तमिलनाडु में शुक्रवार 19 अप्रैल को पहले चरण के मतदान के साथ ही चुनाव संपन्न हो जाएगा. इस बार के लोकसभा चुनावों में देश की नजरें दक्षिण के इस राज्य पर सबसे अधिक हैं. क्योंकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले 10 हफ्तों में सात बार तमिलनाडु की यात्रा कर चुके हैं. राज्य की 39 में से 23 सीटों पर बीजेपी के उम्मीदवार हैं शेष पर एनडीए गठबंधन के सदस्य. 2019 में भाजपा ने केवल पांच सीटों पर ही अपने प्रत्याशी खड़े किए थे पर कोई भी सीट जीतने में कामयाब नहीं हुई. जबकि बीजेपी का उस समय तमिलनाडु की सशक्त पार्टी AIADMK के साथ गठबंधन था. इस बार पार्टी का गठबंधन तो पीएमके के साथ है पर बीजेपी बड़े भाई की भूमिका में है. फिर भी दक्षिणी भारत में पार्टी की जीत पक्की नहीं है. वर्षों से भारतीय जनता पार्टी भारत के सबसे अमीर और सबसे विकसित क्षेत्रों में से एक इस राज्य में पैठ बनाने के लिए संघर्ष कर रही है, पर सफलता नहीं मिल रही है. सवाल यही है कि क्या पीएम का तमिलनाडु की बार-बार फेरी लगाना रंग लाएगा?
1- सनातन को मिली चुनौती का हिसाब क्या तमिलनाडु में बराबर कर पाएंगे मोदी?
तमिलनाडु की राजनीति में बीजेपी की जीत किसी चैलेंज से कम नहीं है. जिस राज्य में भाषा और संस्कृति पार्टी के उत्तरी गढ़ों से नाटकीय रूप से भिन्न है और जहां हिंदू राष्ट्रवाद की अपील भी सबसे कम है. इसके बावजूद भी तमाम राजनीतिक पर्यवेक्षक चाहे बीजेपी के विरोधी हों या समर्थक अगर भगवा पार्टी को लगभग छह दशक पुराने ‘द्रविड़ मॉडल’ के विकल्प के रूप में देखते हैं तो इसका मतलब है कि तमिलनाडु में पार्टी ने जमीन पर कुछ काम किया है. दरअसल जब प्रदेश के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के पुत्र और द्रमुक नेता उदयनिधि ने सनातन धर्म की तुलना डेंगू-मलेरिया से कर दी थी उसी दिन बीजेपी के लिए इस प्रदेश में मुद्दा मिल गया था. पर यह उत्तर भारत नहीं है. दक्षिण भारत और तमिलनाडु का सामाजिक ढांचा ही अलग है. यहां अब तक पक्ष और विपक्ष दोनों की राजनीति द्रविड़ियन पॉलिटिक्स की रही है. जाहिर है कि सनातन के लिए जनाधार खड़ा करना बहुत टेढ़ा था पर इसके बावजूद भी बीजेपी ने जमीन तैयार की. बीते 28 फरवरी को, उन्होंने राज्य के पूर्व मुख्यमंत्रियों, दिवंगत एमजी रामचंद्रन (एमजीआर के नाम से लोकप्रिय) और दिवंगत जे जयललिता के शासन करने के तरीके के लिए प्रशंसा की. दोनों नेता अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (AIADMK) से थे, जो खुद को द्रविड़ विचारधारा का वंशज मानते थे.
2- द्रविड़ पॉलिटिक्स को काटने के लिए धार्मिक-संस्कृतिवाद कितना कारगर होगा?
50 साल के बाद भी तमिलनाडु की सत्ता में मौजूद नास्तिक द्रविड़ दल तमिल समाज को धार्मिक आस्था छोड़ने के लिए राजी नहीं कर पाए हैं. शायद बीजेपी के लिए उम्मीद का बस यही आधार है. जब उदयनिधि ने सनातन धर्म को अपशब्द कहे तो कई ऐसी खबरें और विजुअल सामने आए जिनमें उदयनिधि की पत्नी को गणेश की पूजा करते देखा गया. हालांकि इसके बावजूद भी हिंदुत्व की लहर ने राज्य की राजनीति में कोई जगह नहीं बना सका. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 10 अप्रैल को कोयंबटूर में एक रैली के दौरान हिंदी और टूटी-फूटी तमिल में रैली को संबोधित किया. मोदी और उनके समर्थकों ने बड़े पैमाने पर उग्र हिंदू समर्थक बयानबाजी से यहां परहेज किया. इसके बजाय उन्होंने बुलेट ट्रेन जैसे बुनियादी ढांचे के विकास और स्थानीय भाषाओं को बढ़ावा देने पर ध्यान केंद्रित किया. मतलब साफ है कि बीजेपी के लिए तमिलनाडु में सफलता की राह सीधी नहीं है.
