संसद के भीतर और बाहर सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच संविधान निर्माता बीआर आंबेडकर और उनकी विरासत को लेकर वाकयुद्ध छिड़ा हुआ है. बीजेपी ने कांग्रेस पर आंबेडकर का अपमान करने का आरोप लगाया है जबकि कांग्रेस ने आरोप लगाया है कि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने राज्यसभा में अपने संबोधन के दौरान आंबेडकर का अपमान किया. आंबेडकर को लेकर ये लगाव आश्चर्यजनक है क्योंकि कांग्रेस और आरएसएस/हिंदू महासभा के साथ उनके संबंध बहुत उतार-चढ़ाव भरे रहे हैं. दरअसल विरासत को लेकर छिड़ी इस जंग के पीछे राजनीति छिपी हुई है.
बीजेपी को विपक्ष के इस नैरेटिव की वजह से 2024 लोकसभा चुनाव में भारी नुकसान हुआ कि अगर बीजेपी 400 का आंकड़ा पार कर लेगी तो वह संविधान में बदलाव करेगी और आरक्षण खत्म कर देगी. लेकिन बीजेपी ने इस बार देर नहीं करते हुए तुरंत प्रतिक्रिया दी. केंद्रीय गृहमंत्री ने प्रेस कॉन्फ्रेंस कर दावा किया सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म और वॉट्सऐप ग्रुपों पर उनका 12 सेकंड का जो वीडियो वायरल हो रहा है, इस वीडियो में उनके बयान को गलत संदर्भ में लिया गया है.
शाह ने कहा कि वह आंबेडकर का अथाह सम्मान करते हैं और उन्होंने कांग्रेस पर झूठ के पुलिंदे खड़े करने का आरोप लगाया. दरअसल हरियाणा और महाराष्ट्र में दलितों के बीच खोई हुई जमीन को वापस पाने वाली बीजेपी नहीं चाहती कि इस विवाद की वजह से उनका यह वोटबैंक बर्बाद हो जाए. यह जमीन बर्बाद हो जाए
दलितों का वोटिंग पैटर्न
2011 की जनगणना के मुताबिक, देश की आबादी में अनुसूचित जाति लगभग 17 फीसदी है और लोकसभा में अनुसूचित वर्गों के लिए 84 सीटें आरक्षित हैं. कई सामान्य वर्ग की सीटों में दलित वोटर्स किंगमेकर भी हैं. बीते कुछ सालों में आम चुनावों में छोटी पार्टियां, क्षेत्रीय पार्टियां और निर्दलीयों को दलितों का बहुत सहयोग मिला है.
1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को दलितों से 46 फीसदी समर्थन मिला था. बीजेपी को 10 फीसदी जबकि अन्य को 44 फीसदी समर्थन मिला था. 1996 में कांशीराम की बहुजन समाज पार्टी को दलितों का सात फीसदी साथ मिला था. यह वह समय था, जब पार्टी अपने शुरुआती दौर में थी. कांग्रेस को उस समय 34 फीसदी, बीजेपी को 14 फीसदी जबकि अन्य को 45 फीसदी समर्थन मिला था.
1999 से 2009 के बीच बहुजन समाज पार्टी ने दलितों के बीच अपनी पैठ बनाई. पार्टी उस समय बीजेपी को पछाड़कर दलितों के बीच दूसरी सबसे बड़ी लोकप्रिय पार्टी बनी. 2004 में कांग्रेस को दलितों के 26 फीसदी वोट मिले, बीजेपी को 13 फीसदी, बसपा को 22 फीसदी जबकि अन्य को 39 फीसदी वोट मिले. बसपा ने विशेष रूप से उत्तर भारत के राज्यों में कांग्रेस के मजबूत वोट बैंक में सेंध लगाई और उन्हें दलितों का सबसे अधिक साथ मिला.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौर में बीजेपी ने दलितों के बीच अपनी पैठ मजबूत की. 2009 की तुलना में 2014 में बीजेपी को मिलने वाला दलितों का सपोर्ट दोगुना होकर 24 फीसदी हो गया. 2019 में यह बढ़कर 34 फीसदी हो गया जबकि 2024 में यह मामूली घटकर 31 फीसदी हो गई. इस दौरान कांग्रेस को मिलने वाले दलितों का साथ 19 से 20 फीसदी के साथ स्थाई रहा. इस अवधि के दौरान दलितों में मायावती की लोकप्रियता घटी. यहां तक कि उत्तर प्रदेश में उनके गढ़ में ही गैर जाटव उनसे दूर हो गए.
