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बिहार में कांग्रेस के दलित कार्ड से क्यों खुश हो सकते हैं लालू प्रसाद यादव?

बिहार विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और आरजेडी एक साथ लड़ते हैं या अलग-अलग, दोनों ही स्थितियों में कांग्रेस का दलित कार्ड आरजेडी के लिए फायदेमंद साबित होने वाला है. आइये बिहार में दलित राजनीति के इस गणित को समझते हैं.

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राहुल गांधी और लालू प्रसाद यादव
राहुल गांधी और लालू प्रसाद यादव

बिहार में कांग्रेस दिल्ली वाले मोड में है. कांग्रेस चाहती है कि वह राज्य में अपने पैरों के बल पर खड़ी हो सके. पिछले कुछ चुनावों से कांग्रेस की पहचान आरजेडी के पिछलग्गू जैसी हो गई थी. पार्टी अब इस छवि से बाहर निकलना चाहती है. अभी तक की जो तस्वीर बन रही है उससे तो ऐसा लगता है कि पार्टी इसके लिए महागठबंधन भी छोड़ सकती है. हालांकि अभी इस तरह के कोई संकेत पार्टी के बड़े नेताओं की ओर से नहीं आए हैं. पर कांग्रेस बिहार में जिस तरह दलित कार्ड कार्ड खेल रही है उससे तो आरजेडी मुखिया लालू प्रसाद यादव के लिए खुश होने का कारण हो सकता है. क्योंकि विधानसभा चुनावों में कांग्रेस और आरजेडी अगर एक साथ लड़ते हैं या अलग -अलग लड़ते हैं दोनों ही स्थितियों में कांग्रेस का दलित कार्ड आरजेडी के लिए फायदेमंद साबित होने वाला है. आइये बिहार में दलित राजनीति को इस गणित को समझते हैं.

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1-दलित और एनडीए वोट

बिहार में एनडीए की दलित राजनीति में आज सबसे बेहतर स्थिति में है. राज्य में दलित समुदाय की आबादी लगभग 19.65% है (2011 की जनगणना के आधार पर). जाहिर है कि राज्य की राजनीति में इनकी निर्णायक भूमिका है. एनडीए के साथ एलजेपी (लोक जनशक्ति पार्टी) और HAM (हिंदुस्तानी आवाम मोर्चा) के होने के चलते दलित वोटों को लेकर मजबूत स्थिति में है.2020 के बिहार विधानसभा चुनाव की अगर बात करें तो सबसे अधिक दलित विधायक एनडीए के साथ ही हैं. बिहार विधानसभा में इस समय 38 दलित विधायक हैं, जो कुल विधायकों का 16.04% हैं. इनमें से 22 एनडीए के हैं जबकि 16 महागठबंधन (आरजेडी, कांग्रेस और वाम दलों का गठबंधन के हैं. इससे पता चलता है कि 2020 के चुनावों तक दलितों की सबसे पसंदीदा पार्टी एनडीए ही थी. 2024 के लोकसभा चुनाव में भी एनडीए ने बिहार की 40 में से 30 सीटें जीतीं, जिसमें जेडीयू ने 12, बीजेपी ने 12, एलजेपी (रामविलास) ने 5 और HAM ने 1 सीट हासिल की. चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे दलित नेताओं की मौजूदगी ने एनडीए को दलित समुदाय में मजबूत आधार प्रदान किया. चिराग पासवान और जीतन राम मांझी जैसे नेता न केवल अपने समुदाय में लोकप्रिय हैं, बल्कि केंद्र सरकार में मंत्री पद हासिल कर दलितों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व भी दे रहे हैं. नीतीश कुमार के महादलित अवधारणा के चलते भी एनडीए के नजदीक दलित हैं.

