साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर का टिकट काटे जाने की खबर आ रही है, और भोपाल से उनकी जगह मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के चुनाव लड़ने की चर्चा तेज हो चली है. शिवराज को भोपाल से टिकट मिलेगा या विदिशा से, इस पर तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं. लेकिन, साध्वी प्रज्ञा के टिकट कटने की संभावना सबसे ज्यादा बताई जा रही है. और इसका कारण भी किसी से छुपा नहीं है. बीजेपी में ऐसे कई नेता हैं जिनको लेकर काफी विवाद हुआ है.
ऐसी ही आंच उन नेताओं पर भी आ सकती है, और उनको लोक सभा चुनाव लड़ने के लिए बीजेपी के टिकट से वंचित होना पड़ सकता है - ऐसे नेताओं में सबसे पहले नाम तो यूपी के कैसरगंज से लोक सभा सांसद बृजभूषण शरण सिंह का ही लगता है, जो पहलवानों के यौन शोषण के आरोपों के चलते लगातार विवादों में रहे हैं.
और पश्चिम बंगाल में शाहजहां शेख की गिरफ्तारी के बाद ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस बीजेपी को कठघरे में खड़ा करने लगी है. टीएमसी की मांग है कि जैसे उसने शाहजहां शेख को पार्टी से छह साल के लिए सस्पेंड किया है, बीजेपी भी बृजभूषण शरण सिंह, अजय मिश्रा टेनी और हिमंत बिस्वा सरमा को बाहर का रास्ता दिखाये.
हिमंत बिस्वा सरमा को छोड़ भी दें तो बृज भूषण शरण सिंह और अजय मिश्रा टेनी बीजेपी के लिए ऐसे बोझ बन चुके हैं, जिनके भार से वो दबे रहना चाहती है, क्योंकि फायदा भी तो है - लेकिन प्रज्ञा ठाकुर के टिकट कटने की चर्चा के बीच ये सवाल तो उठ ही रहा है कि बृजभूषण शरण सिंह का क्या होगा. टीएमसी भले ही अजय मिश्रा टेनी का भी नाम ले रही हो, लेकिन बीजेपी लखीमपुर खीरी विवाद के बावजूद 2022 में यूपी विधानसभा चुनाव डंके की चोट पर जीत चुकी है.
प्रज्ञा ठाकुर और ब्रजभूषण शरण सिंह दोनों ही भाजपा के ऐसे सांसद हैं, जिन्हें लेकर पार्टी अलग-अलग कारणों से असहज रही है. प्रज्ञा ठाकुर पर बम ब्लास्ट के आरोप अपनी जगह हैं, लेकिन गोडसे को लेकर उनके बयान तो मोदी को भी चुभ गए हैं.
1. प्रज्ञा ठाकुर और ब्रजभूषण शरण सिंह में समानता
नूपुर शर्मा प्रकरण से एक बात तो साफ हो गई, बीजेपी अब ऐसे विवादों को तूल नहीं देना चाहती जिनसे उसका 'सबका साथ सबका विकास' जैसा नारा प्रभावित होने लगे - और डिफेंड करने के लिए बीजेपी नेताओं और प्रवक्ताओं को बगलें झांकनी पड़े.
फजीहत तो यूपी में अजय मिश्रा टेनी की वजह से भी हुई, और कभी कभार साक्षी महाराज के चलते भी होती है, लेकिन बीजेपी कोई न कोई सेफ पैसेज ढूंढ लेती रही है. यूपी में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के ठाकुरवाद के आरोपों के बीच बीजेपी ब्राह्मण वोटर को बहुत ज्यादा नाराज करने का जोखिम नहीं उठा रही है - जहां जहां वोट बैंक का सवाल है, वहां बीजेपी को कोई न कोई उपाय खोजने पड़ते हैं, या जरूरी इंतजाम करने पड़ते हैं.
