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अरविंद केजरीवाल को भारी पड़ीं ये 7 राजनीतिक गलतियां

अरविंद केजरीवाल की कश्ती तो नहीं डूबी है, लेकिन जहां है वहां पानी बहुत ज्यादा बह रहा है. न तो गैरों ने, न ही अपनों ने, बल्कि अरविंद केजरीवाल अपनेआप ऐसी कश्ती पर सवार हैं जो उनकी गलतियों से डूब जाने की आशंकाओं से घिरी है - सपनों की कौन कहे, वो तो उम्मीदों के सौदागर साबित हो रहे हैं.

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अरविंद केजरीवाल जिस मकसद से राजनीति में आये थे, उसी पर टिके रहते तो अच्छा होता
अरविंद केजरीवाल जिस मकसद से राजनीति में आये थे, उसी पर टिके रहते तो अच्छा होता

अरविंद केजरीवाल आज शराब घोटाले के कारण जेल की दहलीज पर खड़े हैं. इसके अलावा कई और मामलों की तलवार उन पर लटक रही है. लेकिन, आज वे जिस भंवर में फंसे हैं, उसके लिए उनकी ही गलतियां जिम्‍मेदार हैं. कहानी तो केजरीवाल के राजनीतिक उभार के साथ ही शुरू हो गई थी. अन्ना हजारे को आगे कर रामलीला आंदोलन के आर्किीटेक्ट बने अरविंद केजरीवाल ने जब राजनीति का रुख किया तो हीरो बन गये थे - और ये 2014 के भी पहले की बात है. 

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2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल ने तत्कालीन मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के इलाके में घुस कर चुनावी शिकस्त दे डाली थी, लेकिन आम आदमी पार्टी को बहुमत नहीं दिला सके थे, लिहाजा कांग्रेस की मदद से दिल्ली में सरकार बनाये - और मुख्यमंत्री बने, लेकिन ज्यादा दिन नहीं चल सके. 49 दिन की सरकार से इस्तीफा देकर चलते बने. बताने की कोशिश की कि लोकपाल बनाने के लिए राजनीति में आये थे, लेकिन जब वही नहीं कर पाये तो सरकार में रहने का क्या फायदा. 

साल भर बाद जब 2014 का चुनाव आया तो बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी को चैलेंज करने वाराणसी पहुंच गये. लोकसभा चुनाव लड़े, वोट भी ठीक ठाक पाये - लेकिन हार जीत का फासला भी काफी बड़ा था. 

एक साल और बीता, और 2015 में दिल्ली में फिर से विधानसभा चुनाव हुए. अरविंद केजरीवाल ने घूम घूम कर दिल्ली वालों से माफी मांगी, माफी मांगने के मामले में 70 में से 67 अंकों से पास भी हो गये - लेकिन उसके बाद ऐसी ऐसी गलतियां करते गये जो आने वाले दिनों में भारी पड़ती गईं.

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अरविंद केजरीवाल विपश्यना के लिए चले गये, और आम आदमी पार्टी की अनुशासन समिति ने योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण सहित चार नेताओं को बाहर का रास्ता दिखा दिया - लेकिन वे दोनों भी अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का वैसे ही विरोध कर रहे हैं, जैसे विपक्षी खेमे के बाकी नेता. आपको याद होगा जब कपिल मिश्रा ने अरविंद केजरीवाल पर दो करोड़ की रिश्वत लेने का इल्जाम लगाया था तो भी योगेंद्र यादव और कुमार विश्वास ने यकीन करने से इनकार कर दिया था. 

धीरे धीरे कई साथी अरविंद केजरीवाल का साथ छोड़ कर चले गये. जब आशुतोष ने सोशल मीडिया पर आम आदमी पार्टी छोड़ने की घोषणा की, तो अरविंद केजरीवाल का रिएक्शन था, नहीं सर... आप हमें छोड़ कर नहीं जा सकते, लेकिन कभी ऐसा नहीं लगा कि अरविंद केजरीवाल किसी और साथी को वापस लेने की कोशिश कर रहे हों - बीजेपी के बाद पार्टी विद डिफरेंस होने का दावा करने वाली आम आदमी पार्टी के अलग होने की बस यही एक मिसाल नजर आती है. 