माना जाता है कि पुलवामा आतंकी हमले और भारतीय सेना की सर्जिकल स्ट्राइक ने देश के बाकी हिस्सों में भाजपा के पक्ष में बहुत सारे लोगों को वोट देने के लिए प्रेरित किया. लेकिन तमिलनाडु में 2019 के लोकसभा चुनाव में यह भगवा पार्टी को कोई खास बढ़त नहीं दिला सका. भाजपा के पास एक ही रणनीति है कि द्रमुक और अन्नाद्रमुक दोनों से नाराज लोगों को अपनी ओर कितने लोगों को अपनी ओर खींच सके. तमिलनाडु में बीजेपी की छवि हिंदू और हिंदी समर्थक की रही है. द्रविड़ राजनीति के गढ़ में यह मिथक कायम रहा कि बीजेपी उन पर हिंदी थोप रही है. जबकि भाजपा की कोशिश है कि वह जनता को यह समझा सके कि भाषा की लड़ाई की आड़ में डीएमके अपने परिवार को आगे बढ़ाने का काम कर रही है. यानी, परिवारवाद फैला रही है.
3- अन्नामलाई की लोकप्रियता तो बढ़ी, लेकिन क्या वो भाजपा को जीत दिलाने लायक है?
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी को तमिलनाडु में सिर्फ 3.6 प्रतिशत वोट मिले थे. जबकि अन्नाद्रमुक सहयोगी पार्टी थी. पांच सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी एक सीट नहीं मिली थी. पूर्व आईपीएस अफसर और अब बीजेपी के नेता के. अन्नामलाई ने पिछले 3 साल में तमिलनाडु में बीजेपी को जीत का दावेदार बना दिया है. उनके 'एन मन, एन मक्कल' यात्रा जिसका अर्थ 'मेरी भूमि, मेरे लोग' है के जरिये बीजेपी को तमिलनाडु में घर-घर पहुंचा दिया. उन्होंने 39 लोकसभा और 234 विधानसभाओं में सभा की. उनकी मेहनत का नतीजा रहा कि आज तमाम सर्वे इस बात का दावा कर रहे हैं कि बीजेपी भले एक भी सीट न जीते पर वोटर शेयर के मामले में राज्य में दूसरे नंबर की पार्टी बनने वाली है. अन्नामलाई ने बीजेपी को हिंदी समर्थक और ब्राह्मणों की पार्टी वाली छवि से अलग तमिलों की अपनी पार्टी की छवि प्रदान की है. उनका पिछड़ी जाति का होना राज्य की स्थानीय राजनीति में बीजेपी की सोशल इंजिनियरिंग में भी फिट बैठ रहा है. ब्लूमबर्ग की एक रिपोर्ट के अनुसार मद्रास विश्वविद्यालय में राजनीति के प्रोफेसर रामू मणिवन्नन का कहना है कि अधिकांश दक्षिणी राज्यों में भाजपा के खिलाफ जबरदस्त भावना है. अविश्वास गहरा होने के कई कारण हैं. दक्षिण के राज्यों के आर्थिक आकार को देखते हुए उन्हें सरकारी राजस्व का उचित हिस्सा नहीं मिल रहा है. दक्षिण के लोगों को लगता है कि गरीब उत्तरी राज्यों को केंद्र अधिक सब्सिडी दे रहा है. अन्नामलाई जैसे नेताओं के पास इस प्रकार की बातों का कोई ठोस जवाब नहीं है.
4- क्या मोदी मैजिक राज्य में कांग्रेस का विकल्प बन पाएगा?
दिल्ली स्थित सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च के एक वरिष्ठ फेलो गाइल्स वर्नियर्स ने ब्लूमबर्ग को बताया कि मोदी की लोकप्रियता दक्षिण में निस्संदेह बढ़ी है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वोट मिलेंगे ही. मतदाताओं के पास सरकार में ऐसी पार्टियां हैं जो पहले से ही उनकी जरूरतों को पूरा करती हैं. कुछ मतदाता मोदी के प्रति गर्मजोशी दिखा रहे हैं, जो आतंकवाद पर नकेल कसने और जाति-आधारित राजनीति को किनारे करने पर भाजपा के फोकस की ओर इशारा करते हैं. कोयंबटूर के पास एक कस्बे में रहने वाले 40 वर्षीय मतदाता वासुदेवन आर. ने कहा कि वह इस साल एक शक्तिशाली क्षेत्रीय पार्टी, अन्नाद्रमुक से अपनी निष्ठा बदल रहे हैं. शायद यही कारण है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने भाषणों में हिंदुत्व की बात यहां कम करते हैं. उनका सारा जोर विकास, आर्थिक महाशक्ति और इन्फ्रास्ट्राक्चर आदि पर ही रहता है.
हालांकि नरेंद्र मोदी ने तो तमिल लोगों को लुभाने का कार्यक्रम 2019 के बाद से ही शुरू कर दिया था. काशी में तमिल संगमम की शुरुआत, अपने घोषणा पत्र में तमिल भाषा को विश्व के फलक पर फैलाने का वादा, नई संसद में तमिलनाडु से सिंगोल पहुंचाना आदि की चुनाव प्रचार में चर्चा रही है. नरेंद्र मोदी को तमिलनाडु में लोगों का प्यार तो बहुत मिला है, अब ये वोट में कितना बदलता ये 4 जून को ही पता चल सकेगा.