गुजरात, हिमाचल विधानसभा और दिल्ली निगम के जनादेश आ चुके हैं. सभी उपचुनावों के भी. जनादेश को देखें तो यह पहला चुनाव था जिसमें 'मुसलमान' पारंपरिक रूप से कहीं भी किसी तरह का राजनीतिक मुद्दा नहीं थे. वह कहीं भी निर्णायक नजर नहीं आए. कैम्पेन का हाल यह था कि पार्टियां उनका नाम भी लेने से बच रही थीं. यहां तक कि यूपी की मुस्लिम बहुल सीट रामपुर, आजम खान अब गंवा चुके हैं. दिल्ली में कांग्रेस को मुसलमानों का मामूली साथ मिला, बावजूद आप पार्टी जीत गई. भाजपा दूसरे नंबर पर रही. दिल्ली निगम में अल्पसंख्यक कांग्रेस के दो मुस्लिम पार्षदों ने आप का दामन थाम लिया था. हालांकि बाद में उन्होंने कांग्रेस में वापसी का वीडियो भी जारी किया था.
गुजरात में भाजपा ने इतिहास की सबसे बड़ी जीत हासिल की और उसके सामने कांग्रेस जैसी मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी के स्टेटस पर 'आप पार्टी' ने दमदार चुनौती पेश कर दी है. यह एक ऐसा राजनीतिक बदलाव है जो कांग्रेस का भविष्य बताने के लिए पर्याप्त है. हिमाचल में जरूर कांग्रेस की सरकार बनने जा रही है. मगर उसके किसी नेता ने वहां ऐसा प्रयास नहीं किया कि जीत का सेहरा सीधे उनके सिर बांध दिया जाए. ईमानदारी की बात तो यही है. बावजूद कि वहां भितरघात का शिकार हुई भाजपा ने अपने पैरों पर खुद कुल्हाड़ी चलाई है. एक प्रतिशत से भी कम है, वहां मतों का अंतर कांग्रेस और भाजपा के बीच. 0.9 प्रतिशत. मात्र इतने अंतर भर से भाजपा को संख्याबल के लिहाज से बड़ी हार मिली है.
राहुल कांग्रेस के रणछोड़ दास हैं
उपचुनाव में तो कहीं कांग्रेस है ही नहीं. गुजरात में जिस तरह से कांग्रेस की ऐतिहासिक दुर्गति हुई, वह एक और बड़े राज्य में उसके ख़त्म हो जाने का स्पष्ट प्रमाण है. केजरीवाल ने कांग्रेस की विरासत पर मजबूत दावा ठोक दिया है. दिल्ली निगम चुनाव और गुजरात में दुर्गति को लेकर किसी कांग्रेसी नेता के पास उचित जवाब नहीं है. तीन राज्यों में तीन महत्वपूर्ण चुनाव हो रहे थे. नरेंद्र मोदी के सामने कांग्रेस अपने जिस चेहरे को 'संकोच' के साथ प्रधानमंत्री पद का दावेदार बताते रहती है- उसकी नेतृत्व क्षमता कसौटी पर थी. लेकिन देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देखने वाला नेता, लोकसभा चुनाव से पहले महज इस एक डर से चुनाव में जाने को तैयार ही नहीं हुआ कि कहीं पराजय की वजह से साल 2024 में उसकी दावेदारी पर ही सवाल ना उठ जाए. यूपी समेत पिछले कुछ चुनावों में उनके रवैये में रणछोड़ दास का एक नया ट्रेंड नजर आ रहा है.
कांग्रेस के अंदर सवाल होने चाहिए कि राहुल चुनाव में क्यों नहीं गए?
सवाल उठ रहे हैं. पहले भी उठे हैं, जिसे मनमाने तर्कों से ढंक दिया जाता रहा है. पार्टी के अंदर ही गांधी परिवार के नेतृत्व पर सवाल उठे हैं और समान विचारधारा वाले दलों ने भी सवाल उठाए हैं. भारतीय राजनीति के महापंडितों में शुमार स्वर्गीय मुलायम सिंह यादव, शरद पवार से लेकर लालू यादव तक के विचार राहुल गांधी की राजनीति के बारे में क्या रहे हैं, किसी को समझाने की जरूरत नहीं है. खुद कांग्रेस के नेताओं को पूछना चाहिए कि राहुल गांधी चुनावों में क्यों नहीं गए? किसी राजनीतिक पार्टी के लिए यात्रा बड़ी चीज है या फिर चुनाव. अगर किन्हीं कारणों से यात्रा को एक दो दिन के लिए स्थगित किया जा सकता है, राहुल अपनी मां सोनिया गांधी के जन्मदिन के लिए यात्रा से छुट्टी ले सकते हैं, फिर उन्होंने चुनाव के लिए एक दो दिन का ब्रेक लेना क्यों जरूरी नहीं समझा?
