हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा के समर्थकों के बीच सत्ता में वापसी का जो माहौल बना था, एग्जिट पोल ने भी बरकार रखा - लेकिन चुनाव नतीजों ने तो कांग्रेस नेतृत्व तक के सपनों को भी चकनाचूर कर दिया है.
जरा सोचिये, अशोक तंवर ने आखिर क्या सोच कर घर वापसी का फैसला किया होगा. कांग्रेस छोड़कर पाला बदलते बदलते वो बीजेपी में पहुंच चुके थे. एक दिन दोपहर में बीजेपी के लिए वोट मांग रहे थे और शाम तक वो कांग्रेस में पहुंच गये.
कल्पना कीजिये अशोक तंवर पर क्या बीत रही होगी. क्या अशोक तंवर की तकलीफ भूपेंद्र सिंह हुड्डा या राहुल गांधी से कम होगी? कुमारी सैलजा की तो तकलीफ जरा अगल किस्म की है, हो सकता है, फिलहाल वो थोड़ी राहत भी महसूस कर रही हों - और हो सकता है अशोक तंवर भी कुमारी सैलजा वाली फीलिंग लाकर खुद को तसल्ली दे रहे हों.
कुमारी सैलजा और अशोक तंवर दोनो का कॉमन दुख है, और एक ही दुश्मन है हुड्डा परिवार. 2014 में कांग्रेस की हार के बाद राहुल गांधी ने अशोक तंवर को हरियाणा कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया था, लेकिन 2019 आते आते भूपेंद्र सिंह हुड्डा अध्यक्ष तो नहीं बन पाये, लेकिन पार्टी पर काबिज तो हो ही गये - लेकिन हार की हैट्रिक लगा चुके हुड्डा को भी अब आलाकमान के किसी भी फैसले को फेस करने के लिए पहले से ही तैयार हो जाना चाहिये.
अगर हरियाणा में कांग्रेस को जीत हासिल हुई होती तो क्रेडिट अपनेआप राहुल गांधी को मिल जाता, लेकिन अब तो हार का ठीकरा सिर्फ और सिर्फ हुड्डा परिवार पर ही मढ़ा जाएगा. ताकत तो जीत से ही मिलती है, हार तो हर किसी को कमजोर कर देती है.
बहरहाल, मुद्दे की बात ये है कि कैसे हरियाणा में दलित समुदाय ने कांग्रेस के पैरों तले की जमीन खींच ली है, और क्यों?
1. दलित-जाट हिंसा के पुराने जख्मों को कुरेदने में कामयाब रही बीजेपी
2005 में गोहाना में दलित-जाट संघर्ष हुआ था, और वैसे ही 2010 में मिर्चपुर में. दोनो घटनाओं में अंतर जरूर पांच साल का था, लेकिन दोनो बार दलितों के घर जलाये गये थे. मिर्चपुर में एक बच्ची, और एक बुजुर्ग को जिंदा जला दिया गया था.
उसी गोहाना की रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आरोप लगाया कि कांग्रेस ने दलितों और ओबीसी को ठगने का काम किया है. मोदी ने अपनी स्टाइल में समझाया कि 2014 से पहले हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा की सरकार थी… हुड्डा की सरकार में... शायद ही ऐसा कोई साल रहा हो, जब दलितों और ओबीसी के उत्पीड़न की घटनाएं न हुई हों.
और सिर्फ प्रधानमंत्री ही नहीं, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, पूर्व मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर और मुख्यमंत्री नायब सैनी ने अपनी चुनाव रैलियों में बार बार इन घटनाओं की याद दिलाकर पुराने जख्मों को कुरेदने की भरपूर कोशिश की.
चुनाव नतीजे तो यही बता रहे हैं कि बीजेपी अपने मिशन में कामयाब है, और कांग्रेस को भारी कीमत चुकानी पड़ी है.
