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बिहार चुनाव से ठीक पहले 'जंगल राज' के बारे में सुभाष यादव के कुबूलनामे से कितना फर्क़ पड़ेगा?

2001 से 2004 के बीच बिहार में 1,527 अपहरण के मामले, जिनमें 2004 में अकेले 411 अपहरण हुए. यह वह दौर था जब बिहार में अपहरण एक उद्योग बन गया था. बिहार ही नहीं उस दौर को आज भी पूरा भारत याद करता है, जब सरकार ही किडनैपिंग के धंधे में लगी हुई थी.

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तेजस्वी यादव, राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव
तेजस्वी यादव, राबड़ी देवी और लालू प्रसाद यादव

पिछले दिनों बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव के साले सुभाष यादव ने तत्कालीन आरजेडी सरकार को किडनैपिंग उद्योग का संरक्षक बताकर बखेड़ा कर दिया है. सुभाष यादव ने एक पॉडकास्ट में दावा किया कि 'बिहार में लालू राज के दौरान होने वाली किडनैपिंग के बारे में लोग अक्सर मुझे सौदेबाजी करने वाला बताते थे, लेकिन असल में मुख्यमंत्री आवास से ही आरोपियों को फोन कर मामले सुलझाए जाते थे'. लालू और राबड़ी का कार्यकाल वैसे भी बदनाम रहा है. उन्हें बदनाम करने के लिए सुभाष यादव की जरूरत नहीं थी. लोग उस दौर को आज भी जंगल राज की तरह याद करते हैं. अब इसमें कोई नई बात नहीं रह गई है कि लालू यादव सरकार के दौरान हुए बिहार में अपराध की फिर से चर्चा की जाए. फिर ऐसे कौन से कारण है कि सुभाष यादव के बयान के बाद बिहार की राजनीति में बवंडर मचा हुआ है. क्या कारण है कि आरजेडी और लालू परिवार पर जंगल राज का ठप्पा ऐसा लगा है कि वह छूटता ही नहीं है. 

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1. आरजेडी ने कभी अपने को बदलने की कोशिश नहीं की

राष्ट्रीय जनता दल की पहचान बिहार में बाहुबलियों की पार्टी की रही है. और इससे छुटकारा पाने की कोशिश कभी भी लालू परिवार नहीं की. वैसे तो बिहार की राजनीति में कोई भी दल या नेता ऐसा नहीं है जिसके साथ दागी छवि वाले नेता न हों. पर आरजेडी हमेशा इसमें टॉप पर रहता है. 2020 में बिहार विधानसभा के लिए चुने गए विधायकों का क्रिमिनल रिकॉर्ड यह बताता है कि अकेली सबसे बड़ी पार्टी आरजेडी के 74 में से 54 (73 प्रतिशत) कथित रूप से अपराधी विधायक हैं, जबकि बीजेपी के 73 में से 47 (64 प्रतिशत) विधायक ऐसे हैं. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की पार्टी और बीजेपी की सहयोगी जेडी(यू) के, 43 में से 20 विधायक ऐसे हैं, जबकि आरजेडी की महागठबंधन सहयोगी कांग्रेस में, ये संख्या 19 में से 18 है. ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के सभी पांच विधायकों के खिलाफ आपराधिक मुक़दमे दर्ज हैं. यही कारण है कि आज भी लोगों को यह लगता है कि आरजेडी अपराधियों की पार्टी है. शायद आरजेडी खुद भी अपनी छवि को बदलना नहीं चाहती है. बाहुबलियों से दूरी बनाने की कोशिश कभी पार्टी ने नहीं की. कम से कम दिखावे के लिए भी लोगों को ऐसा कभी नहीं लगा कि पार्टी बाहुबलियों से छुटकारा पाना चाहती है. 

