1971 में पाकिस्तान के खिलाफ बांग्लादेश के युद्ध ने सिद्ध कर दिया कि 'मुस्लिम एकता' एक भ्रांतिपूर्ण धारणा थी. इससे ये साबित हो गया कि भारत के बंटवारे के लिए Biracialism (दो धर्मों) को आधार बनाना गलत निर्णय था. इससे यह भी पता चला कि लोगों की भाषा और संस्कृति, धर्म और जाति से परे थी.
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता के आदर्शों ने बंगाली हिंदुओं, मुसलमानों, बौद्धों और ईसाइयों को एकता दी. लेकिन आजादी के 50 सालों के अंदर ही धर्मनिरपेक्षता की पुकार बहरे कानों पर पड़कर धराशायी होने लगी. बांग्लादेश में अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसी कोई चीज नहीं है, लोकतंत्र ने भी शैय्या पकड़ ली है.
अस्सी के दशक के बाद से ही देश के शासक बांग्लादेश में एक इस्लामी समाज के निर्माण में सक्रिय हो गए थे, वे धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों को पीछे धकेल रहे थे. संविधान का इस्लामीकरण कर दिया गया. पीएम शेख हसीना ने इस वादे के साथ प्रगतिशील लोगों का भारी समर्थन हासिल किया है कि वे 1972 के धर्मनिरपेक्ष संविधान को वापस लाएंगी. वह देश के परिवार कानून को मुक्त करेंगी, वे राजनीति और धर्म का घालमेल नहीं करेंगी, वे राष्ट्र और धर्म को अलग अलग रखेंगी. वे अल्पसंख्यकों के पूर्ण नागरिक अधिकारों की रक्षा करेंगी. वे महिलाओं के लिए समान अधिकार लाएंगी और समान नागरिक कानून देश में लाएंगी.
लेकिन जब वे सत्ता में आईं, उन्होंने इनमें से कुछ भी नहीं किया. उनका समय इसमें गुजरने लगा कि कैसे विपक्ष का सफाया किया जाए? कैस इस्लामी कट्टरपंथियों का समर्थन जीता जाए और कैसे मृत्यु तक सत्ता का भोग किया जाए?
जब भी मुस्लिम कट्टरपंथियों द्वारा हिंदुओं पर अत्याचार किया जाता है, शेख हसीना वादा करती हैं कि वह इसके लिए जिम्मेदार सभी अपराधियों को गिरफ्तार करने और दंडित करने की व्यवस्था करेंगी. किंतु वास्तविकता में तस्वीर दूसरी होती है. बांग्लादेश में काम कर रहे एक प्रमुख मानवाधिकार संगठन, लॉ एंड आर्बिट्रेशन सेंटर के अनुसार, बांग्लादेश में मुसलमानों ने पिछले नौ सालों में 3,000 से अधिक हिंदुओं के खिलाफ अपराध किए हैं, और अब तक एक भी अपराधी को कानून द्वारा सजा नहीं दी जा सकी है.
बांग्लादेश के मुसलमानों ने पूरे त्योहारों के दौरान पूरे बांग्लादेश में मूर्तियां तोड़ी हैं. लेकिन यदि मूर्तियों को खंडित करने की ये खबरें छाप दी जाएं तो बांग्लादेश की छवि बर्बाद हो जाएगी. इसलिए बांग्लादेश की सरकार के निर्णय के बाद यहां की मीडिया को कुछ दिन के लिए प्रतिबंधित कर दिया गया. हिन्दुओं के खिलाफ पनपी इस कुरूप दुर्भावना की वजह से हिन्दुओं के घरों और दुकानों को तोड़ा गया. इस नफरत को इस्लाम के नेताओं ने भड़काया था, इसमें न सिर्फ इस्लाम के नेता थे बल्कि आवामी लीग के स्थानीय नेता भी मंदिरों को तोड़ने में शामिल थे. इन लोगों के मन में हिंदुओं की भूमि पर कब्जा करने का लालच भी है.