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CM पद के लिए दावेदारी की सबसे खूबसूरत रणनीति शिवराज ने अपनाई, काश बाकी उम्‍मीदवार समझ पाते

बीजेपी के नये दौर में शिवराज सिंह चौहान किनारे लगाने की कोशिश में कोई कसर बाकी नहीं रखी गई, लेकिन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी वो डटे रहे. हर हाल में अपनी प्रासंगिकता बरकरार रखी. चुनाव नजदीक आया तो खामोश कदमों के साथ अकेले ही निकल पड़े - और ऐसी कामयाबी हासिल की जो अपनेआप शोर मचा रही है.

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मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत का राज मुख्यमंत्री शिवराज की कड़ी मेहनत में छिपा है
मध्य प्रदेश में बीजेपी की जीत का राज मुख्यमंत्री शिवराज की कड़ी मेहनत में छिपा है

शिवराज सिंह चौहान की उलटी गिनती तभी से शुरू मानी जाने लगी थी, जब बीजेपी में नया नेतृत्व काबिज हो गया. वरना, बीजेपी में प्रधानमंत्री पद के दावेदारों में तो वो भी शामिल थे. पुराने दौर के नेताओं के लिए तो वो सबसे पसंदीदा चेहरों में शुमार थे. नया दौर आने के बावजूद शिवराज सिंह चौहान की राजनीतिक सेहत पर कोई सीधा असर नहीं देखा गया. 

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2018 का विधानसभा चुनाव हार जाने के बाद शिवराज सिंह के साथ वैसा ही सलूक होने लगा, जिसका अंदाजा उनको 2014 में ही हो चुका होगा. 2014 में मोदी-शाह युग की शुरुआत के साथ ही वाजपेयी-आडवाणी युग को खत्म माना जाने लगा था - लेकिन तीसरी बार मुख्यमंत्री बने शिवराज सिंह के लिए कार्यकाल पूरे करने तक कोई खतरे वाली बात नहीं थी. 

लेकिन सवा साल बाद ही मध्य प्रदेश की राजनीति ने ऐसी करवट ली कि अचानक ही शिवराज सिंह चौहान के अच्छे दिन लौट आये. कांग्रेस की कमलनाथ सरकार गिर जाने के बाद 23 मार्च, 2020 को जब शिवराज सिंह चौहान को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलायी गयी तो उनको ये एहसास जरूर हुआ होगा कि बहुत कुछ बिगड़ा नहीं है. जो थोड़ी बहुत जंग लगी थी, सवा साल में वक्त ने वो भी साफ कर दिया. 

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तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कोविड 19 के चलते देश में 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा कर दी. 29 दिनों तक शिवराज सिंह चौहान अकेले ही कैबिनेट सदस्य के तौर पर काम करते रहे. कैबिनेट विस्तार के रूप में महज पांच साथी मिले - और उसमें भी 22 विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ कर आये ज्योतिरादित्य सिंधिया के मंत्रियों का ही बोलबाला रहा. 

शिवराज सिंह चौहान ऐसी कैबिनेट के मुख्यमंत्री के रूप में काम कर रहे थे, जिसकी कमान या तो दिल्ली में थी, या फिर ज्योतिरादित्य सिंधिया के हाथ में. लेकिन तब तक शिवराज सिंह चौहान को ये भी समझ में आ चुका था कि उनकी अहमियत खत्म नहीं हुई है, मध्य प्रदेश की राजनीति में उनका कोई विकल्प नहीं है - और इसी बात को आधार बनाकर वो नये सफर पर निकल पड़े. रास्ता तो पुराना ही था, लेकिन जगह जगह खतरनाक मोड़ और स्पीड ब्रेकर बना दिये गये थे.

न तो चेहरे पर नाराजगी की झलक आने दी, न जीत के अहंकार का भाव

2018 से लेकर 2023 के बीच शिवराज सिंह चौहान का हाल भी वसुंधरा राजे और रमन सिंह जैसा ही था. फर्क सिर्फ ये था कि बीच में ही वो फिर से मुख्यमंत्री बन गये थे. रमन सिंह तो नहीं, लेकिन वसुंधरा राजे की तुलना में फर्क ये भी रहा कि मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी शिवराज सिंह चौहान ने तो कभी अकड़ दिखाई, न ही वसुंधरा राजे की तरह बगावती तेवर ही.

