भारतीय समाज में लिव-इन-रिलेशनशिप का मुद्दा हमेशा से आलोचना का शिकार रहा है. पिछले साल हुए श्रद्धा वालकर हत्याकांड के बाद तो इस पर और भी गंभीर सवाल उठाए जाने लगे. लेकिन, उत्तराखंड सरकार ने अपने समान नागरिक संहिता बिल (UCC) में लिव इन रिलेशनशिप में जाने वालों के लिए जो नियम और शर्तें प्रस्तावित की हैं, वो ऐसे रिश्ते की कामना करने वाले हर युवा को दस बार सोचने पर मजबूर करेगा. इस बिल के प्रस्ताव को क्या लड़कियों की हिफाजत करने वाला माना जाना चाहिए? क्या बाकी राज्यों को भी इस तरह का बिल नहीं लाना चाहिए?
क्योंकि सवाल यह उठता है कि अगर लिव इन रिलेशनशिप को सुरक्षित बनाने के लिए इसे शादी जैसे नियम कानूनो में बांध दिया जाएगा तो फिर शादी और लिव इन में अंतर क्या रह जाएगा? तो क्या मान लिया जाए कि परिवारिक मूल्यों को समाज का आधार मानने वाली पार्टी की बीजेपी शासित उत्तराखंड सरकार ने जानबूझकर इसे नियंत्रित करने की कोशिश की है. पार्टी जानती है कि लिव इन पर सीधे-सीधे रोक लगाने से बेहतर है कि उसे शादी जैसा ही संरक्षित कर दो . अब उत्तराखंड में शादी और लिव इन रिलेशनशिप में कोई अंतर ही नहीं रह गया. यह करीब-करीब लिव इन रिलेशन पर बैन लगाने जैसा ही है. आइये देखते हैं कि ऐसा क्यों कहा जा रहा है?
क्यों शादी जैसी हो गया लिव इन रिलेशनशिप
उत्तराखंड सरकार ने जो समान सिविल संहिता वाला कानून पेश किया है उसमें शादी करने पर रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है.ठीक उसी तरह लिव इन रिलेशनशिप में भी रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है. मतलब कि लड़के-लड़कियों के लिए लिव इन का सबसे बड़ा जो आकर्षण था उसके बेस पर ही चोट कर दी गई है. रजिस्ट्रेशन नहीं कराने पर कानून में छह महीने की सजा का प्रावधान किया गया है. 192 पन्नों का यूसीसी विधेयक चार हिस्सों में बंटा हुआ है. यूसीसी विधेयक पर उत्तराखंड के सदन में चर्चा की जाएगी. राज्यपाल की मंजूरी के बाद विधेयक कानून का रूप ले लेगा.
-नए कानून में लिव इन रिलेशन से जन्म लेनेवाले बच्चों को भी अधिकार दिया गया है. बच्चा पुरुष पार्टनर की संपत्ति में हकदार होगा. लिव इन रिलेशन में आने के बाद महिला को पुरुष पार्टनर धोखा नहीं दे सकता है. मतलब सब कुछ शादी जैसा ही है. शादी जैसा ही बच्चों के लिए राइट्स और भरण पोषण का अधिकार भी बनाया गया है. नए कानून में लिव इन रिलेशन से पैदा हुए बच्चे को जायज माना गया है. पुरुष पार्टनर को जैविक पिता की तरह बच्चे के भरण पोषण की जिम्मेदारी संभालनी होगी और संपत्ति में भी अधिकार देना होगा.
-अलग होना भी नहीं होगा आसान, बिल्कुल शादी की तरह. लिव इन में आप जब चाहे अपना सूटकेस उठाया और दूसरे के साथ चल दिए ऐसा नहीं होने वाला है. रिश्ते से बाहर निकलने के लिए एक पूरा फॉर्मेट होगा जिसे फिल करना होगा. रजिस्ट्रार को अगर लगेगा कि संबंध खत्म करने के कारण सही नहीं हैं या संदिग्ध हैं तो इसकी जांच पुलिस भी कर सकेगी.महिला पार्टनर पुरुष से भरण-पोषण की मांग के लिए अदालत में दावा पेश कर सकती है.
महिलाओं की स्वतंत्रता पर हो सकती है बहस
भारत में लिव इन में रहने वालों का एग्जेक्ट फीगर क्या है यह अभी पता नहीं है. क्योंकि अधिकतर जोड़े आज भी अपने समाज में इसे छुपाते रहे हैं. भारत में समाज अभी भी यौन नैतिकता को सबसे अधिक अहमियत देता है. शायद यही कारण है कि सोसायटी में अधिकतर लोग इसके खिलाफ हैं. पर इससे इनकार नहीं किया जा सकता है कि लिव इन रिलेशनशिप समाज को उस मोड़ पर ले जा रहा था जहां महिलाओं को यौन नैतिकता और यौन पवित्रता से मुक्ति मिल रही थी.
