राहुल गांधी की संसद सदस्यता बहाल हो जाना कांग्रेस के लिए किसी जंग के जीत लेने से कम नहीं है. संसद के बजट सेशन के दौरान ही 23 मार्च, 2023 को सूरत की अदालत ने मोदी सरनेम वाले मानहानि केस में दो साल की सजा सुनायी थी. अगले ही दिन लोक सभा सचिवालय की तरफ से राहुल गांधी की सदस्यता खत्म होने का नोटिफिकेशन भी जारी हो गया. संसद सदस्यता खत्म.
लेकिन संसद के अगले ही सत्र यानी मॉनसून सेशन के बीच सुप्रीम कोर्ट के आदेश की बदौलत अपनी सदस्यता बहाल होने के बाद राहुल गांधी संसद पहुंच गये. कांग्रेस नेताओं उत्साह तो देखते ही बन रहा है, राहुल गांधी के चेहरे पर भी उसकी अंदर की खुशी की झलक नजर आ रही है. निश्चित रूप से इस पूरे वाकये का साल के अंत में होने जा रहे विधानसभा चुनावों पर भी असर होगा - लेकिन बड़ा सवाल ये है कि विपक्षी गठबंधन ये सब किस तरीके से देख रहा है?
विपक्षी गठबंधन INDIA पर कितना असर
राहुल गांधी की सदस्यता चली जाने के बाद कांग्रेस नेताओं की सक्रियता तो बढ़ी हुई देखी जा सकती थी, लेकिन विपक्षी दलों पर सबसे बड़ी पार्टी होने का दबदबा हल्का पड़ने लगा था. बीच की अवधि में कांग्रेस की तरफ से उठाये गये कदम और फैसले इस बात की तस्दीक भी करते हैं.
यूपीए के पीछे छूट जाने और INDIA के रूप में विपक्षी दलों का गठबंधन सामने आने के पीछे एक बड़ी वजह राहुल गांधी के साथ हुई हाल फिलहाल की घटनाएं ही समझी जानी चाहिये. कांग्रेस नेतृत्व की प्रधानमंत्री पद पर दावेदारी के कारण ही 2019 में विपक्षी दल एकजुट नहीं हो सके थे. अब 2024 के लिए भी फिर से ये सवाल खड़ा हो सकता है.
2019 के आम चुनाव से पहले कांग्रेस नेता सोनिया गांधी का दावा था कि उनकी पार्टी बीजेपी को सत्ता में आने ही नहीं देगी. ऐन उसी वक्त पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भी मन ही मन प्रधानमंत्री पद पर दावा कर बैठी थीं. ऐसा इसलिए भी क्योंकि विपक्षी खेमे के तमाम कद्दावर नेता ममता बनर्जी के दिल्ली आते ही उनके इर्द गिर्द जुट जाते, और बीजेपी को सत्ता से बाहर किये जाने के फॉर्मूले पर विचार विमर्श चालू हो जाता. आम चुनाव से पहले कोलाकाता के ब्रिगेड परेड ग्राउंड में ममता बनर्जी की रैली भी उनकी हौसलाअफजाई के लिए काफी थी.
एनडीए दोबारा छोड़ देने के बाद जब नीतीश कुमार राष्ट्रीय स्तर पर एक्टिव हुए तो कांग्रेस को जरा भी अच्छा नहीं लगा. पहले तो कांग्रेस अध्यक्ष चुनाव और फिर भारत जोड़ो यात्रा के नाम पर मामले को जितना हो सका टाला गया, लेकिन राहुल गांधी की सदस्यता चली जाने के बाद कांग्रेस को मजबूरन हथियार डालने पड़े.
श्रीनगर में भारत जोड़ो यात्रा के समापन समारोह से आम आदमी पार्टी नेता अरविंद केजरीवाल को दूर रखने वाली कांग्रेस को पटना बैठक तक हद से ज्यादा झुकना पड़ा और बेंगलुरू बैठक तक तो नौबत ये आ गयी कि दिल्ली बिल पर खुल कर अरविंद केजरीवाल के साथ खड़े होने का भरोसा दिलाना पड़ा.
पटना से बेंगलुरू बैठक तक के सफर में कांग्रेस लगातार कमजोर दिखी, लेकिन 31 अगस्त 2023 को मुंबई में होने जा रही बैठक तक वही सिलसिला जारी रहेगा, अब मानना मुश्किल हो रहा है. राहुल गांधी की संसद में वापसी के साथ ही कांग्रेस पुराने अंदाज में लौटने लगी है. वैसे पूरी तस्वीर तो कुछ दिनों बाद ही नजर आ पाएगी.
