शरद पवार महाराष्ट्र की राजनीतिक के दिग्गज तो हैं ही, देश की राजनीति में भी वो खास हैसियत रखते हैं. अपने अनुभव, काबिलियत और पार्टीलाइन से परे संबंधों को लेकर भी - और ऐसे में बाीरामती के मैदान से उनका संन्यास लेने जैसा बयान बड़ा इमोशनल कार्ड ही लगता है.
ये तो नहीं साफ है कि आगे से वो चुनाव नहीं लड़ने जा रहे हैं, लेकिन अभी ये नहीं मालूम कि वो राजनीति से भी संन्यास लेने का फैसला कर चुके हैं. खास बात ये है कि ऐसी बात बोलने के लिए शरद पवार ने बारामती को चुना, जो बरसों से उनका अपना गढ़ रहा है - और मुश्किल हालात में लोकसभा चुनाव में भी वो अपना दबदबा साबित कर चुके हैं.
बेशक उनके भतीजे अजित पवार बगावत करके पार्टी पर काबिज हो गये, लेकिन चुनाव निशान घड़ी के सशर्त इस्तेमाल की ही छूट मिली हुई है, और वो भी तब तक जब तक कि सुप्रीम कोर्ट फैसला नहीं सुना देता. 24 अक्टूबर को हुई पिछली सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट ने अजित पवार को राहत जरूर दी थी, लेकिन साफ तौर पर बोल दिया था कि महाराष्ट्र विधानसभा में चुनाव निशान के इस्तेमाल में लोकसभा जैसी ही शर्तें लागू रहेंगी - और ये बाद अनिवार्य रूप से चुनावी पोस्टर और बैनर में बताना ही होगा.
2019 के सतारा उपचुनाव से लेकर 2024 के बारामती लोकसभा सीट की लड़ाई तक शरद पवार ने हर बार खुद को बाकियों पर बीस साबित किया है - और ये सब उनकी राजनीतिक सूझबूझ और लोकप्रियता की बदौलत ही संभव हो पाया है.
सबसे बड़ी बात शरद पवार का विल-पॉवर है, जिसकी वजह से वो कैंसर जैसी बीमारी पर भी जीत हासिल कर चुके हैं. 20 साल पहले एक डॉक्टर ने शरद पवार से कहा था कि वो 6 महीने में अपने सारे काम पूरे कर लें, लेकिन शरद पवार का जवाब था, 'मैं बीमारी की चिंता नहीं करता, आप भी मत करो.' ये बात भी शरद पवार ने ही बताई थी कि 2004 के लोकसभा चुनाव के दौरान उनको बीमारी का पता चला था. एक दौर ऐसा भी रहा जब वो सुबह 9 बजे से 2 बजे तक केंद्र के कृषि मंत्रालय के काम निबटाते थे, और उसके आधे घंटे बाद 2.30 तक कीमोथेरेपी के लिए अस्पताल पहुंच जाते थे.
ये बारामती की दूसरी लड़ाई है
जैसे रामलीला आंदोलन को अन्ना हजारे आजादी की दूसरी लड़ाई का नाम दिये थे, शरद पवार के लिए अपने गढ़ में ही ये बारामती की दूसरी लड़ाई है. पहली लड़ाई वो जीत चुके हैं, लेकिन दूसरी अभी दांव पर है.
लोकसभा चुनाव की पिछली लड़ाई में सीधे सीधे तो न शरद पवार मैदान में थे, न ही अजित पवार लेकिन इस बार मामला बिलकुल अलग है - महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में अजित पवार की खुद की किस्मत दांव पर है, क्योंकि वो खुद ही उम्मीदवार हैं.
लोकसभा चुनाव में शरद पवार की तरफ से उनकी बेटी सुप्रिया सुले चुनाव लड़ रही थीं, और उनको टक्कर दे रही थीं, अजित पवार की पत्नी सुनेत्रा पवार - और ननद-भौजाई की जंग में सुप्रिया सुले ने शिकस्त दी थी, जिसके चलते जीत शरद पवार के हिस्से में आई, और हार अजित पवार के खाते में.