दरअसल दुनिया भर के समाजों में पुरुषों के लिए यौन स्वच्छंदता रही है पर महिलाओं को यौन नैतिकता का पालन करना होता रहा है. लिव इन रिलेशनशिप का कल्चर सबसे तेजी से पश्चिम के समाजों में लोकप्रिय हुआ. शायद यही कारण रहा हो कि पश्चिम के समाजों में महिलाओं के लिए अनिवार्य यौन पवित्रता की धारणा जल्दी खत्म हो गई. यही कारण है कि यूरोप का आर्थोडॉक्स चर्च भी कभी लिव इन रिलेशन को लेकर कुछ कह नहीं पाया.भारत में नारी स्वतंत्रता के पक्षधर इसी तथ्य के साथ लिव इन रिलेशनशिप को सपोर्ट करते रहे हैं.
दूसरा तर्क यह भी रहा है कि महिलाओं को अपना वर चुनने की आजादी मिलनी चाहिए. सॉफ्टवेयर प्रफेशनल वैशाली गुप्ता कहती हैं कि लिव इन को रेग्युलराइज करने का मतलब है कि इसे भी शादी जैसा बना देना. गुप्ता का कहना है कि सरकार को बस इस रिश्ते के लिए उम्र को निर्धारित करना चाहिए न कि पूरी तरह रेग्युलराइज. यह लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने की स्वतंत्रता पर कुठाराघात की तरह है. इसका विकृति रूप देखने को मिलेगा. पता चला कि लड़के और लड़की अगर डेट पर गए हैं तो पुलिस उनसे भी रजिस्ट्रेशन सर्टिफिकेट की मांग कर सकती है.
वहीं डेंटिस्ट डॉक्टर रचना गहलावत केवल लिव इन रिलेशनशिप का ही विरोध नहीं करती हैं बल्कि उल्टे वो उत्तराखंड सरकार के कानून की भी आलोचना करती हैं. उनका कहना है कि उत्तराखंड सरकार का यह कदम शादी नामक संस्था पर एक तरह से हमला है. वह सवाल उठाती हैं कि अगर बिना शादी किए शादी जैसी सुरक्षा मिलने लगेगी तो फिर शादी नामक संस्था का क्या होगा ? अगर बिना विवाह के पैदा हुए बच्चे को पिता की संपत्ति में अधिकार भी मिले तो फिर इस तरह के नाजायज बच्चों की संख्या बढ़ेगी. जो आने वाले समय में समाज उनके प्रति अलग रवैया अख्तियार करेगा. जो किसी भी समाज के लिए ठीक नहीं होगा.
लिव इन रिलेशनशिप रिश्ते को कानूनी दर्जा मिलने से क्या होगा फायदा
भारतीय महानगरों में पिछले 10 सालों में लिव इन रिलेशनशिप में बहुत तेजी आई है. इस बीच तमाम ऐसी भी खबरें आईं जहां लिव इन में रहने वाली महिलाओं के साथ गंभीर अत्याचार हुए . विशेषकर श्रद्धा वालकर की दिल्ली में हुई हत्या के बाद लिव इन को रेग्युलराइज करने की मांग तेज होने लगी. केंद्र और उत्तराखंड में बीजेपी की सरकार है. बीजेपी को संस्कारों वाली पार्टी कहा जाता है.उम्मीद यह की जा रही थी कि केंद्र लिव इन रिलेशन को रेग्युलराइज करने के लिए कोई काननून ला सकता है पर उत्तराखंड ने एक नया रास्ता दिखा दिया है. निश्चित है कि यह कानून दूसरे भाजपा शासित राज्यों में बहुत जल्दी लागू कर दिए जाएंगे. हो सकता है उत्तराखंड में बने कानून से दूसरे राज्य और अधिक सख्त कानून बनाएं.
हालांकि उत्तराखंड सरकार से पहले इलाहाबाद हाई कोर्ट ने लिव-इन रिलेशनशिप में रह रहे दो व्यस्क जोड़ों की पुलिस सुरक्षा की मांग को जायज़ ठहराते हुए कहा था कि ये संविधान के आर्टिकल 21 के तहत दिए राइट टू लाइफ़़ की श्रेणी में आता है. शिकायत कर्ता ने अदालत से कहा था कि दो साल से अपने पार्टनर के साथ अपनी मर्ज़ी से रहने के बावजूद, उनके परिवार उनकी ज़िंदगी में दखलअंदाज़ी कर रहे हैं और पुलिस उनकी मदद की अपील को सुन नहीं रही है.हो सकता है उत्तराखंड में बने कानून से इस तरह के मामलों पर रोक लग सके. क्योंकि अगर लिव इन सबंधों का रजिस्ट्रेशन होता है तो फिर पुलिस को जरूरत होने पर उनकी सुरक्षा भी करनी होगी.
भारत की संसद ने लिव-इन रिलेशनशिप पर कोई क़ानून तो नहीं बनाया, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसलों के ज़रिए ऐसे रिश्तों के क़ानूनी दर्जे को साफ़ किया है.अब देखना यह है कि उत्तराखंड सरकार ने इस रिश्ते को कानूनी दर्जा तो दे दिया , पर लिव इन में रहने वालों जोड़ो को सुरक्षा कितनी दे पाती है?