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शशि थरूर को लेकर दुविधा की स्थिति में क्यों है कांग्रेस?

शशि थरूर की समस्या यह है कि उन्हें किसी एक 'गुट' में फिट नहीं किया जा सकता. वे एक सार्वजनिक बुद्धिजीवी हैं, जो शायद साहित्यिक महोत्सवों के माहौल में ज्यादा सहज महसूस करते हैं बजाय कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति के दांव-पेच के.

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शशि थरूर शुरू से ही पारंपरिक कांग्रेस नेता के ढांचे में फिट नहीं बैठते.
शशि थरूर शुरू से ही पारंपरिक कांग्रेस नेता के ढांचे में फिट नहीं बैठते.

कांग्रेस नेता और सांसद शशि थरूर ने मलयालम भाषा के एक पॉडकास्ट में कहा, 'अगर कांग्रेस को मेरी सेवाओं की जरूरत नहीं है, तो मेरे पास और भी कई विकल्प हैं...' .

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आज के दौर में जब मीडिया शोरगुल से भरा हुआ है तो ऐसे में एक ट्वीट या 20 सेकंड का बारीकी से काटा गया बयान भी बड़ा विवाद खड़ा कर सकता है. कांग्रेस नेता शशि थरूर एक बार फिर सुर्खियों में हैं, और इस बार भी वही सवाल - उन्होंने ऐसा क्या कहा, या क्या नहीं कहा. साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता लेखक थरूर ने राजनीति के अलावा अपने विकल्पों की चर्चा की - किताबें लिखना, लेक्चर देना और भी बहुत कुछ. लेकिन तुरंत अफवाह उड़ गई कि एक और कांग्रेस नेता पार्टी छोड़कर किसी और दल में जाने की तैयारी कर रहा है, जबकि शायद वह सिर्फ खुद को केरल के मुख्यमंत्री पद के लिए उपयुक्त उम्मीदवार साबित करने की कोशिश कर रहे थे.

हाल के वर्षों में कई बड़े कांग्रेसी नेता पार्टी छोड़ चुके हैं, और उनमें से ज्यादातर बीजेपी या उसकी सहयोगी पार्टियों में शामिल हो गए हैं. ज्योतिरादित्य सिंधिया, जितिन प्रसाद और मिलिंद देवड़ा जैसे नेता, जो गांधी परिवार के करीबी माने जाते थे, उन्होंने भी पार्टी छोड़ दी. वहीं, हिमंत बिस्वा सरमा और कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे वरिष्ठ नेताओं ने कांग्रेस की अंदरूनी राजनीति से निराश होकर पार्टी छोड़ दी. हजारों ऐसे कार्यकर्ता भी हैं जिनका नाम शायद किसी को याद भी न हो, लेकिन जिन्होंने कांग्रेस को छोड़ दिया क्योंकि उन्हें लगा कि यह पार्टी अब कमजोर नेतृत्व के कारण डूबती नैया बन चुकी है.

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लेकिन शशि थरूर का मामला अलग है. वह पारंपरिक कांग्रेसी नेता की छवि में फिट नहीं बैठते. वह किसी राजनीतिक परिवार से नहीं आते, न ही गांधी परिवार के करीबी हैं और न ही उन्होंने पार्टी के अंदरूनी तंत्र में जगह बनाने की कोशिश की. वह एक अलग तरह के नेता हैं - एक पढ़े-लिखे, मेहनती और काबिल व्यक्ति, जिन्होंने संयुक्त राष्ट्र से लेकर भारतीय राजनीति तक का सफर तय किया है.

जब थरूर ने पहली बार राजनीति में कदम रखा, तो लोग उन पर हंसे. उन्हें एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा गया जो सिर्फ महत्वाकांक्षा के कारण राजनीति में आया था और जल्द ही असफल हो जाएगा. उनकी अंग्रेजी, उनका उच्चारण, उनकी निजी जिंदगी – हर चीज पर चर्चा हुई. खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक बार उनकी दिवंगत पत्नी सुनंदा पुष्कर को लेकर तंज कसते हुए कहा था - '50 करोड़ की गर्लफ्रेंड'.

लेकिन तमाम आलोचनाओं और विवादों के बावजूद, थरूर लगातार चार बार तिरुवनंतपुरम से सांसद चुने गए हैं. यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है, खासकर तब जब वहां लेफ्ट मजबूत स्थिति में है और बीजेपी भी अपनी पकड़ बनाने की कोशिश कर रही है. उन्होंने कई बार अपनी सीमाओं से ज्यादा बड़ा दांव खेला, जैसे 2022 में जब उन्होंने कांग्रेस अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा. उस चुनाव में पार्टी के कई नेताओं ने खुलकर उनके खिलाफ काम किया, कई कार्यकर्ताओं को उनसे दूरी बनाने के लिए कहा गया. इसके बावजूद, उन्होंने 1000 से ज्यादा वोट हासिल किए, जो दिखाता है कि कांग्रेस के अंदर भी उनके लिए एक खास जगह है.

