कांग्रेस बिहार को लेकर कितना गंभीर है यह इस तरह समझ सकते हैं कि अभी विधानसभा चुनावों में करीब छह-सात महीने का समय है, पर राज्य में पिछले चार महीने के भीतर राहुल गांधी आज तीसरी बार पहुंचे हैं. राहुल गांधी और कन्हैया कुमार की जुगलबंदी के चलते आज यानी 7 अप्रैल को बेगूसराय में 'पलायन रोको, नौकरी दो' पदयात्रा में कांग्रेस समर्थकों में जबरदस्त उत्साह नजर आया. राहुल गांधी बेगूसराय से पटना भी जाएंगे जहां संविधान सुरक्षा सम्मेलन में भी शामिल होंगे और कांग्रेस के वरिष्ठ नेताओं से बात करेंगे.
जाहिर है कि जिस तरह राहुल गांधी बिहार विधानसभा चुनावों को लेकर सक्रिय हैं और कांग्रेस जिस तरह इस बार ज्यादा मुखर नजर आ रही है उसके पीछे जरूर कोई बड़ी रणनीति या महत्वाकांक्षा काम कर रही है. पर यह भी तय है कि कांग्रेस कुछ भी कर ले बिहार में सरकार बनाने से रही. दूसरे यह भी तय है कि पिछली बार से अधिक सीट उसे महागठबंधन में आरजेडी देने वाली नहीं है. सवाल उठता है कि क्या कांग्रेस बिहार में अकेले दम पर कुछ बड़ा करना चाहती है? अगर ऐसा है तो क्या कन्हैया कुमार के नेतृत्व में यह संभव हो सकेगा?
1- वो क्या है जो राहुल और कन्हैया कुमार को एक सूत्र में बांधता है
राहुल गांधी और कन्हैया कुमार के बीच बिहार में जो जुगलबंदी दिख रही है, उसके बारे में कहा जाता रहा है कि दोनों का झुकाव कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर है. कन्हैया कुमार तो कम्युनिस्ट रहे ही हैं. अभी कुछ दिन पहले ही बिहार में कांग्रेस की पलायन रोको-नौकरी दो यात्रा के दौरान उन्होंने कहा था कि बिहार में बन रही सड़कें यहां का पानी लूटने के लिए हैं. कन्हैया कुमार की बातचीत से यही लगा कि कांग्रेस की सरकार बनने के बाद कन्हैया कुमार बिहार में सड़कों का निर्माण बंद करवा सकते हैं.
राहुल के राजनीतिक गुरू सैम पित्रोदा के विचार भी बहुत हद तक कम्युनिस्ट ही हैं. राहुल अपने गुरू की तरह कई बार संपत्ति के समान वितरण की बात करते रहे हैं. जाति जनगणना के पीछे उनका यही इरादा है कि वंचितों के बीच संपत्ति का समान वितरण किया जा सके. पर बिहार में कम्युनिस्ट पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़कर कन्हैया कुमार 2019 के लोकसभा चुनावों में बुरी तरह हारे थे.
2019 के लोकसभा चुनाव में जब सीपीआई ने कन्हैया कुमार को बेगूसराय संसदीय सीट पर प्रत्याशी बनाया था. पूरे देश से भाजपा-विरोधी नेताओं का हुजूम कन्हैया के समर्थन में बिहार आया था. सीपीआई और राजद का वोट मिलाकर भी भारतीय जनता पार्टी प्रत्याशी गिरिराज सिंह से बहुत दूर था. गिरिराज सिंह को इस चुनाव में 6,92,193 वोट मिले थे. कन्हैया कमार को 2,69,976 और राजद के मो. तनवीर हसन को 1,98,233 वोट मिले थे. कहने का मतलब सिर्फ इतना है कि बिहार में अब इस विचारधारा का अंत हो चुका है.
2-कांग्रेस का पूरा फोकस सवर्णों के वोट पर है
कन्हैया कुमार छात्र नेता रहे हैं. वह भी जेएनयू के नेता रहे हैं. उनके भाषण तो बहुत लोकप्रिय हुए पर राजनीति में उन्हें सफलता नहीं मिली. राहुल गांधी उनकी तीसरी बार लांचिंग के लिए बिहार पहुंचे हुए हैं. कन्हैया दिल्ली में कांग्रेस की ओर से आजमाए जाने के पहले बिहार में वामदल के साथ अपनी किस्मत आजमा कर निकले थे.
कन्हैया कुमार लकी हैं कि पिछली दो असफलताओं के बाद भी बिहार जैसे राज्य में उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व करने का मौका मिला है. खुद राहुल गांधी उनकी यात्रा को प्रमोट करने पहुंच गए हैं. वरना दिल्ली में स्थानीय कांग्रेस यात्रा लेकर घूमती रही पर राहुल को वहां जाने की फुरसत नहीं मिली.