मां के जन्मदिन के लिए राहुल ने जरूरी ब्रेक लिया और विशेष विमान से यात्रा को छोड़कर पहुंचे. एक बेटे के तौर पर मां के प्रति जवाबदेही के नाते उन्हें जाना ही चाहिए था. लेकिन पार्टी के सर्वोच्च नेता के नाते भी उन्हें मैदान में उतरने में संकोच क्यों रहा. किसी पार्टी के पीएम मैटेरियल से इतनी उम्मीद करना जायज है. बावजूद वे नहीं गए. जिस हिमाचल में कैम्पेन करने नहीं गए, वहीं सरकार के शपथ ग्रहण में उसी यात्रा से छुट्टी लेकर राहुल पहुंचे हैं. आखिर इसे क्या माना जाए? क्यों ना माना जाए कि राहुल एंड टीम को पहले हिमाचल में किसी जीत का भरोसा नहीं था. दामन दागदार ना हो इसके लिए जानबूझकर दूरी बनाई गई. और अब जबकि बिल्ली के भाग से छींका टूटा है- हर कोई मलाई हांडी के फूटने का श्रेय लेना चाहता है.
सवाल तो किया ही जा सकता है कि आखिर यह कैसी राजनीतिक पार्टी है, जिसने एक भारी भरकम यात्रा डिजाइन की, मगर उसके दिमाग में तीन राज्यों के महत्वपूर्ण चुनाव आए ही नहीं. कम से कम गुजरात तो अब तक की यात्रा के पड़ाव में था ही. आखिर राहुल ने वहां उतना समय क्यों नहीं दिया जितना समय उन्होंने केरल में फालतू खर्च किया. इससे तो यही समझ में आता है कि गांधी परिवार पार्टी में जिम्मेदारियों से बचता है. गांधी परिवार के चेहरे पर कोई चुनाव तो नहीं जीता जा सकता, मगर पार्टी में उनके अलावा किसी और की चल भी नहीं सकती. बिना उनके इशारे के परिंदा भी पर नहीं मार सकता. जो नेता चुनाव नहीं जितवा सकते, वे कांग्रेस में पार्टी का भविष्य तय करते पाए जाते हैं.
जी 23 के नेताओं ने भी असल में गांधी परिवार के नेतृत्व पर यही सवाल तो उठाया है. कोई पार्टी किसी एक परिवार की वफादारी से तो चलती नहीं. कोई पार्टी तो अपने विचार पर चलती है. लाखों की संख्या वाले कार्यकर्ताओं की पार्टी के लिए वह विचार भला एक परिवार कैसे थोप सकता है? कांग्रेस का गांधी परिवार निजी राजनीतिक फायदे के लिए कांग्रेस पर एक ऐसा विचार थोप रहा है जो देश के राजनीतिक तंत्र के हिसाब से हर लिहाज से खतरनाक है. जबकि पार्टी में नए विचार की जरूरत को लेकर स्वर्गीय एके एंथनी ने जो रिपोर्ट सौंपी थी कांग्रेस ने समाज के आम लोगों नजरिए को कचरे के ढेर में डाल दिया है शायद. कांग्रेस की राजनीति तो उन चिंताओं के आसपास भी नजर नहीं आती. आज की तारीख में कई सवाल ऐसे हैं जिसे बाहर के लोगों की बजाए कांग्रेस के अपने लोगों को ही पार्टी फोरम में पूछना चाहिए. जो चेहरा एक चुनाव तक नहीं जितवा सकता, एक चुनाव में अपने चेहरे को दिखाने से बचता है, क्या उसे राजनीति में शीर्ष पर बने रहने का हक़ है? वह एक संसदीय नेता की बजाए एक उपद्रवी भीड़ का नेता ज्यादा नजर आ रहा है.
राहुल पर ठीकरा कैसे फोड़ सकते हैं आप?
हालांकि मजेदार यह है कि राहुल की अनुपस्थिति की वजह से अब ऐसा कहा नहीं जा सकता कि दिल्ली, गुजरात राहुल की वजह से हार गए, या हिमाचल राहुल की वजह से हार सकते थे. सौभाग्य से कांग्रेस वहां जीत गई है. लेकिन यह भी नहीं कहा जा सकता कि हिमाचल में विजय राहुल की वजह से मिली. मौजूदा चुनावों में राहुल की कोई भूमिका नहीं थी. सच्चाई यही है. और जब जनादेश को देखते हैं तो समझ आता है कि दिल्ली, गुजरात और हिमाचल के चुनावों में भारत जोड़ो यात्रा की भी कोई भूमिका नहीं है. अब कांग्रेस के कार्यकर्ता स्वतंत्र हैं कि वे हिमाचल की जीत को राहुल को समर्पित कर दें, गुजरात में वोटकटुआ बताकर ठीकरा आम आदमी पार्टी पर फोड़ दें और दिल्ली को एक मामूली चुनाव कहकर खारिज कर दें. बावजूद कि हिमाचल की जीत कायदे से गांधी परिवार की जीत तो कही ही नहीं जा सकती. गांधी परिवार लगभग अनुपस्थित था और जब बहुत सवाल होने लगे बिल्कुल आख़िरी में प्रियंका गांधी वहां कैम्पेन करने पहुंची. उन्होंने सिर्फ चार सभाएं कीं.