राहुल गांधी की संसद सदस्यता की बहाली को ध्यान से देखें तो विपक्षी गठबंधन के लिए ये दुधारी तलवार जैसी लगती है. निश्चित तौर पर इस प्रकरण में कांग्रेस के राजनीतिक तौर पर मजबूत होने से पूरे विपक्ष को फायदा हो सकता है, लेकिन ये भी सच है कि अगर कांग्रेस फिर से अपने पर आ गयी तो खेल शुरू हो जाएगा.
INDIA गठबंधन अब तक तो बगैर चेहरे का रहा है, लेकिन तब क्या होगा अगर कांग्रेस राहुल गांधी के नाम पर फिर से दावेदारी जता दे? क्या नीतीश कुमार जैसे नेताओं को छोड़ भी दें तो क्या अरविंद केजरीवाल और ममता बनर्जी को मंजूर होगा?
एनसीपी नेता अजीत पवार के बीजेपी से हाथ मिला लेने के बाद महाराष्ट्र के सबसे बड़े नेता शरद पवार के विपक्षी खेमे के साथ बने रहने पर सवाल खत्म नहीं हुआ है. वैसे बेंगलुरू बैठक में हिस्सा लेकर शरद पवार ने ऐसा सवालों को दबाने की कोशिश जरूर की है. लेकिन सवाल पूरी तरह खत्म नहीं हुए हैं.
दिल्ली सर्विसेज बिल के चलते ही अरविंद केजरीवाल विपक्षी खेमे में कांग्रेस के साथ आये हैं. अगर राहुल गांधी को लेकर कांग्रेस ने कहीं फिर से अड़ियल रवैया अख्तियार किया तो आम आदमी पार्टी नेता को कदम पीछे खींचते देर भी नहीं लगेगी.
दिल्ली सरकार के अधिकारों को लेकर संसद में लाया गया बिल भी एक तरीके से विपक्षी गठबंधन के लिए भविष्य का इंडिकेटर है, तो कांग्रेस के लिए लिटमस टेस्ट जैसा है. ऐसे नाजुक वक्त में कांग्रेस ने खुद को नहीं संभाला तो विपक्षी गठबंधन भी बिखर सकता है, और कांग्रेस के लिए फिर से अकेले बूते संभलना मुश्किल हो सकता है.
2023 के राज्य विधानसभा चुनावों पर असर
जम्मू-कश्मीर को लेकर केंद्र की सत्ता पर काबिज बीजेपी की सक्रियता देख कर तो ऐसा ही लगता है कि घाटी में चुनावी माहौल दस्तक देने लगा है. लेकिन ये पक्का तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक कि चुनाव आयोग भी केंद्र शासित क्षेत्र में चुनाव लायक माहौल महसूस न करने लगे.
अभी तक देश के पांच राज्यों में ही विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं, यही मान कर चलना होगा. और ये भी सही है कि बीजेपी के साथ साथ नया नवेला विपक्षी गठबंधन INDIA भी 2024 के आम चुनाव से पहले सेमीफाइनल में हाथ साफ करना चाह रहा है. साल के आखिर में राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना के साथ साथ मिजोरम में भी विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं.
राजस्थान में कांग्रेस सत्ता में वापसी के लिए जोर लगा रही है. ठीक ऐसा ही बीजेपी मध्य प्रदेश में चाह रही है. राजस्थान की ही तरह बीजेपी की तीखी नजर छत्तीसगढ़ पर भी है, जबकि मध्य प्रदेश को लेकर कांग्रेस के भीतर बदले की आग लगातार धधक रही है.
मोदी सरनेम केस में राहुल गांधी को सूरत की अदालत से सजा मिलने और फिर सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद संसद सदस्यता बहाल होने के बाद सारे ही विधानसभा चुनाव बहुत मायने रखते हैं. राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा के दौरान दो राज्यों में विधानसभा चुनाव हुए थे - गुजरात और हिमाचल प्रदेश में. गुजरात की सत्ता पर तो बीजेपी का कब्जा बरकरार रहा, लेकिन हिमाचल प्रदेश हाथ से निकल गया. तब भी जबकि बीजेपी और कांग्रेस के बीच वोट शेयर का अंतर महज 0.9 फीसदी ही रहा.
कांग्रेस नेता जहां खुशी से फूले नहीं समा रहे थे, बीजेपी नेतृत्व वोट शेयर की दुहाई देकर ढाढ़स दिलाने की कोशिश कर रहा था. गुजरात के बाद बीजेपी ने त्रिपुरा, नगालैंड और मेघालय में चीजों को संभाल लिया, लेकिन राहुल गांधी की संसद सदस्यता प्रकरण के बाद कांग्रेस हिमाचल प्रदेश की तरह ही फिर से जोश से भरी हुई नजर आ रही है.