आरक्षण की राजनीति बीजेपी के लिए नासूर बनने वाली है.बीजेपी की आमतौर पर छवि सवर्णों की पार्टी के रूप में रही है. बड़ी मुश्किल से पार्टी ने अपनी छवि पिछड़ों की पार्टी के रूप में बनाई थी, पर राजनीतिक माहौल कुछ ऐसा बन रहा है कि पार्टी मुश्किल में फंस गई है. बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार को झटका देते हुए, पटना उच्च न्यायालय ने गुरुवार को अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और के लिए कोटा बढ़ाने वाले नवंबर 2023 के कानून को रद्द कर दिया. इस कानून के तहत सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में अत्यंत पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) 50% से 65% के आरक्षण का प्रावधान करता है.सुप्रीम कोर्ट इसके पहले भी 50 प्रतिशत के ऊपर दिए गए आरक्षण को रद्द करता रहा है. पर इस फैसले ने बिहार की राजनीति को एक महत्वपूर्ण मोड़ पर खड़ा कर दिया है. विशेषकर भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत समस्या खड़ी हो गई है. हालांकि भारतीय जनता पार्टी भी इस कानून के खिलाफ कोर्ट जाने के नीतीश सरकार के फैसले का समर्थन ही कर रही है. पर उसके लिए यह समर्थन इतना आसान नहीं है. आइए देखते हैं क्यों बीजेपी के लिए आगे कुआं पीछे खाई वाली हालात पैदा हो गई बै.
1-बीजेपी की सवर्ण पॉलिटिक्स
इसमें कोई 2 राय नहीं हो सकती कि बिहार में सवर्णों का वोट बीजेपी को मिलता रहा है.पार्टी के कोर वोटर्स ब्राह्मण-ठाकुर-भूमिहार-कायस्थ-बनिया आदि हैं. पर पिछड़ी जाति और दलित वोटों का दबाव इतना है कि पार्टी अपनी छवि पिछड़ा समर्थक ही रखना चाहती है. शायद यही कारण है कि विधानसभा में जेडीयू से अधिक सीट होने के बावजूद भारतीय जनता पार्टी का प्रदेश में डिप्टी सीएम ही होता है. सीएम नीतीश कुमार कम विधायकों के बावजूद पूरी स्वतंत्रता के साथ अपना कार्यकाल एन्जॉय कर रहे हैं. चूंकि भारतीय जनता पार्टी जानती है के बिहार में पिछड़ा और अति पिछड़ा वोट की गारंटी नीतीश कुमार ही हैं. बीजेपी को बिहार लोकसभा चुनावों में जो सफलता मिली है उसके पीछे भी नीतीश कुमार का बहुत बड़ा रोल है. चूंकि आरक्षण बढ़ाने वाला यह कानून नीतीश कुमार का ड्रीम प्रोजेक्ट है इसलिए बीजेपी इसको नजरंदाज भी नहीं कर सकती है. हालांकि जातिगत जनगणना को भी बीजेपी ने सपोर्ट किया था. पर यह सभी जानते हैं कि बीजेपी की प्राथमिकता में ये दोनों ही नहीं है. न जातिगत जनगणना और न ही आरक्षण का कोटा बढ़ाना. अगर बीजेपी के प्राथमिकता में ये दोनों चीजें होतीं तो वो भी अपने मेनिफेस्टो में इसका प्रावधान करता पर ऐसा नहीं है. बीजेपी की मजबूरी ये है कि जाति जनगणना और आरक्षण का कोटा बढाना इन दोनों ही बातों का बिहार में उसे समर्थन करना होगा. हालांकि भारतीय जनता पार्टी इन दोनों मुद्दों पर समर्थन के बाद भी पार्टी पिछड़े वोटों में कितना सेध लहा पाएगी यह अनिश्चित ही है. फिर भी पिछड़ा समर्थक छवि बनाए रखने के लिए पार्टी सर्वोच्च न्यायालय में बिहार उच्च न्यायालय के फैसले का विरोध करने जा रही है.
2-बिहार में आरएसएस का बयान और राइट विंग इन्फ्लूएंसर
भारतीय जनता पार्टी ने पिछले कई सालों से लगातार दलितों और पिछड़ों के लिए वो सब कर रही है जो कभी कांग्रेस, समाजवादी पार्टी या आरजेडी ने नहीं किया होगा. जैसे एसएसी -एसटी कानून जब सुप्रीम कोर्ट के फैसले से थोड़ा डाइल्यूट हुआ तो बीजेपी सरकार ने विधेयक पास कर कानून के पुराने स्वरूप को जिंदा किया. इसी तरह जब प्रोमोशन में आरक्षण का विरोध समाजवादी पार्टी जैसे दलों ने किया बीजेपी मजबूती के साथ प्रोमोशन में आरक्षण के साथ खड़ी रही. इसके बावूजद लोकसभा चुनावों में संविधान बचाओ और आरक्षण बचाओ के नाम पर इंडिया गठबंधन के दलों ने बीजेपी को मिलने वाले दलित और पिछड़ों वोटों में सेंध लगा दी.
