मौजपुर, गोकुलपुरी, जाफराबाद, भजनपुरा, करदमपुरी, चांद बाग, खजूरी ख़ास, कबीरनगर... ये सब कुछ मोहल्लों के नाम भर नहीं हैं. बल्कि दिल्ली के सीने पर किए गए उस घाव के नाम हैं जो दंगईयों ने ढाएं हैं. मैं यानि समय देखता रहा मेरे दामन को खाक करती आग की लपटों को, खाक होते मकानों को, लूटी जा रही दुकानों को खामोशी से और कुछ न कर सका. तो किसने किया पक्षपात. हवाओं से, फूलों से, पत्तों से, पंछियों की चहचहाहटों से, बच्चों की खिलखिलाहटों से. किसकी रंजिशें निगल गईं जिंदगी के इल्म को, इंसानियत के तालीम को. कौन घोल कहा पानियों में लहू, कौन निगलता चला गया अंदर के इंसान को, आदमी के ईमान को, मादरे हिंदुस्तान को. दिल्ली कह रही है बहुत हुआ अब जीने दो.