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और चुनाव जीत जाने के बाद भी न तो वसुंधरा राजे की तरह किसी विधायक से मुलाकात की, न ही ऐसा कोई काम जिससे बीजेपी नेतृत्व के सामने कैलाश विजयवर्गीय जैसे किसी नेता को मुद्दा बनाने का मौका मिले. कैलाश विजयवर्गीय के सामने जब शिवराज सिंह चौहान की लाड़ली बहना योजना को श्रेय दिया जाने लगा तो नये सिरे से वो भड़क गये और बोले, कुछ दरबारी टाइप पत्रकार ये कोशिश कर रहे हैं. ऐसा नैरेटिव चलाने की कोशिश कर रह हैं कि जीत की वजह लाड़ली बहना योजना है. कैलाश विजयवर्गीय की दलील है, 'समझना होगा कि जीत के लिए कोई एक फैक्टर काम नहीं करता... क्या लाड़ली बहना योजना छत्तीसगढ़ में थी? क्या ये योजना राजस्थान में थी? तब भी बीजेपी वहां चुनाव जीती है... वहां प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का चेहरा था... मोदी की गारंटी और उन पर जनता का भरोसा. मोदी के नेतृत्व और अमित शाह की रणनीति की वजह से बीजेपी ने तीनों राज्यों में बंपर जीत दर्ज की है.'

एक अनुभवी रानीतिज्ञ की तरह शिवराज सिंह चौहान चुनाव जीतने के बाद वैसी ही बातें और काम कर रहे हैं जो राजनीतिक रूप से दुरूस्त है. कह रहे हैं, मैं अभी दिल्ली नहीं जा रहा हूं. शिवराज सिंह ने बताया है कि वो पहले छिंदवाड़ा का दौरा करेंगे, जहां बीजेपी सभी सात सीटें जीत नहीं पाई है. कहते हैं, 'सिर्फ एक संकल्प है... भाजपा को आगामी लोकसभा चुनाव 2024 में मध्य प्रदेश में सभी 29 सीटों पर जीत दिलाना... प्रधानमंत्री मोदी को मध्य प्रदेश से 29 कमल के फूल की माला मिलनी चाहिये.' 

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वो एक आम गृहस्थ की तरह परिवार के साथ डिनर के लिए बाहर निकलते हैं. छोले भटूरे खाते हैं. आस पास मौजूद लोगों से मिलते हैं. और सोशल मीडिया पर लिखते हैं, 'जीवन में भागदौड़ बहुत है, लेकिन जब भी वक्त मिले तो परिवार के साथ कुछ लम्हों को, यादों को जरूर सहेजें... ये वो अनमोल मोती हैं, जो जीवन को उजाले से भर देते हैं.' 

ऐसी बाते, ऐसे काम जिनका राजनीति से दूर दूर तक कोई लेना देना नहीं है. चुनावी माहौल बनने के पहले से ही बीजेपी नेतृत्व की तरफ से शिवराज सिंह चौहान के पर कतरने का काम शुरू हो गया था. बीजेपी की जन आशीर्वाद यात्रा में भी ऐसा ही देखने को मिला. 

मोदी-शाह युग आ जाने के चार साल बाद भी 2018 में शिवराज सिंह चौहान बीजेपी की आशीर्वाद यात्रा का अकेला चेहरा थे, लेकिन 2023 आते आते ऐसी व्यूह रचना कर दी गयी कि वो भीड़ में छिप जाएं. चुनावी साल में मई-जून में हो जाने वाली यात्रा 3 से 21 सितंबर के बीच आयोजित हुई, लेकिन शिवराज सिंह चौहान से अकेले हीरो बनने का मौका छीन लिया गया. 

दिल्ली से सामूहिक नेतृत्व में यात्रा निकाले जाने का फरमान आया और ऐसी कोशिश हुई कि शिवराज सिंह चौहान कहीं अकेले प्रभावी चेहरे के रूप में नजर नहीं आयें. शिवराज सिंह चौहान ने अपनी बात कहने की कोशिश की, तो ये समझा दिया गया कि जन आशीर्वाद यात्रा लोगों तक पहुंचने और सरकार की उपलब्धियों को दिखाने का बीजेपी का व्यापक कार्यक्रम है. 