बारामती की एक लड़ाई वो जरूर जीत चुके हैं, लेकिन लोकसभा की ही तरह विधानसभा सीट जीतने के बाद ही साबित कर पाएंगे कि अजित पवार का अपना कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी उनके पास है, सीनियर पवार का ही दिया हुआ है.
शरद पवार ने 1996 से 2009 तक बारामती लोकसभा सीट का प्रतिनिधित्व किया है, और उसके बाद से सुप्रिया सुले लगातार चुनाव जीतती आ रही हैं, जिसमें सबसे मुश्कि्ल 2024 का चुनाव रहा है. बारामती विधानसभा सीट की बात करें तो शरद पवार 1990 तक चुनाव जीतते रहे, और उसके बाद से अजित पवार लगातार विधायक बने हुए हैं.
बारामती में शरद पवार की जिस स्टाइल ने ध्यान खींचा वो था उनके मुंह से अजित पवार के खिलाफ एक शब्द भी न निकलना. हालांकि, अपने पूरे हाव-भाव से वो लगातार बताते रहे कि वो अपने पोते युगेंद्र पवार के ही साथ हैं. युगेंद्र पवार, अजित पवार के भतीजे हैं लेकिन चुनाव मैदान में चाचा-भतीजा आमने सामने हैं.
जो सबसे महत्वपूर्ण बात शरद पवार ने कही, वो ये थी कि नई पीढ़ी को मौका दिया जाना चाहिये. ये उनके अपने चुनाव न लड़ने के फैसले से तो साफ है ही, लगे हाथ शरद पवार ने ये भी इशारा किया है कि अब दूसरी नहीं बल्कि तीसरी पीढ़ी को मौका देना जरूरी है, तभी तरक्की और दूसरे काम होंगे.
कुल मिलाकर कह सकते हैं कि लोकसभा चुनाव में जो चैलेंज सुप्रिया सुले फेस कर रही थीं, फिलहाल अजित पवार भी वैसी ही मुश्किल स्थिति से गुजर रहे हैं.
शरद पवार की इमोशनल अपील का संभावित असर
1. कोई शक शुबहे वाली बात नहीं कि शरद पवार की तरफ से ये सब सहानुभूति जुटाने के मकसद से ही किया गया ऐलान है, और ये कारगर भी होता रहा है. जैसे 2019 में मैनपुरी के मंच से मुलायम सिंह यादव ने कहा था, 'जिता देना, ये आखिरी बार है' - और लोगों ने भी उनकी बात भी रखी. शरद पवार चाहते हैं कि बारामती के लोग लोकसभा चुनाव जैसा ही फैसला दें, और अजित पवार चुनाव हार जायें.
2. शरद पवार के सामने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में बारामती सहित ज्यादा से ज्यादा सीटें जीतने की चुनौती सामने आ खड़ी हुई है. लोकसभा के नतीजे तो पिता-पुत्री के लिए बूस्टर डोज की ही तरह थे. भतीजे अजित पवार के हाथों राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी गंवा देने के बाद उनके अपने हिस्से आईं महाराष्ट्र की लोकसभा सीटें बहुत बड़ा संबल बनीं, खासकर सुप्रिया सुले की जीत तो प्रतिष्ठा का सवाल बन गई थी.
3. शरद पवार का ये कदम बेटी सुप्रिया सुले को पार्टी का नेतृत्व हैंडओवर करने का संकेत भी हो सकता है. अभी तक तो सुप्रिया सुले पिता के साये में या उनके नाम पर संदेशवाहक बनकर काम करती रही हैं, लेकिन अब वो खुल कर खेल सकती हैं - वैसे भी, रास्ते का कांटा बने चचेरे भाई मैदान से हट ही चुके हैं.
4. लेकिन, सब कुछ पॉजिटिव ही हो, ऐसा होता तो कभी नहीं है. लिहाजा, ये कदम दोधारी तलवार जैसा भी हो सकता है. मुमकिन है लोग शरद पवार को छोड़ कर आगे बढ़ जायें, और दूसरे दलों का रुख कर लें - ये खतरा तो बना ही हुआ है.