सीटों के संदर्भ में देखें तो कांग्रेस ने 2009 के लोकसभा चुनाव में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित 84 सीटों में से 30 सीटें जीती. बीजेपी ने 12 जबकि अन्य ने 42 सीटें जीती. 2014 और 2019 में जब मोदी लहर चरम पर थी, उस समय बीजेपी ने अनुसूचित जाति की आरक्षित सीटों में से 40-46 सीटें जीती जबकि कांग्रेस 6-7 सीटों पर सिमट गई. हालांकि, इस बयान के बाद कि अगर 2024 लोकसभा चुनाव में बीजेपी 400 सीटें जीती तो वह संविधान बदल सकती है, उससे पार्टी को बड़ा झटका लगा और पार्टी 16 सीटें हार गईं जबकि कांग्रेस 14 सीटें जीत गई.
2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने तीन फीसदी दलितों का समर्थन खो दिया जबकि उनके सहयोगियों ने दो प्रतिशत दलितों का समर्थन खोया. असल में देखें तो एनडीए को दलितों के पांच फीसदी वोटों का नुकसान हुआ. दूसरी तरफ कांग्रेस को दलितों के एक फीसदी वोटों का नुकसान हुआ जबकि उनकी सहयोगी पार्टियों तृणमूल कांग्रेस, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम और समाजवादी पार्टी को आठ फीसदी दलितों का सपोर्ट मिला. इंडिया ब्लॉक को दलितों का सात फीसदी सपोर्ट मिला.
लेकिन दलित वोटों के नुकसान के बाद बीजेपी ने सुधारवादी कदम उठाए और हरियाणा में बाल्मीकि समाज और महाराष्ट्र में महार समाज के साथ मिलकर काम किया और आरएसएस के साथ नुक्कड़ सभाएं करके दलितों के बीच खोई जमीन वापस पाने में कामयाब रही. हरियाणा में दलितों को लुभाने के लिए उठाए गए कई कदमों में से एक यह था कि बीजेपी सरकार ने हरियाणा अनुसूचित जाति आयोग की रिपोर्ट को स्वीकार कर लिया, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट ने माना था कि राज्यों को अनुसूचित जातियों के भीतर उप-वर्गीकरण करने का संवैधानिक अधिकार है. कांग्रेस को हरियाणा विधानसबा चुनाव में दलितों के 42 फीसदी वोट मिले जबकि बीजेपी को दलितों का 40 फीसदी समर्थन मिला.
दलित राजनीति में उथल-पुथल
राष्ट्रीय स्तर पर दलित राजनीति में इस समय काफी हलचल है. बसपा के कमजोर होने से दलितों के एक वर्ग को नए विकल्प की तलाश है. बसपा को 1999 से 2009 के बीच अपनी पीक पॉलिटिक्स में देशभर में दलितों के 18 से 22 फीसदी वोट मिलते रहे हैं.
दलितों का एक वर्ग अपने कल्याण के लिए राष्ट्रीय स्तर की पार्टियों के साथ गठजोड़ कर रहे हैं. एक अन्य वर्ग यह महसूस कर रहा है कि वंचित बहुजन अघाड़ी और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (अठावले) जैसी छोटी पार्टियों ने दलितों की मोलभाव की ताकत को कमजोर किया है और वोट कटुवा के तौर पर सामने आए हैं. इन पार्टियों के पास अपने दम पर चुनाव जीतने की क्षमता नहीं है.