अगर हरियाणा में बलात्कारी राम रहीम को बार बार जेल से बाहर आने का मौका मिल जाता है, तो उसके पीछे उसकी ताकत ही है, जिसके आगे हरियाणा की बीजेपी सरकार को झुकना पड़ता है - हो सकता है हाई कोर्ट का डंडा चलने के बाद से ये फ्रिक्वेंसी थोड़ी कम हो जाये. और कुछ दिन तक बीजेपी कार्यकर्ताओं से राम रहीम को अपनी संगतों में 'पिताजी-पिताजी' सुनने को न भी मिले.
आपको याद होगा राम रहीम को जब सजा हुई थी, तो साक्षी महाराज का बयान आया था जिसमें वो उसे बेकसूर बताने की कोशिश कर रहे थे. उनकी नजर में तो बीजेपी विधायक रहे उन्नाव वाले बलात्कारी कुलदीप सेंगर भी साजिश का शिकार हो गया. अदालत से मिली सजा काट रहे कुलदीप सेंगर को चुनाव जीतने के बाद धन्यवाद देने और जन्मदिन पर बधाई देने भला साक्षी महाराज को जाने की जरूरत क्यों पड़ती है - वैसे भी ऐसे ही कामों के लिए तो उनको चुनावों में टिकट मिलता रहा है.
और साक्षी महाराज की ही तरह प्रज्ञा ठाकुर को भी संसद भेजा जाता है, और पहुंचते ही वो महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को देशभक्त बताने लगती हैं - हो सकता है, इस बार साक्षी महाराज का भी टिकट कट जाये, और जरूरी नहीं कि कहीं और उनको ऐडजस्ट किया जाये - लेकिन प्रज्ञा ठाकुर के साथ कुछ ऐसा वैसा नहीं होगा, कुछ न कुछ अच्छा ही होगा.
प्रज्ञा ठाकुर और बृजभूषण शरण की एक साथ बात करें, तो दोनों ही विवादित नेता रहे हैं. और दोनों ही नेताओं की हरकतों से बीजेपी को बचाव की मुद्रा में आना पड़ा है - दोनों की खास उपयोगिता की वजह से अलग अलग जरूरत भी है, लेकिन फजीहत कहां तक झेली जाये ये भी बहुत बड़ा सवाल है.
2. भाजपा के लिए क्यों आसान है प्रज्ञा पर फैसला लेना, जबकि ब्रजभूषण पर नहीं
प्रज्ञा ठाकुर की भी कट्टर हिंदुत्व वाली लाइन की नेता की छवि है, और बृजभूषण शरण सिंह की भी - लेकिन राम मंदिर आंदोलन में उनकी भूमिका को नजरअंदाज करना बीजेपी के लिए फिलहाल तो संभव नहीं है, जब अयोध्या आंदोलन की पूर्णाहूति के रूप में राम मंदिर का उद्घाटन भी हो चुका हो. और बीजेपी मंदिर मुद्दे के बूते ही 'अबकी बार 400 पार' का नारा दे रही हो.
बृजभूषण शरण सिंह का नाम भी सीबीआई के अभियुक्तों की लिस्ट में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और कल्याण सिंह के साथ रहा है, हालांकि - 2020 में अदालत ने उनको सभी आरोपों से मुक्त कर दिया था.
1991 में बृजभूषण शरण सिंह ने राम मंदिर आंदोलन के उफान के दौरान ही अपना पहला लोकसभा चुनाव बीजेपी के टिकट पर ही लड़ा था, और करीब एक लाख वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी - और तभी उत्तर प्रदेश में पहली बार बीजेपी की सरकार बनी थी, और कल्याण सिंह मुख्यमंत्री बने थे.
यही चीजें प्रज्ञा ठाकुर से बृजभूषण शरण सिंह को अलग करती हैं, और अहमियत बढ़ा देती हैं - एक बात तो पूरी तरह साफ है बृजभूषण शरण सिंह को प्रज्ञा की तरह नजरअंदाज नहीं किया जा सकता.
