सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने सोमवार को राहुल गांधी की न्याय यात्रा से एक बार फिर दूरी बनाते दिखे. अखिलेश ने कहा कि कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग के फाइनल हुए बिना वो भारत जोड़ो न्याय यात्रा में शामिल नहीं होंगे.समाजवादी पार्टी की ओर से सोमवार तक 15 सीटें कांग्रेस को ऑफर की गईं थीं. जिस पर कांग्रेस की ओर समाजवादी पार्टी को कोई जवाब नहीं मिला था. बाद में समाजवादी पार्टी के महासचिव राजेंद्र चौधरी की ओर 17 सीटों का ऑफर दिया गया है. जबकि कांग्रेस पार्टी कम से कम 21 सीटों पर चुनाव लड़ना चाहती है. सवाल यह है कि क्या अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के इच्छुक नहीं है. जिस तरह अनमने ढंग से समाजवादी पार्टी सीट शेयरिंग की बात कर रही है उससे तो यही लगता है. इस बीच अखिलेश यादव को पहले जयंत चौधरी, फिर पल्लवी पटेल और स्वामी प्रसाद मौर्या ने साथ छोड़ा है उससे सवाल उठता है कि क्या अखिलेश खुद ही गठबंधन को तवज्जो नहीं देना चाहते. क्या अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश की राजनीति में एकला चलो के रस्ते पर चलना चाहते हैं? आइये देखते हैं कि अखिलेश ऐसा क्यों सोच रहे हैंं?
1-अखिलेश को गठबंधनों से कभी फायदा नहीं हुआ
अखिलेश यादव ने यूपी में कई दलों के साथ गठबंधन किया पर कभी समाजवादी पार्टी को कोई फायदा नहीं हुआ. बहुजन समाज पार्टी , कांग्रेस दोनों के साथ उनका गठबंधन रहा. दोनों बार उन्हें मुंह की खानी पड़ी. 2017 में समाजवादी पार्टी ने विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के साथ गठबंधन किया. 2017 के विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस को गठबंधन में 105 सीटें दी थीं, लेकिन कांग्रेस महज 7 सीटें जीत पाई थी. दूध का जला छाछ भी फूंक कर पीता है . शायद यही कारण है कि अखिलेश कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बहुत इच्छुक नहीं दिख रहे हैं. दरअसल यूपी में कांग्रेस की जमीन नहीं है. 2017 के बाद कांग्रेस संगठन और कमजोर ही हुआ है. उत्तर प्रदेश में 2019 के लोकसभा चुनावों में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने करीब-करीब बराबर सीटों पर चुनाव लड़ा. बीएसपी को 10 सीटें मिल गईं जबकि समाजवादी पार्टी सिर्फ 5 सीटें ही मिल सकीं. इस गठबंधन ने भी अखिलेश यादव को सबक सिखाया.
2-सीटें अगर अच्छी मिलीं तो चुनाव बाद गठबंधन करने में ज्यादा फायदा
दरअसल अखिलेश यादव को ये लगता है कि कांग्रेस को अधिक सीटें देने का कोई फायदा नहीं है. अगर समाजवादी पार्टी अधिक सीटों पर चुनाव लड़ती है तो एक संभावना ये जरूर रहेगी कि कुछ और सीटें मिल जाएं, अगर सीटें अच्छी संख्या मिल जाती हैं तो चुनाव जीतने के बाद भी गठबंधन शामिल होने में कोई बुराई नहीं है. सीटें जितनी अधिक रहेंगी चुनाव बाद गठबंधन में उतना ही ज्यादा तवज्जो भी मिलेगा. जितनी ज्यादे सीटें होंगी उसके हिसाब से मंत्री पद के लिए बार्गेनिंग हो सकेगी. संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) का नजीर सामने है. 2004 में एनडीए को कम सीटें मिलने पर दस राजनीतिक दलों ने मिलकर गठबंधन बनाया. इस गठबंधन में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस सबसे ज्यादा सदस्यों वाली पार्टी रही. इस गठबंधन से मनमोहन सिंह दो बार प्रधानमंत्री चुने जा चुके हैं.