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2-दलित और कांग्रेस

दलित कांग्रेस के परंपरागत वोटर रहे हैं. यही कारण है कि जहां बहुजन समाज पार्टी जैसी दलित बेस वाली पार्टियां नहीं है वहां दलितों की स्वाभाविक पार्टी कांग्रेस बन जाती है. पिछले साल हुए लोकसभा चुनावों में जिस तरह संविधान खतरे में है का नारा देकर कांग्रेस ने अपने परंपरागत वोट्स को एकजुट किया था वह बहुत कुछ इस बार विधानसभा चुनावों में भी काम कर सकता है. राहुल गांधी जिस तरह दलित वोटर्स के हितों की बात और संविधान को बचाने का आह्वान करते हैं उसका कुछ तो असर पड़ेगा ही. राहुल गांधी लगातार बिहार में दलित नेताओं से संबंधित कार्यक्रमों में भाग लेने पहुंच रहे हैं. इतना ही नहीं कांग्रेस ने एक बार फिर राज्य में दलित अध्यक्ष पर दांव लगाया है. 2015 में दलित नेता अशोक चौधरी के अध्यक्ष रहते हुए कांग्रेस 27 सीट जीतने में सफल हुई थी.अब एक बार फिर दलित नेतृत्व के हाथ में कांग्रेस है. कुटुम्बा के विधायक राजेश राम को बिहार कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया है. राजेश कुमार राम के पिता दिलेश्वर राम भी विधायक रहे हैं. खुद राजेश 2 बार से विधायक हैं. बिहार कांग्रेस में जब भक्त चरण दास प्रभारी थे तब उन्होंने राजेश राम का नाम अध्यक्ष के लिए भेजा था. लेकिन लालू यादव की सहमति से अखिलेश सिंह अध्यक्ष बने. लालू से नजदीकियों के चलते ही अखिलेश सिंह से कांग्रेस ने छुटकारा पाने की कोशिश की है.

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3-दलित और आरजेडी

आरजेडी की स्थापना 1997 में लालू प्रसाद यादव ने की थी. शुरू से ही पार्टी की पहचान एक ऐसी पार्टी के रूप में रही है जो सामाजिक न्याय, पिछड़े वर्गों (ओबीसी), दलितों और मुस्लिम समुदायों के हितों की वकालत करती है. आरजेडी का पारंपरिक वोट बैंक यादवों (एक ओबीसी जाति) और मुस्लिम समुदायों पर मजबूत रहा है, जिसे अक्सर "एम-वाय" (मुस्लिम-यादव) गठजोड़ कहा जाता है. हालांकि, दलित समुदायों के बीच इसकी पैठ उतनी व्यापक नहीं रही जितनी ओबीसी या मुस्लिम मतदाताओं के बीच.यही कारण है कि बिहार में दलित वोटरों का एक बड़ा हिस्सा ऐतिहासिक रूप से अन्य दलों, खासकर बहुजन समाज पार्टी (बीएसपी), लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) जैसी पार्टियों या फिर कांग्रेस और बाद में बीजेपी की ओर झुका हुआ रहा है.  
 1990 के दशक में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में आरजेडी (तब जनता दल के रूप में) ने बिहार में सामाजिक बदलाव की एक लहर चलाई थी. इस दौरान दलितों और अति पिछड़े वर्गों को सशक्त करने की बातें जोर-शोर से उठाई गईं थीं. बाद में लालू यादव का फोकस मुख्य रूप से यादव और मुस्लिम समुदायों को मजबूत करने की ओर चला गया. दलित वोटर्स के साथ एक और ट्रेंड देखने को मिलता रहा है. ओबीसी दबंग जातियां जिस दल के साथ रहती हैं वहां दलित और अति पिछड़ों का वोट नहीं जाता रहा है. जैसे हरियाणा जाट, यूपी में यादव और महाराष्ट्र में मराठे जहां वोट देते हैं वहां दलित अपना वोट देने से परहेज करते रहे हैं.यही कारण रहा है कि एनडीए के मुकाबले आरजेडी को दलितों का समर्थन कम मिलता रहा है.

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4- साथ रहे या न रहे कांग्रेस के दलित कार्ड से आरजेडी को फायदा

हमने देखा कि बिहार में दलित वोटर्स एनडीए के मुकाबले आरजेडी के पास कम ही जाने वाला है. पर कांग्रेस जिस तरह दलित कार्ड खेल रही है उससे उसे जरूर फायदा मिलने वाला है. इसलिए अगर कांग्रेस महागठबंधन में रहती है तो जाहिर है कि इसका फायदा आरजेडी को भी मिलेगा. इसी तरह कांग्रेस अगर अकेले चुनाव लड़ती है तो दलित वोट जो एनडीए को जा रहे थे उसमें कांग्रेस की हिस्सेदारी भी हो जाएगी. यानि कि त्रिकोणीय लड़ाई में दलित वोट कांग्रेस और बीजेपी के बीच बंटेंगे तो जाहिर है कि आरजेडी को फायदा होगा ही. क्योंकि आरजेडी की दलित वोटर्स के बीच पैठ सबसे कमजोर है.
 

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