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थरूर की सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि उन्हें किसी खास गुट में नहीं रखा जा सकता. वह ऐसे नेता हैं जो शायद साहित्य महोत्सवों में ज्यादा सहज महसूस करते हैं, बजाय कांग्रेस की खेमेबाजी में उलझने के. जब उनका नाम G-23 ग्रुप में आया (जो कांग्रेस में बदलाव की मांग कर रहा था), तब भी वह किसी विद्रोह के नेता की तरह नजर नहीं आए. उनकी स्वतंत्र सोच की वजह से जब भी वह मोदी सरकार की किसी नीति की तारीफ कर देते हैं – चाहे वह अर्थव्यवस्था हो या विदेश नीति – तो कांग्रेस के अंदर ही उन पर शक किया जाने लगता है. कांग्रेस का माहौल इस समय ऐसा है कि जो कोई भी पार्टी लाइन से अलग राय रखता है, उसे तुरंत संदेह की नजरों से देखा जाने लगता है.

लेकिन कोई भी लोकतांत्रिक पार्टी सिर्फ चाटुकारों का समूह नहीं हो सकती. दुर्भाग्य से यही हाल आज ज्यादातर पार्टियों का हो गया है. शायद इसी वजह से थरूर कांग्रेस के अंदर कुछ नेताओं के लिए एक आसान निशाना बन जाते हैं. दिलचस्प बात यह है कि कांग्रेस को भले ही वह पसंद न हों, लेकिन आम वोटर के बीच उनकी लोकप्रियता अच्छी है. खासकर, शहरी मध्यम वर्ग के मतदाता, जो कांग्रेस से दूर जा चुके हैं, उन्हें थरूर जैसे नेता में एक उम्मीद की किरण नजर आती है. यह मतदाता न ही पूरी तरह बीजेपी के साथ हैं और न ही किसी दूसरी पार्टी के. इन्हें एक सकारात्मक और समावेशी नेतृत्व चाहिए, न कि सिर्फ सरकार की आलोचना करने वाली विपक्षी पार्टियां. थरूर, एक कट्टर नेहरूवादी सेक्युलर नेता हैं, जो बीजेपी की हिंदुत्ववादी राजनीति का भी विरोध करते हैं और साथ ही अर्थव्यवस्था पर उदारवादी सोच रखते हैं. ऐसे में वह दक्षिणपंथी और वामपंथी – दोनों के लिए एक मजबूत वैचारिक जवाब हो सकते हैं.

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शायद यही वजह है कि थरूर कांग्रेस के लिए केरल में एक बेहतरीन विकल्प साबित हो सकते हैं. केरल में जहां संगठित कैडर आधारित राजनीति बहुत प्रभावी है, वहां असंगठित लेकिन विचारशील मतदाताओं को लुभाने के लिए थरूर एक सही चेहरा हो सकते हैं. केरल शायद इकलौता ऐसा राज्य है जहां कांग्रेस को आगामी चुनावों में अकेले जीतने का मौका मिल सकता है. लेकिन कांग्रेस अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारने के लिए मशहूर है, और अगर केरल कांग्रेस के अंदर गुटबाजी बढ़ती रही तो मुख्यमंत्री पद के लिए कई दावेदार सामने आ जाएंगे और पार्टी कमजोर हो सकती है. ऐसे में क्या कांग्रेस नेतृत्व एक बड़ा फैसला लेते हुए थरूर को केरल में पार्टी का चेहरा बनाएगा? यह ऐसा फैसला होगा जिसे कांग्रेस लंबे समय तक याद रख सकती है.

पोस्ट-स्क्रिप्ट: हाल ही में एक डिनर पार्टी में एक दोस्त ने मुझसे पूछा कि मैंने राजनीति में आने के बारे में क्यों नहीं सोचा. मैंने हंसते हुए कहा, 'थरूर का उदाहरण सामने है, कुछ लोग टीवी स्टूडियो में बैठकर राजनीति पर चर्चा करने और किताबें लिखने में ही ज्यादा अच्छे होते हैं, बजाय खुद राजनीति में जाने के.' दिलचस्प बात यह है कि थरूर और मैं एक ही स्कूल में पढ़े हैं, लेकिन लगता है कि अब सार्वजनिक जीवन में एक अच्छे स्कूल की शिक्षा कोई बड़ी योग्यता नहीं रह गई है.

(राजदीप सरदेसाई एक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं. इस लेख में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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