2. कांग्रेस का फोकस जाट और ओबीसी का तरफ ज्यादा रहा
हरियाणा में 17 विधानसभा सीटें दलितों के लिए आरक्षित हैं, और सूबे की 20-25 सीटों पर दलित वोट बैंक का दबदबा देखा जाता रहा है. हरियाणा में करीब 20 फीदसी दलित हैं, और कुल आबादी में से 40 फीसदी पिछड़ों की हिस्सेदारी है.
लेकिन हरियाणा की 18-20 सीटों पर ही ओबीसी वोटर का सीधा रहता है. मनोहरलाल खट्टर को हटाकर ओबीसी नेता नायब सैनी को मुख्यमंत्री बनाने के पीछे यही वजह थी. बीजेपी ने सबसे ज्यादा 24 ओबीसी नेताओं को टिकट दिया था, जबिक कांग्रेस ने भी पिछड़े वर्ग के 20 उम्मीदवार उतारे थे.
जाट वोटर का हरियाणा की 35-40 सीटों पर प्रभाव माना जाता है, जिनकी आबादी करीब 27 फीसदी है. और यही वजह रही कि कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 35 जाट उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतारे थे.
कांग्रेस के साथ मुश्किल ये हुई कि 2014 में जाट INLD के साथ चले गये, जबकि 2019 में जेजेपी के साथ - और इस बार वे कांग्रेस का रुख करने के बजाय, बीजेपी की तरफ लामबंद हो गये.
3. दलित समुदाय ने कुमारी सैलजा की नाराजगी भांप ली, और कांग्रेस से मुंह मोड़ लिया
भले ही कुमारी सैलजा का दलित आबादी में वैसा जनाधार न हो जैसा जाटों में भूपेंद्र सिंह हुड्डा का है, लेकिन कुमारी सैलजा की नाराजगी सामने आने के बाद दलित समुदाय का कांग्रेस से मोहभंग हो गया.
मौका देखकर कांग्रेस के विरोधियों ने कुमारी सैलजा को अपने पास बुलाना शुरू कर दिया था. बीएसपी की तरफ से पेशकश तो की ही गई, केंद्रीय मंत्री मनोहरलाल खट्टर ने कुमारी सैलजा को बीजेपी में आने की सलाह दे डाली. विधानसभा का टिकट न मिलने से नाराज होने के बावजूद कुमारी सैलजा ने राजनीतिक बयान दिया, सैलजा कांग्रेस में थी... कांग्रेस में है, और कांग्रेस में रहेगी... कांग्रेस मेरा कमिटमेंट है... कांग्रेस मेरी विचारधारा है... कांग्रेस हमारा नेतृत्व है.
कांग्रेस का मल्लिकार्जुन खड़गे को अध्यक्ष बनाना भी काम नहीं आया. बीएसपी के युवा नेता आकाश आनंद तो राहुल गांधी को दलितों के प्रति गद्दार और मल्लिकार्जुन खरगे को चापलूस तक बता डाले. राहुल गांधी की अमेरिका यात्रा के दौरान आरक्षण पर उनके बयान को लेकर भी बीएसपी ने खूब खरी खोटी सुनाई थी.
4. बसपा और चंद्रशेखर आजाद के कैंपेन ने दलित वोटरों को एक विकल्प और दिया
मायावती भले ही लोकसभा सांसद चंद्रशेखर आजाद पर हमलावार दिखीं, लेकिन भीम आर्मी नेता ने भी कांग्रेस की ही जड़ें खोदने का काम किया है. हरियाणा में बीएसपी और चंद्रशेखर आजाद ने चुनावी गठबंधन कर रखा था. INLD के साथ चुनावी गठबंधन कर बीएसपी 37 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी, और जेजेपी के साथ आजाद समाज पार्टी भी 20 सीटों पर चुनाव लड़ रही थी.
नतीजों से तो मायावती या चंद्रशेखर का हरियाणा के दलित वोटर पर कोई खास प्रभाव तो नहीं नजर आ रहा है, लेकिन जिस तरह से कांग्रेस उम्मीदवारों को थोड़े से वोटों के अंतर से जीत के लिए जूझना पड़ा है, बीएसपी और आजाद समाज पार्टी की भूमिका तो साफ साफ समझ आ रही है.