1. भ्रष्टाचार का मुद्दा उठाया, लेकिन छोड़ भी दिया: महत्वाकांक्षी होना अच्छी बात है. अति महत्वाकांक्षी होना भी बुरा नहीं है, लेकिन सब कुछ जल्दी जल्दी हासिल कर लेने की हड़बड़ी अच्छी नहीं होती. अरविंद केजरीवाल ने ऐसी राजनीति शुरू की थी जिसे विचारधारा का मोहताज होने की कतई दरकार नहीं थी - जब कॉज बड़ा हो तो विचारधारा मायने नहीं रखता, क्योंकि सभी साथ खड़े हो जाते हैं. 

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अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेड़ी थी. तब देश में कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की सरकार थी. भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सरकार को बार बार बचाव की मुद्रा में आना पड़ रहा था - अरविंद केजरीवाल ने तो मौके का फायदा उठाया ही, बीजेपी ने तो उनसे कहीं ज्यादा ही फायदा उठा लिया. 

भ्रष्टाचार का मुद्दा छोड़ देना अरविंद केजरीवाल की गलतियों में ही शामिल माना जाएगा - विडंबना है कि भ्रष्टाचार का नायक करप्शन के आरोप में ही गिरफ्तार कर लिया गया है. 

2. लोकपाल को छोड़ हिंदुत्व के रास्ते चल पड़े: देश और देश की राजनीति से भ्रष्टाटार के खात्मे के लिए अरविंद केजरीवाल ने लोकपाल की मांग के साथ आंदोलन किया था, और उसे ही आगे बढ़ाने के वादे के साथ राजनीति में आये. कुछ साथियों ने कदम पीछे खींच लिये, लेकिन बहुत सारे लोग जुड़ने भी लगे. जुड़ते गये, और फिर साथ भी छूट गया. 

अरविंद केजरीवाल ने भ्रष्टाचार का मुद्दा और लोकपाल की मांग से ही तौबा कर लिया. अव्वल तो देश में लोकपाल की व्यवस्था लागू है, लेकिन वो अरविंद केजरीवाल के जनलोकपाल वाले मॉडल से अलग है. तब सरकार के लोकपाल के मॉडल को अरविंद केजरीवाल ने जोकपाल बता दिया था.

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भ्रष्टाचार का मुद्दा छोड़ केजरीवाल आगे बढ़े तो हिंदुत्व के एजेंडे की ओर बढ़ने लगे. और वो भी सिर्फ जय श्रीराम बोलने तक ही नहीं रुके, नोटों पर लक्ष्मी और गणेश की तस्वीर लगाने की मांग करने लगे.

3. माफी मांगकर विश्वसनीयता खो बैठे: अरविंद केजरीवाल ने शुरू शुरू में बहुत सारी आदर्शवादी बातें की, लेकिन धीरे धीरे पलटते गये. सादगी की प्रतिमूर्ति बनने की कोशिश पीछे छूटती चली गई - और सरकारी आवास में नवनिर्माण का काम भी जांच के घेरे में जा पहुंचा - सीबीआई तक. 

शुरू से लेकर काफी दिनों तक अरविंद केजरीवाल किसी भी नेता को भ्रष्टाचार में शामिल होने का आरोप लगा देते थे. बाद में जब मामला कोर्ट में पहुंचा और मानहानि के मुकदमों में फंसने लगे तो माफी मांगना शुरू कर दिया - और ऐसा करके अरविंद केजरीवाल इस मामले तो तो विश्वसनीयता ही खो बैठे

4. विपक्षी खेमे में अकेले हीरो बनने की कोशिश: अरविंद केजरीवाल अपनी स्टाइल में राजनीति करना चाहते हैं, लेकिन लगता नहीं कि वो राजनीतिक दांवपेचों की बारीकियां कभी दूसरे नेताओं से सबक के रूप में सीखते या सीखना चाहते हैं. 