तो पहली बात यह कि जीत समर्पित भी की जाएगी तो जैसे यूपी की हार की जिम्मेदारी प्रियंका ने कंधों पर ली, वैसे ही हिमाचल में जीत का सेहरा भी सिर्फ उन्हीं के सिर बंधना चाहिए, राहुल गांधी के नहीं. लेकिन हिमाचल शपथ ग्रहण के तामझाम बताते हैं कि महिलाओं से ऐतिहासिक परहेज की परंपरा अब इंदिरा कांग्रेस का भी हिस्सा है.
दूसरी बात कि अध्यक्ष के रूप में मल्लिकार्जुन खड़गे की ताजपोशी भी काम नहीं आई. दिल्ली, गुजरात के नतीजे तो यही कहते हैं. खड़ाऊ दलित अध्यक्ष के रूप में खड़गे को मायावती की काट के लिए लाया गया था. लेकिन खड़गे के चेहरे पर कोई वोट देने नहीं निकला. वैसे ही जैसे पंजाब में चन्नी के चेहरे पर दलित कांग्रेस को वोट देने नहीं आए. आप को वोट दे दिया जिसका मुखिया वैश्य समाज से है. गुजरात-हिमाचल में सुरक्षित सीटों पर भाजपा का स्ट्राइक रेट देख लें. कांग्रेस को सोचना चाहिए कि आखिर दलितों ने उससे किस वजह से परहेज किया.
बस दिल्ली में दिखा भारत जोड़ो यात्रा का फायदा, पर क्या होगा इससे
हां, भारत जोड़ो यात्रा का एक बड़ा फायदा दिल्ली में जरूर दिखा है. यहां कांग्रेस ने कुल 9 सीटें जीती जिसमें सात मुस्लिम हैं. यही भारत जोड़ो यात्रा की बहुत बड़ी उपलब्धि है. उसने 9 सीटों पर आप को पछाड़कर मुसलमानों के कुछ ज्यादा मत हासिल किए. हिन्दुत्ववादी रुख की वजह से आप का वोट थोड़ा घटा है कहीं कहीं. मुसलमान वोटबैंक कांग्रेस का कोर वोट रहा है. भारत जोड़ो यात्रा में इसी वोट को लुभाने के लिए राहुल ने कई हथकंडे अपनाए. केरल में लंबा वक्त गुजारा. उनकी यात्रा में अल्लामा इकबाल जैसे भारत के विभाजक नेताओं का फोटो लगाए गए. बुर्के का समर्थन किया गया. राहुल खुद सिर से पांव तक बुर्के में ढंकी एक नाबालिग लड़की का हाथ पकड़े देशभर के मुसलमानों को क्या संदेश दे रहे थे? भारत जोड़ो यात्रा का असर दिल्ली में नजर आता है. लेकिन ये क्या- दो पार्टियां 100 से ज्यादा सीटें हासिल कर रही हैं और कांग्रेस को सिर्फ 9 सीटें?
अब यह राहुल का दुर्भाग्य है कि गुजरात में आम आदमी पार्टी उतर गई और कांग्रेस सरकार बनाने से चूक गई. वैसे ना कांग्रेस बदली नजर आई चुनावों में और ना मुसलमान मतदाता. गुजरात के मुसलमानों ने आम आदमी पार्टी का साथ देकर एक बार फिर साफ कर दिया कि अभी उनकी पुरानी फितरत गई नहीं है. कोई पार्टी भले उन्हें अपना समझें मगर वे किसी के सगे हैं नहीं. थोक के भाव में उनका वोट उसी पार्टी को जाएगा जो राष्ट्रवादी राजनीति को हराने में सक्षम है. वह चाहे जो हो, उन्हें फर्क नहीं पड़ता.
राहुल का इससे बड़ा दुर्भाग्य और क्या हो सकता है कि अब जबकि राजनीति में मुसलमान मुद्दा ही नहीं रहे- भारत जोड़ो की थकाऊ यात्रा के बाद किस वोट बैंक के सहारे भविष्य में प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे हैं? और सवाल यह है कि हिमाचल से कांग्रेस के कितने सांसद बढ़ जाएंगे? उनके नेता, जो यह तर्क दे रहे हैं कि यात्रा की समाप्ति के बाद होने वाले चुनावों में असर दिखेगा- सवाल है कि दो महीने बाद ऐसा क्या हो जाएगा जो गुजरात-हिमाचल या दिल्ली में असंभव था.
क्या यात्रा के बाद कोई देवता प्रसन्न होकर राहुल को एक जादुई छड़ी सौंपने वाला है. छड़ी पाकर राजनीति का यह हैरी पॉटर जिधर उसे घुमाएगा वहां कांग्रेस की सरकारें बन जाएगी. लोकतंत्र में तो ऐसा होता नहीं. बेशुमार मेहनत करनी पड़ती है. तेजस्वी यादव और अखिलेश को देखिए. जो समाज एक रुपये की टॉफ़ी खरीदने के लिए भी तमाम ऑफर चेक करता है वो भला देश की बागडोर किसी के हाथ यूं ही क्यों सौंप देगा? कांग्रेस कार्यकर्ताओं को आत्ममंथन करना चाहिए.