानते हैं - लेकिन 33 फीसदी लोगों के लिए ये बात बहुत कम महत्व रखती है.

5. इस पैमाने पर खरा उतरने वाले हिंदुओं में भी 49 फीसदी ही बीजेपी को वोट देते हैं - और देश के अलग अलग हिस्सों में उनकी ये संख्या भी अलग अलग पायी गयी है.

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6. एक सच्चे भारतीय का हिंदू धर्म का पालन करना और हिंदी बोलना, बीजेपी के राष्ट्रवाद का प्रमुख आधार है, जो उत्तर भारत में तो चल जाता है, लेकिन दक्षिण भारत पहुंचते पहुंचते ये फॉर्मूला फेल हो जाता है. 

7. दक्षिण भारत में ऐसे हिंदू सिर्फ 19 फीसदी हैं जो बीजेपी को वोट देते हैं - दक्षिण भारत में हिंदी के विरोध को देखते हुए बीजेपी खुल कर कुछ नहीं बोल पाती. अमित शाह के हिंदी को लेकर बयान पर कैसा रिएक्शन हुआ, सबने देखा ही - और सेंगोल से लेकर बनारस में तमिल संगमम तक बीजेपी को कोई खास फायदा मिलने वाला हो, अब तक ऐसा कोई संकेत देखने को नहीं मिला है. 

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