राजस्थान की सियासत में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत 40 साल से कांग्रेस का चेहरा बने बने हुए हैं, लेकिन अब उनके सियासी उत्तराधिकारी के चुनने की बारी आई तो राजनीतिक संग्राम छिड़ गया है. गहलोत ने छात्र राजनीति से अपनी सियासी पारी का आगाज किया था. अशोक गहलोत साल 1998 में पहली बार राजस्थान के मुख्यमंत्री बने थे. गहलोत उस समय विधायक नहीं थे लेकिन हाईकमान के एक लाइन के प्रस्ताव वाले फॉर्मूले से सत्ता की कमान संभाली थी और आज पायलट के लिए जब उसी फॉर्मूला को अपनाया जा रहा है तो गहलोत खेमा बागी रुख अख्तियार कर रहा?
अशोक गहलोत तीसरी बार राजस्थान के मुख्यमंत्री है और उन्होंने अपने सियासी सफर में कई दिग्गज नेताओं को सियासी मात दी है. हालांकि, उन्हें पहली बार सीएम बनने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ी थी और उन्होंने परसराम मदेरणा जैसे नेता की नाक के नीचे से मुख्यमंत्री की कुर्सी छीन ली थी. यह बात ढाई दशक पहले की है और गहलोत को सियासत में आए हुए 15 साल से ज्यादा का वक्त गुजर चुका था लेकिन तब परसराम मदेरणा, बलराम जाखड़ और रामनिवास मिर्धा, सोनाराम चौधरी जैसे नेताओं का दबदबा था.
राजस्थान में साल 1998 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की कमान अशोक गहलोत के हाथों में थी लेकिन परसराम मदेरणा उस समय राजस्थान में कांग्रेस के सबसे ताकतवर नेता माने जाते थे. पश्चिमी राजस्थान की सियासत में कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा भी मदेरणा थे. वह जाट समुदाय से थे और तब राजस्थान की राजनीति में जाट समुदाय के तीन बड़े नेताओं की तिकड़ी की चलती थी. इनमें बलराम जाखड़, परसराम मदेरणा और रामनिवास मिर्धा शामिल थे.
मदेरणा माने जा रहे थे सीएम उम्मीदवार
1998 के चुनाव में कांग्रेस किसी चेहरे को आगे करके चुनाव नहीं लड़ी थी. लेकिन मदेरणा को ही सीएम कैंडिडेट माना जा रहा था. उन्होंने कड़ी मशक्कत कर भैरो सिंह शेखावत की अगुवाई वाली भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) को मात दी थी. कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बाद जब बारी आई मुख्यमंत्री बनाने की तो पार्टी आलाकमान ने पर्यवेक्षक भेजकर एक लाइन का प्रस्ताव पास किया और अशोक गहलोत मुख्यमंत्री बने थे जबकि विधायकों का समर्थन मदेरणा के पक्ष में था.
अशोक गहलोत उस समय विधायक भी नहीं थे, लेकिन कांग्रेस हाईकमान के एक लाइन के प्रस्ताव वाले फॉर्मूले ने मुख्यमंत्री की कुर्सी उन्हें सौंप दी. इस तरह विधायक बनने से पहले ही उन्हें विधायक दल का नेता चुन लिया गया और मुख्यमंत्री बना दिया गया था. परसराम मदेरणा भी गांधी परिवार के प्रति वफादार थे और पार्टी आलाकमान के आदेश को इग्नोर नहीं कर सके.
गहलोत को चुनौती दे सकते थे परसराम मदेरणा
हालांकि, परसराम मदेरणा उस समय चाहते तो कांग्रेस हाईकमान के फैसले के खिलाफ जाकर अशोक गहलोत को चुनौती दे सकते थे. मदेरणा ने उस समय अपनी वफादारी साबित करते हुए विधानसभा अध्यक्ष बनकर संतोष कर लिया था और सीएम की कुर्सी गहलोत को सौंप दी थी. मुख्यमंत्री बनने के बाद 6 महीने के भीतर विधायक बनना जरूरी होता है. ऐसे में उनके लिए जोधपुर की सरदारपुरा विधानसभा सीट को मानसिंह देवड़ा से इस्तीफा दिलववाकर खाली कराया गया, जहां से गहलोत विधायक बने. मदेरणा ने भले ही चुनौती नहीं दी लेकिन इससे जाट समुदाय की नाराजगी गहलोत और कांग्रेस के खिलाफ बढ़ गई थी.