प्रज्ञा ठाकुर निश्चित तौर पर बीजेपी की जरूरत हैं, जिम्मेदारी नहीं जो बोझ बन जाये और ढोना मुश्किल हो जाये, लेकिन बृजभूषण शरण सिंह का मामला अलग है. प्रज्ञा ठाकुर की नाराजगी को बीजेपी किसी न किसी तरीके से हैंडल कर सकती है, लेकिन बृजभूषण अगर औकात पर उतर आयें तो डैमेज कंट्रोल काफी मुश्किल होगा. मतलब, बीजेपी नेतृत्व चाह कर भी जोखिम नहीं ले सकता.
3. ब्रजभूषण को भी टिकट न दिया तो उनकी सीट के बारे में क्या हो सकता है प्लान बी
जब दिल्ली में पहलवानों का आंदोलन चल रहा था, और बीजेपी की उलझन थोड़ा थोड़ा करके सामने आने लगी थी, अखिलेश यादव का भी एक बयान आया था. और उसके बाद बृजभूषण सिंह ने भी अलग अलग तरीके से संकेत दे रहे थे कि अगर बीजेपी ने मुंह फेरा तो उसके पास और भी ऑप्शन हैं - और एक बार वो ऐसा कर भी चुके हैं.
लेकिन बीजेपी भी एक दायरे में रह कर ही खुल कर बृजभूषण शरण के साथ खड़ी हो सकती है. दिल्ली की अदालत ने 6 महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न के आरोप के मामले में बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ आरोप तय करने से जुड़ा अपना आदेश सुरक्षित रख लिया है. राउज़ एवेन्यू कोर्ट ने आदेश की घोषणा के लिए 15 मार्च की तारीख तय की है.
ऐसे में बीजेपी के लिए बृजभूषण शरण सिंह को चुनाव मैदान में उतारना मुश्किल हो सकता है. 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में सबने देखा ही कि किस तरह केंद्रीय गृह मंत्री अपने जूनियर अजय मिश्रा टेनी को साथ तो ले जा रहे थे, लेकिन तस्वीरें वायरल हो जाने के बाद छुपाते फिर रहे थे.
प्रतिकूल परिस्थितियों में बृजभूषण शरण सिंह की जगह उनके बेटे या जिसका भी नाम वो प्रस्तावित करें, बीजेपी टिकट दे सकती है - और अपने दबदबे वाले इलाके में जिसे वो चाहें या जिस किसी भी नाम सुझा सकते हैं जिस पर दोनों पक्षों की सहमति बन सके.
4. प्रज्ञा ठाकुर के राजनीतिक करिअर का ये अंत नहीं है
प्रभा ठाकुर का मामला काफी अलग हो जाता है. वो साध्वी हैं, और बृजभूषण शरण सिंह की तरह उनका कोई परिवार नहीं है जिसे ऐडजस्ट किया जा सके - लेकिन बीजेपी के लिए वो इतनी महत्वपूर्ण नेता तो हैं ही कि उनका सम्मान और रुतबा बरकरार रखने की कोशिश की जाये.
प्रज्ञा ठाकुर को राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण कोई न कोई ओहदा या जिम्मेदारी तो मिलनी ही चाहिये, क्योंकि सनातन पर बोलने वाला भी तो कोई होना चाहिये. जिन मुद्दों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या बीजेपी नेता अमित शाह या कोई और बड़ा नेता जवाब नहीं दे पाता, प्रज्ञा ठाकुर वहां काम तो आती ही हैं.
नाथूराम गोडसे पर बीजेपी का स्टैंड जग जाहिर है, किसी नाजुक मौके पर खुल कर बोलना हो तो भला कौन सामने आएगा? लेकिन प्रज्ञा ठाकुर तो बड़े सहज भाव से सारी बातें बोल देंगी. उनको फर्क कहां पड़ता है, कोई मन से माफ करे न करे.
मान कर चलना होगा कि साध्वी प्रज्ञा ठाकुर के लिए भी मोदी-शाह ने कुछ न कुछ अच्छा तो सोच ही रखा होगा. हो सकता है, उसके लिए प्रज्ञा ठाकुर को नई सरकार बनने तक इंतजार भी करना पड़े.