दरअसल माना जा रहा है कि कन्हैया कुमार के जरिए कांग्रेस अपने परंपरागत वोट हासिल करना चाहती है. कांग्रेस को यह बात समझ में आ चुकी है कि अब बीजेपी की जगह लेने के लिए आरजेडी और बीजेपी जैसी पार्टियों से अपना वोट बैंक फिर से हासिल करना होगा. इसलिए कन्हैया कुमार के जरिए बिहार की जनता को संदेश देने की कोशिश की गई है. पहला संदेश यह है कि कांग्रेस सवर्णों की पार्टी है. दूसरे, कन्हैया कुमार चूंकि कम्युनिस्ट रहे हैं और गरीबों और वंचितों की लड़ाई लड़ते रहे हैं और बीजेपी के कट्टर विरोधी हैं. इसलिए कांग्रेस के परपंरागत वोटर्स के लिए फिट बैठते हैं. गांधी फैमिली ने शायद इसी के चलते वक्फ बोर्ड संशोधन विधेय़क पर भी संसंद में कुछ बोलना उचित नहीं समझा था. बिहार के 40 जिलाध्यक्षों की सूची में 21 नये चेहरों को जगह दी गई है. 19 जिलाध्यक्षों को दोबारा मौका दिया गया है. जातियों के हिसाब से देखें तो सबसे ज्यादा 14 सवर्ण जिला अध्यक्ष बनाये गये हैं.
3- आरजेडी को बिहार में खत्म भी कर सके कन्हैया कुमार तो कांग्रेस के लिए यह उपलब्धि ही होगी
कांग्रेस की दिल्ली वाली रणनीति को अगर ध्यान से देखें तो समझ में आता है कि कन्हैया कुमार को बिहार में कांग्रेस ने क्यों मौका दिया होगा. कांग्रेस को यह बात समझ में आ चुकी है कि बिना अपने सहयोगी पार्टियों को खत्म किए बिना पार्टी फिर से खड़ा नहीं हो सकती. दरअसल चाहे आम आदमी पार्टी हो या आरजेडी हो सभी की ताकत के पीछे कांग्रेस के परंपरागत वोटों का ट्रांसफर होना ही रहा है. कांग्रेस को अपने इन परंपरागता वोट को फिऱ से हासिल करना चाहती है. कांग्रेस को पता है कि जब तक आरजेडी , समाजवादी पार्टी और आम आदमी पार्टी जैसे पार्टियां खत्म नहीं होंगी कांग्रेस के परंपरागत वोट फिर से उसके पास नहीं आएंगे. कन्हैया कुमार को बिहार में लाने का पहला मतलब ही यह था कि आरजेडी को चिढ़ाया जा सके. पूरा बिहार जानता है कि लालू फैमिली कन्हैया कुमार और पप्पू यादव से चिढ़ती है. कांग्रेस एक तरफ तो इन दोनों को प्रमोट कर रही है. दूसरी ओर कांग्रेस नेतृत्व लालू यादव से दिल्ली में मुलाकात भी कर रहा है.
4- कांग्रेस का परंपरागत वोटर्स को लुभाने की रणनीति
कांग्रेस का मुख्य फोकस दलित -सवर्ण और मुसलमान वोटर्स पर है. शायद यही कारण है कि बिहार में सवर्ण नेता को हटाकर बिहार कांग्रेस की कमान दलित फेस राजेश कुमार को दिया गया है.1 अप्रैल को देर रात कांग्रेस नेतृत्व ने बिहार में 40 अध्यक्षों की नियुक्ति की घोषणा की थी. संगठन में स्पष्ट दिखा कि सवर्णों का दबदबा फिर से हो गया है. नये बनाये गये जिलाअध्यक्षों में बाकियों के मुकाबले दलितों की संख्या काफी कम है. जातियों के हिसाब से देखें तो सबसे ज्यादा 14 सवर्ण जिला अध्यक्ष बनाये गये हैं. 10 जिलाध्यक्ष पिछड़े वर्ग के बनाये गये हैं, जिनमें 5 यादव, 3 कुशवाहा और 2 कुर्मी तबके से आते हैं. 7 अल्पसंख्यकों को भी मौका दिया गया है, जिनमें 6 मुसलमान और एक सिख कांग्रेस नेता शामिल है.
कांग्रेस यह भी समझती है कि उसकी रणनीति का असली फायदा महागठबंधन से अलग हो कर ही मिलने वाला है. हो सकता है कि कांग्रेस पहले महागठबंधन के लिए अधिक से अधिक सीटों की मांग करे. मांग पूरी न होने पर अलग चुनाव लड़ने का ऐलान कर दे. वैसे भी कन्हैया कुमार के रहते आरजेडी के साथ कांग्रेस की कितनी बनेगी यह समय ही बताएगा.
5- क्या बेगूसराय में कन्हैया कुमार कांग्रेस की लाज बचा सकेंगे?
कन्हैया कुमार की 'पलायन रोको, नौकरी दो' यात्रा में पदयात्रा में शामिल होने के लिए राहुल गांधी बेगूसराय पहुंचे हैं. इसलिए ऐसा समझा जा रहा है कि कन्हैया कुमार यहां से चुनाव में उतर सकते हैं. मीडिया रिपोर्ट्स में कहा जा रहा है कि बेगूसराय में तेघड़ा या बछवाड़ा विधानसभा सीट पर कन्हैया पर्चा भर सकते हैं. तेघड़ा सीट अभी सीपीआई के पास है.जबकि बछवाड़ा सीट से भाजपा के सुरेंद्र मेहता विधायक हैं. बीजेपी ने यहां सीपीआई प्रत्याशी को हराया था. इसलिए उम्मीद है कि कांग्रेस महागठबंधन में इस सीट पर दावा कर सकती है. हालांकि 2019 के लोकसभा चुनावों में जिस तरह यहां की जनता ने कन्हैया कुमार को नकार दिया था उससे लगता नहीं कि इस बार वे कुछ कमाल दिखा पाएंगे.