ढाई दशक बाद उसी मुकाम पर खड़े हैं गहलोत
सियासत ने ढाई दशक के बाद अशोक गहलोत को फिर उसी मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया है लेकिन इस बार गहलोत ही हाईकमान के उस फॉर्मूले का विरोध रहे हैं जिसके जरिए वे पहली बार सीएम बने थे. कांग्रेस अध्यक्ष पद के चुनाव लड़ने की संभावना के बीच कांग्रेस हाईकमान ने अशोक गहलोत के सियासी उत्तराधिकारी के तौर पर सचिन पायलट को सीएम बनाने के लिए पटकथा लिख दी थी.
पर्यवेक्षक चाहते थे पास हो एक लाइन का प्रस्ताव
कांग्रेस हाईकमान ने मल्लिकार्जुन खड़गे और अजय माकन को पर्यवेक्षक बनाकर जयपुर भेजा गया था. पर्यवेक्षक चाहते थे कि विधायकों की बैठक में एक लाइन का प्रस्ताव पास किया जाए कि मुख्यमंत्री को लेकर हाईकमान जो फैसला लेगा, वो सभी को स्वीकार होगा. गहलोत खेमे को यह बात स्वीकर नहीं हुई, क्योंकि वो समझ रहे थे कि पार्टी हाईकमान कहीं न कहीं पायलट को सत्ता की बागडोर सौंपना चाहता है.
विधायक दल की बैठक से पहले गहलोत ने कहा कि ऐसी बैठकों में एक लाइन का प्रस्ताव पास करते हैं कि जो हाईकमान तय करेगा, वही हमें मंजूर होगा. इसके बाद मंत्री शांति धारीवाल के घर बैठक में गहलोत गुट के विधायकों ने स्पीकर सीपी जोशी से मिलकर इस्तीफे सौंपने का दांव चल दिया जिसके चलते न विधायक दल की बैठक हो सकी और न ही मुख्यमंत्री को लेकर कोई फैसला ही हो सका. गहलोत खेमे के विधायकों ने कहा कि कांग्रेस हाईकमान हमारे ऊपर अपना फैसला थोप नहीं सकता है और उन्होंने अपनी तीन शर्तें रख दी जिसे पर्यवेक्षकों ने स्वीकार नहीं किया.
दिव्या मदेरणा ने याद किया 1998 का घटनाक्रम
कांग्रेस की तेज तर्रार विधायक दिव्या मदेरणा, परसराम मदेरणा की पोती हैं. राजस्थान के सियासी ड्रामे के दौरान दिव्या मदेरणा ने अपने दादा परसराम मदेरणा को याद करते हुए कहा कि वे किसी भी गुट में नहीं हैं और जो कांग्रेस आलाकमान का आदेश होगा, वही उनके लिए सिर माथे पर होगा. उन्होंने कहा कि 1998 में पीसीसी की बैठक में एक लाइन का प्रस्ताव उन्होंने ही माइक पर बोलकर पारित कराया था- आलाकमान का निर्णय सब को मान्य होगा. अधिकतर विधायक मदेरणा के पक्ष में थे लेकिन उन्होंने सब को बुलाकर सख्ती से कह दिया था कि विद्रोह का एक शब्द मैं नहीं सुनना चाहता हूं.
दिव्या मदेरणा ने कहा कि परसराम मदेरणा जिस मिट्टी से बने थे, वह मिट्टी आज के दौर में नहीं मिलती. उनके रग-रग में, खून में, आत्मा में सिर्फ कांग्रेस और आलाकमान के प्रति वफादारी थी. आखिरी सांस तक उफ तक नहीं किया. राजस्थान की राजनीति में कोई भी व्यक्ति परसराम मदेरणा नहीं हो सकता. उन्होंने कहा कि कांग्रेस में हमेशा ही आलाकमान की चलती आई है. विधायक हों या मंत्री, सभी आलाकमान के फैसले को मानते आए हैं लेकिन ऐसा पहली बार हुआ कि आलाकमान के समक्ष शर्तें रखी गई हों या फिर कह सकते हैं कि आलाकमान की बातों को नकार दिया गया है.