ऐसा क्यों हुआ? यह विचारणीय तथ्य है. दरअसल भारतीय जनता पार्टी तो दलितों और पिछड़ों के लिए संरक्षण के लिए हर तरह से खड़ी रहती है. जिसमें आरक्षण का समर्थन भी शामिल है. पर बीजेपी के अभिभावक संगठन आरएसएस हो या दक्षिणपंथी यूट्यूबर गैंग सभी आरक्षण के विरोध में आग उगलते रहे हैं. आरएसएस ने हालांकि अपनी विचारधार को बदला है पर 2015 में संघ प्रमुख के आरक्षण विरोधी बयान का भूत गाहे बगाए उठता ही रहता है. घोर दक्षिणपंथी हैंडल दिन भर बीजेपी के समर्थन में एजेंडा चलाते रहते हैं पर जब आरक्षण की बात होगी तो वो बीजेपी को भी कोसने लगते हैं.
3-कांग्रेस ने अपने मैनिफेस्टो में आरक्षण का कोटा बढ़ाने का वादा किया है
बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि कांग्रेस पिछड़ी और दलित राजनीति की बड़ी खिलाड़ी बनकर उभर रही है. राहुल गांधी करीब 6 महीने में सैकड़ों बार जाति जनगणना कराने की बात कर चुके हैं. वो अपने भाषणों में बार बार उठाते हैं कि किस तरह 90 प्रतिशत लोगों के हित के फैसले लेने पिछड़े तबके के लोगों की भागीदारी नहीं के बराबर है. अयोध्या में राम मंदिर उद्घाटन तक को राहुल गांधी ने दलितों और पिछड़ों की भागीदारी से जोड़ दिया था. अयोध्या में एक दलित के सांसद बनने के बाद उनकी बात पर मुहर भी लग गई. संविधान बचाओ और आरक्षण बचाओ को मुद्दा बनाकर कांग्रेस ने वैसे भी बीजेपी को बैकफुट पर डाल दिया था. कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में भी आरक्षण का कोटा बढ़ाने का वादा किया था. निश्चित है कि कांग्रेस इस मुद्दे पर और फोकस करेगी. चूंकि दलित जातियां कांग्रेस की परंपरागत वोटर रही हैं इसलिए भी बीजेपी के लिए मुश्किल हो रही है कि कहीं फिर से दलित वोट कांग्रेस की ओर शिफ्ट न हो जाएं.
4- नौंवी अनुसूची में ले जाने की होगी मांग
भारतीय जनता पार्टी के सामने मुश्किल यह होगी कि केंद्र सरकार में महत्वपूर्ण भागीदार जेडीयू बिहार में पास हुआ आरक्षण का कोटा बढाने वाले कानून को नौंवी अनुसूची में डालने की मांग करेगी. नौंवी अनुसूची संविधान का वह हिस्सा है जिसमें किसी कानून को रख देने से उस कानून को कोर्ट में चैलेंज करना मुश्किल हो जाता है.बिहार में 12 लोकसभा सीटें जीतकर, जेडी (यू) राष्ट्रीय मंच पर भी एक प्रमुख खिलाड़ी के रूप में उभरी है, क्योंकि मोदी सरकार की निर्भरता जेडीयू और एन चंद्रबाबू नायडू के नेतृत्व वाली टीडीपी (16 सीटें) पर आश्रित है. नीतीश ने पहली बार बिहार कोटा वृद्धि कानूनों को संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की थी जब वह विपक्षी इंडिया गुट का हिस्सा थे. वह भाजपा के एक प्रमुख भागीदार के रूप में फिर से ऐसा करने की मांग करेंगे.
इंडियन एक्सप्रेस लिखता है कि जद (यू) के राष्ट्रीय महासचिव के सी त्यागी ने कहा कि जब केंद्र ईडब्ल्यूएस कोटा लाया तो आरक्षण 50% का आंकड़ा पार कर गया. तमिलनाडु और कई अन्य राज्यों में भी आरक्षण 50% से अधिक है. जैसे इन सभी कानूनों को कोई चैंलेंज नहीं कर पा रहा है उसी तरह के जो जरूरी कदम होंगे हम उठाएंगे. उन्होंने कहा कि हम चाहते हैं कि इसे नौवीं अनुसूची में शामिल किया जाए ताकि आगे कोई इसे चुनौती न दे सके. हम समाज के वंचित वर्गों को न्याय दिलाने के लिए हर जरूरी कदम उठाएंगे.