कांग्रेस नेतृत्व ने 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों को लेकर निश्चित तौर पर कई सपने संजो रखे होंगे. जैसे 2018 के विधानसभा चुनाव नतीजे आने के बाद राहुल गांधी और उनके करीबी कांग्रेस नेताओं का जोश अपने आप हाई हो गया था. जाहिर है, 2024 के चुनाव मैदान में भी गांधी परिवार बीजेपी से वैसे ही मुकाबला करता, और विपक्षी गठबंधन INDIA के नेताओं से भी वैसे ही पेश आता जैसा नजारा 2019 के पहले देखने को मिला था.
राहुल गांधी को संदेह सिर्फ राजस्थान विधानसभा चुनाव के नतीजों को लेकर था. बहुत हद तक विश्वास भी रहा होगा, और कुछ हद तक इच्छा भी हो सकती है. अगर कैप्टन अमरिंदर सिंह को किनारे लगाने के लिए पंजाब गंवाया जा सकता है, तो अशोक गहलोत पर लगाम कसने के लिए राजस्थान में 'कांटे की टक्कर' बताकर हार का जोखिम क्यों नहीं उठाया जा सकता?
अब अलग मुसीबत है. बीते दिनों राहुल गांधी और सोनिया गांधी से प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारियों की पूछताछ के दौरान जिस तरीके से अशोक गहलोत और भूपेश बघेल मोर्चा संभाले हुए थे, अब तो वो बात रह नहीं जाएगी. तब वे अपने अपने राज्यों के मुख्यमंत्री हुआ करते थे, अब तो मात्र क्षेत्रीय नेता रह गये हैं.
यूपी सहित कई विधानसभा चुनावों के दौरान भूपेश बघेल अक्सर ही कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ साथ साये की तरह नजर आ रहे थे. आगे भी रहेंगे, लेकिन अब वो बात तो रहेगी नहीं.
आखिर अकेले मल्लिकार्जुन खड़गे संसद से सड़क तक कितना लड़ेंगे? अब राहुल गांधी ने मल्लिकार्जुन खड़गे को कांग्रेस अध्यक्ष बनाया है, तो आगे तो उनको ही रखेंगे. ये भी ठीक है कि राहुल गांधी और प्रियंका गांधी भी लोक सभा चुनाव में कांग्रेस के स्टार प्रचारक रहेंगे, लेकिन और कोई चेहरा बचता है क्या?
सोनिया गांधी कर्नाटक विधानसभा चुनाव कैंपेन में तो शामिल हुईं, लेकिन तेलंगाना को लेकर न पहुंच पाने के लिए माफी मांगते हुए सिर्फ एक वीडियो जारी कर दिया था. आम चुनाव में सोनिया गांधी चुनाव भी लड़ेंगी या नहीं, पक्का नहीं है तो कैंपेन को लेकर क्या समझा जाये.
ऐसे में जबकि उत्तर बनाम दक्षिण भारत के लोगों की राजनीतिक समझ वाली बहस को हवा दी जा रही है, भला तेलंगाना से आकर रेवंत रेड्डी या कर्नाटक से सिद्धारमैया या डीके शिवकुमार बीजेपी के खिलाफ कितना लड़ सकेंगे? और हिमाचल प्रदेश वाले सुखविंद सिंह सुक्खू की बातें कितने लोग सुनना पंसद करेंगे?
उत्तर और दक्षिण की राजनीति में फंसे राहुल गांधी
कांग्रेस ने विधानसभा की चुनावी हार को छुपाने का एक तरीका भी खोज निकाला है. कांग्रेस नेता बीके हरिप्रसाद की मानें, तो कांग्रेस ने विधानसभा चुनावों में बीजेपी से 9.44 लाख ज्यादा वोट हासिल किया है. बीके हरिप्रसाद ने सोशल मीडिया पर अपनी एक पोस्ट में लिखा है, कांग्रेस को 5 राज्यों के विधानसभा चुनावों में 49,077,907 वोट मिले, जबकि बीजेपी को 48,133,463 यानी दोनों में करीब 10 लाख का फासला रहा.
ये आइडिया बुरा तो नहीं है लेकिन जो चुनाव प्रणाली भारत में प्रचलित है, उसमें ऐसी बातों का कोई मतलब नहीं रह जाता. ऐसे ही कांग्रेस नेता 2019 के चुनाव में बीजेपी के वोट शेयर को लेकर भी दावे करते रहे हैं, लेकिन ये हार जीत के फैसले का आधार तो है नहीं.
कांग्रेस के लिए बीजेपी की तरफ से ही नहीं, विपक्षी खेमे में ही अमेठी से वायनाड तक की मुश्किलें खड़ी होने लगी हैं. जिस तरह से अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी के अंदर कांग्रेस को लेकर बदले की आग धधक रही है, अगर चुनावी गठबंधन नहीं हुआ तो अमेठी और रायबरेली में इस बार बीजेपी के साथ साथ विपक्षी दलों से भी कांग्रेस को मुकाबला करना पड़ेगा.
अमेठी के हाथ से निकल जाने के बाद रायबरेली पर भी संकट आ खड़ा हुआ है. अभी तो ये भी साफ नहीं है कि सोनिया गांधी चुनाव लड़ेंगी भी या नहीं? अगर लड़ेंगी तो कहां से. रायबरेली से ही या अमेठी से. सोनिया गांधी ने अमेठी राहुल गांधी के लिए ही छोड़ा था और राहुल गांधी ने वो अमेठी भी गंवा दिया. अगर सोनिया गांधी चुनाव नहीं लड़ने का फैसला करती हैं, तो सवाल ये होगा कि रायबरेली से कौन लड़ेगा. और अमेठी से भी. क्या प्रियंका गांधी भी लोक सभा चुनाव लड़ेंगी? और अगर लड़ेंगी तो क्या रायबरेली से, या अमेठी से. या राहुल गांधी फिर से अमेठी का रुख कर सकते हैं.