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2. तेजस्वी और तेजप्रताप ने बदलने की कोशिश नहीं की

कई बार देखा गया है कि वंशवादी पार्टियों में नई पीढ़ी खुद को अपनी पार्टी को अपने पूर्वजों की गलतियों से दूर करना चाहते हैं. कांग्रेस नेता राहुल गांधी अपने पूर्वजों की गलतियों की चर्चा करते रहते हैं. राहुल गांधी इशारों ही इशारों में कई बार इमरजेंसी के दौरान हुई घटनाओं को सही नहीं माना है. उन्होंने अभी हाल ही में स्वीकार किया कि पिछड़ों और दलितों के लिए कांग्रेस पार्टी को पिछले दशकों में जितना करना चाहिए था उतना नहीं किया गया.समाजवादी पार्टी के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी पार्टी को अपने पिता के प्रभावों से मुक्ति के लिए कई प्रयास किए. अखिलेश यादव ने कई चुनावों में यादव उम्मीदवारों को टिकट कम दिए. बाहुबलियों से भी उन्होंने अपनी दूरी बनाई. 2017 के विधानसभा चुनाव में तो उन्होंने कई बाहुबलियों को टिकट काट दिया था. उत्तर प्रदेश का प्रदेश अध्यक्ष भी सबसे पहले किसी गैरयादव को बनाने वाले अखिलेश यादव ही थे. इस तरह की कोशिश तेजस्वी ने शायद की पर उतनी नहीं की उसकी चर्चा हो.

3-सत्ता मिलते ही सामाजिक न्याय की जगह पारिवारिक न्याय करता है लालू परिवार

लालू-राबड़ी शासन (1990-2005) के बाद आरजेडी कभी पूर्ण बहुमत के साथ बिहार में सरकार नहीं बना सकी है. 2015 में जेडीयू मुखिया और सीएम नीतीश कुमार और आरजेडी ने मिलकर चुनाव लड़ा. महागठबंधन सरकार बनाने में सफल हुई पर आरजेडी की ओर लालू पुत्रों तेजस्वी यादव और तेजप्रताप यादव को ही सबसे मलाईदार मंत्री पद मिले. उसके बाद 2022 में एक बार फिर नीतीश कुमार के साथ आरजेडी सरकार बनाने में सफल हुई. इस बार भी लालू यादव के दोनों पुत्र सरकार में अहम पद पाने में सफल हुए. तेजस्वी यादव दोनों ही बार डिप्टी सीएम बने. आज तेजस्वी ही लालू यादव के उत्तराधिकारी हैं पर उन्होंने अभी तक कोई ऐसा काम नहीं किया जिसके चलते वे अपने पिता की छाया से मुक्त हो सकें. 

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4-लालू परिवार के खिलाफ मुकदमे

लालू परिवार के खिलाफ आय से अधिक संपत्ति का मामला, जमीन के बदले नौकरी का मामला, चारा घोटाला आदि के चलते लालू परिवार की पिछले दशकों में सबसे अधिक भद पिटी है. आए दिन जमीन के बदले नौकरी बांटने के किस्से मीडिया में सुर्खियां बनते रहते हैं. चारा घोटाले के किस्से तो कोर्ट में सही भी साबित हो चुके हैं और लालू यादव सजा भुगत रहे हैं. तेजस्वी और तेज प्रताप आदि ने भी अपनी छवि ऐसी नहीं बनाई कि वो अपने परिवार से अलग दिखें. जब जब लालू परिवार के मुकदमों में कोई प्रगति होती है पुराने गड़े मुर्दे उखड़ने लगते हैं. यही वजह जंगल राज की यादें लोगों की जेहन से हटती ही नहीं हैं.

5-उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी मिसाल है

लालू राज के जंगल राज की छवि खत्म करने के लिए आरजेडी ने कुछ भी ऐसा नहीं किया जिससे यह लगे कि पार्टी खुद को बदलना चाहती है. उत्तर प्रदेश बहुजन समाज पार्टी ने समाजवादी पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देने के लिए उनके पैरलल ही माफिया का साथ लिया. फिर भी पार्टी सुप्रीमो मायावती के चीफ मिनिस्टर बनते ही कानून व्यवस्था को लेकर इस तरह की कड़ाई की थी कि उसकी चर्चा आज भी होती है. बीएसपी के साथ तमाम माफिया होने के बाद भी कभी मायावती सरकार पर माफिया को संरक्षण देने का आरोप नहीं लगा. बीएसपी की तरह का ट्रांसफॉर्मेशन करने की कोशिश आरजेडी में न 2015 में हुई और न ही 2022 में . 2022 में तो तेजस्वी का पास मौका भी था. पर कानून व्यवस्था की स्थिति उस दौर में इस लायक नहीं बन सकी जिसकी राज्य के लोग मिसाल दे सकें. यही कारण है कि आज भी लालू परिवार पर से जंगल राज का दाग धुलता नहीं है.

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