ममता बनर्जी कठिन राजनीतिक लड़ाई लड़ी है. तमिलनाडु में जयललिता भी राजनीतिक संघर्ष और जीत की मिसाल रही हैं. जयललिता की तरह ममता बनर्जी ने भी पुरानी पार्टी में अपना गुट मजबूत कर लड़ाई लड़ी थी, ममता बनर्जी ने अपनी पार्टी बनाकर लड़ाई लड़ी, लेकिन अकेले नहीं. तब तक कांग्रेस के साथ बनी रहीं, जब तक पश्चिम बंगाल से लेफ्ट का सफाया कर खुद सत्ता पर काबिज नहीं हो गईं. 

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कहा तो यहां तक जाता है कि रामलीला आंदोलन में अरविंद केजरीवाल को RSS का भी साथ मिला था, और कांग्रेस के साथ तो पहली सरकार ही बनाये थे - लेकिन कालांतर में दोनों से दुश्मनी मोल लिये, और अकेले हीरो बनने की कोशिश में अलग अलग थलग पड़े रहे. कहने को तो वो INDIA ब्लॉक के सदस्य हैं, लेकिन खुद ही अपने बूते नहीं खड़ा हो पा रहा है.  

5. अनुभवी और काबिल लोगों के साथ यूज एंड थ्रो पॉलिसी: राजनीति में अच्छी तरह पांव जमाने से पहले ही अरविंद केजरीवाल ने प्रशांत भूषण और योगेंद्र यादव जैसे अनुभवी साथियों को आम आदमी पार्टी से बाहर निकाल दिया - और उसकी कीमत अरविंद केजरीवाल को आज चुकानी पड़ रही है. 

अरविंद केजरीवाल के भी जेल चले जाने के बाद आम आदमी पार्टी में ले देकर गोपाल राय बचे हैं जो राजनीति में थोड़े अनुभवी हैं, वरना बाकी तो छात्र संघों की तरह बच्चा पार्टी ही हैं - राजनीति का मतलब सिर्फ सोशल मीडिया पर पोस्ट डालना और मीडिया के सामने आकर बयान देना भर नहीं होता - आगे क्या करना है, कैसे करना है इसकी भी तैयारी करनी होती है. 

6. मजबूत साथियों को भी नहीं रोक पाये: जो कुमार विश्वास अभी मजे ले रहे हैं, और जो कपिल मिश्रा अरविंद केजरीवाल के खिलाफ आग उगल रहे हैं, किसी जमाने में उनके बचाव में फायरिंग स्क्वॉड की अगुवाई किया करते थे - अभी तो कुल जमा आतिशी और सौरभ भारद्वाज मोर्चे पर हैं, जिनका गला सूख रहा होगा.

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7. निजी हमले करके सभी नेताओं से दुश्मनी मोल लेना: सोनिया गांधी तक को जेल भिजवाने के दावे करने वाले अरविंद केजरीवाल दिल्ली में चाहे जितने भी काम किये हों, लेकिन सत्ता के गलियारों में ऐसे कम ही लोग होंगे जो उनके जेल जाने पर दुखी हो रहे होंगे - समाज में रहने के लिए दिखावे तो करने ही पड़ते हैं. वे सिर्फ पीएम मोदी को ही साईकोपैथ और अनपढ़ नहीं कहते रहे हैं, उनके निशाने पर विपक्ष के कई बड़े नेता आए हैं.
 
अरविंद केजरीवाल बहुतों की उम्मीद थे. क्या दिल्ली और क्या देश, एक दौर ऐसा भी रहा जब दुनिया के कोने कोने में रह रहे भारतीय अरविंद केजरीवाल को बड़ी उम्मीद के साथ देख रहे थे. कई तो बड़े बड़े ओहदे और करोड़ों का पैकेज छोड़कर देश के लिए कुछ करने की उम्मीद लेकर लौट आये. लेकिन अरविंद केजरीवाल ने किसी की भी परवाह नहीं की. 

सपनों का मर जाना बहुत खतरनाक नहीं होता, उम्मीदों का टूटना सबसे खतरनाक होता है.

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