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लेकिन धारा के खिलाफ शिवराज सिंह अकेले दम पर तैरते रहे. आगे बढ़ते रहे. कहीं भी चेहरे पर शिकन तक नहीं आने दिया. कोई ये न समझे, या समझा पाये कि वो थक चुके हैं इस बात का भी पूरा ख्याल रखा - और आखिरी चुनावी रैली में माफी भी मांग ली.

भोपाल के हुजूर विधानसभा क्षेत्र में अपनी आखिरी चुनावी रैली में शिवराज सिंह चौहान ने कहा था, आचार संहिता लागू होने के बाद मैंने 165 सभाएं की हैं... एक दिन में मैंने 12-13 सभाएं की... दौड़-दौड़कर की... हेलीकॉप्टर से उतर कर दौड़ता था... और फिर हेलीकॉप्टर पर दौड़कर चढ़ता था, लेकिन फिर भी 165 तक ही पहुंच पाया... मैं बाकी उम्मीदवारों से मांफी मांगता हूं... वो कहते रहे कि एक बार आ जाओ.'

सिर्फ एक 'लाड़ली बहना योजना' ने पूरी बाजी ही पलट दी

शिवराज सिंह चौहान तो अकेले ही निकले थे, लेकिन लोगों ने साथ चल कर कारवां बना दिया. जिसका कोई नहीं होता... उसे अपना ख्याल खुद ही रखना होता है. शिवराज सिंह चौहान को मालूम था कि जो करना है, खुद ही करना है. न नीचे से सपोर्ट मिलना है, न ऊपर से संरक्षण. बल्कि नीचे से पैर काटने की कोशिश होगी, और ऊपर से पर कतरने का प्रयास. 

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2022 में ही शिवराज सिंह चौहान ने सख्त प्रशासक की अपनी छवि गढ़नी शुरू कर दी थी. कुछ दिन तक उनको यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ की नकल करते भी समझा गया. निश्चित तौर पर शिवराज सिंह चौहान भी बुलडोजर चला रहे थे, लेकिन उनके रास्ते में न तो कब्रिस्तान आया न श्मशान ही - शिवराज सिंह चौहान को तो अर्जुन की तरह बस मछली की आंख दिखाई दे रही थी. 

बुलडोजर तो मध्य प्रदेश में भी चलने लगे थे, और वहां भी निशाने पर अपराधी और बदमाश ही रहे. लेकिन बुलडोजर अभियान में उनकी तस्वीर के साथ जो पोस्टर लगाये गये उन पर खास मैसेज लिखा था, 'बेटी की सुरक्षा में जो बनेगा रोड़ा, मामा का बुलडोजर बनेगा हथौड़ा.'

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान चौतरफा घिरे हुए थे. पीठ पीछे साजिशें, ऊपर से किनारे लगाने की कोशिश, नीचे से पैरों तले जमीन खींच लेने का प्रयास - और सामने से सत्ता विरोधी लहर को भुनाने निकल पड़े बदले की आग में धधकते पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ. 

शिवराज सिंह चौहान भी चक्रव्यूह में घिर चुके थे, लेकिन इस बार अभिमन्यु काफी अनभवी था. मेहनत के साथ साथ कदम कदम फूंक कर चल रहा था. सूझबूझ से काम ले रहा था. हार को जीत में बदलने के जज्बे के साथ आगे बढ़ रहा था. किस्मत भी तो ऐसे ही लोगों का साथ देती है. और इस बार तो महिलाओं को ही किस्मत की इबारत लिखनी थी. 

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28 जनवरी, 2023 को जब शिवराज सिंह चौहान ने लाड़ली बहना योजना की घोषणा की तो उनके मन में भी वैसा विश्वास नहीं रहा होगा, जो उनके मुंह से निकल रहे शब्दों की ध्वनि में सुनने को मिल रही थी. 

बीजेपी नेतृत्व ने शिवराज सिंह चौहान को समेटने की चाहे कितनी भी कोशिश क्यों न की हो, उन्होंने खुद को इतना तपाया है कि छूने से पहले किसी को भी झुलस जाने का खतरा महसूस हो. शिवराज सिंह चौहान को अब आलाकमान के लिए पकड़ पाना मुश्किल नहीं, करीब करीब नामुमकिन है. 

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