3-मोर्या हों या पल्लवी पटेल किसी के पास जनाधार नहीं है
अखिलेश यादव यह अच्छी तरह से जानते हैं कि स्वामी प्रसाद मौर्या- पल्लवी पटेल जैसे नेता अपनी सीट तक जीतने की कूवत नहीं रखते. राष्ट्रीय लोकदल के मुखिया जयंत तक की हैसियत लोकसभा चुनावों में सीट जीतने की नहीं है. पल्लवी पटेल (अपना दल कमेरावादी) को सिराथु से समाजवादी पार्टी ने अपने सिंबल पर चुनाव लड़ाया. गठबंधन से मिली सभी सीटें अपना दल ने अपनी सिंबल पर लड़ा और चुनाव हार गई. स्वामी प्रसाद मौर्य अपनी सीट नहीं बचा पाए. कांग्रेस का डब्बा तो बिल्कुल गोल हो चुका है. यही कारण है कि अखिलेश यादव अपनी शर्तों पर राजनीति करना चाहते हैं.शायद यही कारण है कि स्वामी प्रसाद मौर्य की दूसरी पार्टी बनाने की चर्चाओं पर अखिलेश यादव ने सोमवार को कहा कि व्यक्ति के मन में क्या होता है, यह कौन सी मशीन बताएगी? लाभ लेकर तो सभी चले जाते हैं.
4-कांग्रेस रायबरेली और अमेठी में समाजवादी पार्टी के रहमोकरम पर निर्भर है
कांग्रेस भले ही समाजवादी पार्टी ने 21 से 25 सीटों की डिमांड कर रही हो पर ये बात पूरा प्रदेश जानता है कि देश की सबसे पुरानी पार्टी आज यूपी में अपना किला रायबरेली और अमेठी भी बचाने की कूवत नहीं रखती है.अमेठी में तो खुद राहुल गांधी चुनाव हार चुके हैं.
पिछले 3 लोकसभा चुनावों के आंकड़ों का मूल्यांकन करें तो रायबरेली में कांग्रेस को मिलने वाले वोटों का शेयर भी लगातार कम हो रहा है. 2009 के बाद 2014 और 2019 में वोट शेयर का ग्राफ लगातार गिर रहा है. 2009 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिलने वाले वोट का परसेंटेज करीब 72.2 प्रतिशत था. जो कि 2024 गिरकर 63.8 परसेंट हो गया. 2019 आते-आते सोनिया गांधी को मिलने वाले वोट का प्रतिशत गिर 55.8 प्रतिश हो गया है.
2022 के विधानसभा चुनावों में रायबरेली संसदीय सीट की 5 विधानसभा सीटों में से कांग्रेस एक भी जीत नहीं सकी है. सबसे बड़ी बात यह रही कि करीब 4 सीटों पर कांग्रेस तीसरे स्थान पर रही.और एक सीट पर कांग्रेस चौथे स्थान पर पहुंच गई थी. यहां की 4 सीटें समाजवादी पार्टी ने हासिल की हैं. बीजेपी को केवल एक ही सीट मिल सकी है. पिछले कई चुनावों से इन दोनों सीटों पर लोकसभा चुनावों में गठबंधन न होने के बावजूद समाजवादी पार्टी अपने प्रत्याशी नहीं खड़ी करती रही है, ताकि गांधी परिवार इन सीटों पर आसानी से चुनाव जीत सके.
5-अकेले चुनाव लड़कर जनता के सामने मजबूत छवि बनाना भी मकसद
अखिलेश यादव को पता है कि अगर वो यूपी में अकेले जनता के बीच जाते हैं तो उनके लिए ज्याद मुफीद है. जिस तरह बंगाल में ममता बनर्जी अकेले बीजेपी को टक्कर देना चाहती हैं उसी तरह समाजवादी पार्टी यूपी में भी अकेले बीजेपी को टक्कर देने में सक्षम है यह संदेश आम लोगों तक जाना चाहिए. वैसे भी विधानसभा हो या लोकसभा चुनाव प्रदेश में समाजवादी पार्टी ही ऐसी पार्टी है जो बीजेपी की आंधी में खुद को संभाल सकती है.बीएसपी को 2022 के विधानसभा चुनावों में अकेले लड़ने का हश्र मालूम है. 400 विधानसभा सीटों पर लड़कर भी बीएसपी केवल एक ही विधानसभा सीट जीत सकी थी. यही हाल कांग्रेस का रहा है. कांग्रेस भी अकेले चुनाव लड़कर अपना हश्र देख चुकी है. 2017 में समाजवादी पार्टी के साथ चुनाव लड़कर 7 सीट जीतने वाली कांग्रेस 2022 में केवल 2 सीट ही जीत सकी थी.