वैसे राहुल गांधी के वायनाड से लड़ने पर भी केरल के मुख्यमंत्री पी. विजयन सवाल उठा रहे हैं. पी. विजयन ने कांग्रेस नेतृत्व से सवाल किया है कि पहले तो वो ये तय कर लें कि उनको बीजेपी से लड़ना है या एलडीएफ से. एलडीएफ केरल में सत्ताधारी गठबंधन है और कांग्रेस नेतृत्व को ये समझाने की कोशिश हो रही है कि गठबंधन भी विपक्षी गठबंधन INDIA का ही हिस्सा है.
पी. विजयन की लाइन को आगे बढ़ाते हुए सीपीएम के राज्य सचिव एमवी गोविंदन ने सलाह दी है कि गांधी परिवार को उस जगह से चुनाव लड़ना चाहिये जहां बीजेपी का प्रभाव है. सीपीएम नेता ने यहां तक इशारा किया है कि अगर उनकी पार्टी को कांग्रेस के साथ गठबंधन की जरूरत नहीं पड़ी तो वायनाड में भी उनका उम्मीदवार चुनाव मैदान में होगा. राहुल गांधी फिलहाल केरल के वायनाड से सांसद हैं. वैसे संसद सदस्यता भी सुप्रीम कोर्ट के आदेश से बहाल हुई है.
दक्षिण भारत की राजनीति में तो हिंदी भाषा सहित कुछ विरोध पहले से ही था, लेकिन केरल चुनाव के दौरान राहुल गांधी ने ही अमेठी की हार की खीझ निकालते हुए दक्षिण भारत के लोगों की राजनीतिक समझ को उत्तर भारतीयों से बेहतर बता डाला था, अब तो सनातन धर्म पर विवाद से लेकर 'गोमूत्र पीने वाले अनपढ़' क्षेत्र जैसी बयानबाजी होने लगी है - ऐसे माहौल में लोक सभा चुनाव में राहुल गांधी और उनके दक्षिण के दिग्गज नेताओं की टीम उत्तर भारत के वोटर को कैसे फेस करेगी, देखना दिलचस्प होगा.
वैसे यूपी में कांग्रेस की कमान संभालने वाले अजय राय परिवर्तन यात्रा की तैयारी कर रहे हैं. दिसंबर के आखिर या जनवरी में शुरू होने वाली कांग्रेस की यात्रा का पहला चरण सहारनपुर से शुरू होकर नैमिषारण्य जाकर खत्म होने वाला है. ऐसा लगता है कि स्थानीय स्तर पर इसे भारत जोड़ो यात्रा की ही शक्ल देने की तैयारी चल रही हो.
राहुल गांधी के पास 2024 का कोई प्लान है क्या
राहुल गांधी ने 2019 की तरह कांग्रेस की हार की जिम्मेदारी तो नहीं ली है, लेकिन विधानसभा चुनावों में हार स्वीकार करते हुए कहा है, 'मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान का जनादेश हम विनम्रतापूर्वक स्वीकार करते हैं... विचारधारा की लड़ाई जारी रहेगी.'
और अब राहुल गांधी विदेश यात्रा पर निकलने वाले हैं. 9 से 14 दिसंबर तक वो इंडोनेशिया, सिंगापुर, मलेशिया और वियतनाम के दौरे पर रहेंगे. राहुल गांधी का ये कार्यक्रम महीना भर पहले ही तय हो गया था, और बताते हैं कि वो वियतनाम की कम्युनिस्ट पार्टी और भारतीय समुदाय के न्योते पर वहां जा रहे हैं.
7 दिसंबर को ही तेलंगाना में रेवंत रेड्डी मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने वाले हैं - और 9 दिसंबर को सोनिया गांधी का बर्थडे भी है - तेलंगाना की जीत का गिफ्ट तो मां को वो पहले ही दे चुके हैं.
राहुल गांधी ने कांग्रेस की हार तो स्वीकार कर ली है, लेकिन क्या हार की जिम्मेदारी भी तय की जाएगी. और जिम्मेदारी तय हुई तो क्या उसके लिए नेताओं पर एक्शन भी लिया जाएगा. हार की समीक्षा भी होगी, और जिम्मेदारी किसकी और कौन तय करेगा, अब तक किसी को नहीं मालूम है. खबर ये आ रही है कि अशोक गहलोत से लेकर कमलनाथ तक संगठन में फिर से फिट होने के लिए नये सिरे से सक्रिय हो गये हैं.
2019 के चुनाव से पहले तो कांग्रेस ने गुजरात में अच्छा प्रदर्शन भी किया था, और मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में सरकार बनायी थी, जिसकी बदौलत राहुल गांधी के साथ साथ कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भी मनोबल हाई था.
तब राहुल गांधी को हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवाणी और अल्पेश ठाकोर जैसे जोश से भरे युवा साथी भी मिले थे, और बीजेपी के खिलाफ राफेल का मुद्दा भी. आखिर राफेल के मुद्दे पर ही तो राहुल गांधी 'चौकीदार चोर है' के नारे लगाते और लगवाते रहे.
आगे तो ऐसा लग रहा है जैसे एक तरफ बीजेपी नेतृत्व आत्मविश्वास से लबालब है, दूसरी तरफ बिखरे विपक्ष के साथ कांग्रेस का अपना भी कोई ठोस कार्यक्रम नजर नहीं है. ऐसा क्यों लग रहा जैसे कांग्रेस एक बार फिर 2014 वाली स्थिति में पहुंच गयी है?